अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

‘हिंदुत्व मुक्त भारत की ओर’ : सभी के लिए एक जरूरी किताब

Share

स्वदेश कुमार सिन्हा

प्रो. कांचा आइलैय्या शेपर्ड तेलुगुभाषी समाजशास्त्री हैं। वे अंग्रेजी में लिखते हैं। वे निश्चित रूप से बहुजन विमर्श के एक बड़े व्याख्याकार हैं। उनकी लिखी हर पुस्तक ने व्यापक चर्चा बटोरी है। यह इसके बावजूद कि उनकी अनेक पुस्तकों में उठाए गए अनेक मुद्दे विचारोत्तेजक रहे हैं। इसके बाद भी उनकी अधिकांश पुस्तकें ‘बेस्ट सेलर’ रही हैं। उनकी नवीनतम पुस्तक ‘हिंदुत्व मुक्त भारत की ओर : आदिवासी-दलित-पिछड़ों के सामाजिक-आध्यात्मिक और वैज्ञानिक क्रांति का मंथन’ वर्ष 2009 में प्रकाशित उनकी मूल अंग्रेजी पुस्तक ‘पोस्ट-हिंदू इंडिया : ए डिस्कोर्स ऑन दलित-बहुजन, सोशियो-स्पिरिचुअल एंड सांइटिफिक रेवोल्यूशन’ के हिंदी अनुवाद का दूसरा संस्करण है, जिसे फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली ने नए कलेवर व संशोधित अनुवाद के साथ प्रकाशित किया है। 

लेखक ने तेरह अध्यायों में बंटी अपनी इस पुस्तक में हिंदू समाज के विभिन्न आयामों में रूपांतरण को अपना विषय बनाना चाहा है। हज़ारों जातियों में विभाजित सामाजिक समूह की उत्पादन प्रणाली तो भिन्न है ही, उसके पीछे काम करने वाला मनोविज्ञान भी भिन्न है। इस जाति-आधारित सामाजिक व्यवस्था में दलित, आदिवासी और ओबीसी के पारंपरिक ज्ञान-कौशल व अभियांत्रिकी गुण को खारिज किया जाता है, जिसका प्रभाव उनके उत्पादन के ऊपर पड़ता है। 

ब्रिटिश मार्क्सवादी विचारक जॉर्ज थॉमसन ने अपनी पुस्तक ‘ह्यूमन एसेंस’ (मानवीय सारतत्व) में लिखा है कि “दुनिया का समस्त ज्ञान, कला, साहित्य, संस्कृति सभी श्रम से पैदा हुआ। यूरोप में जब ग़ुलाम और श्रमिक हाड़-तोड़ मेहनत करके व्यापक संपदा और अतिरिक्त मूल्य पैदा कर रहे थे, तब उसी का उपभोग करके वहां के अभिजात्य बेजोड़ दर्शन, राजनीति, विज्ञान, गणित और खगोलशास्त्र आदि का सृजन कर रहे थे।”

यह कहा जा सकता है कि भारत के श्रमिक वर्गेां के भी हालात कुछ इसी तरह के रहे। यहां का श्रमिक वर्ग था– दलित, ओबीसी और जनजातियों के लोग और अभिजात्य था ब्राह्मण वर्ग। पश्चिम के अभिजात्यों की तुलना में हिंदू समाज का यह ब्राह्मण वर्ग परजीवी और विज्ञान-विरोधी बना रहा तथा इस रूप में समाज के लिए भार। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वे तबके हैं, जो कोई ख़ास उत्पादन नहीं करते थे, इन सबका पेट पालन शूद्रों, अतिशूद्रों तथा जनजाति समाज के उत्पादन द्वारा किया जाता था, लेकिन इन उत्पादक समूहों के ज्ञान-कौशल को साजिशन उपेक्षित कर दिया गया। यह सब भारत के विकास में बाधक तो था ही, यह लंबे समय तक राजनीतिक ग़ुलामी का भी कारण बना रहा। लेखक अपनी पुस्तक के पहले ही अध्याय ‘बिना भुगतान के शिक्षक’ में वे लिखते हैं– “मैं भारत की अनगिनत जातियों और समुदायों के बीच एक यात्रा करने का प्रयास करूंगा। जब कोई समाज अत्यंत जटिल जाति व्यवस्थाओं से निर्मित होता है, तो इसकी विभिन्न संस्कृतियों को समझना एक कठिन कार्य है, फिर भी इस दिशा में एक प्रयास करना आवश्यक है, क्योंकि दलित, बहुजन जनसाधारण को ब्राह्मणवाद और स्वयं अपनी अज्ञानता के चंगुल से मुक्त करना आवश्यक है।” 

इसी अध्याय में बहुजन समाज और ब्राह्मणवादी समाज की खाद्य संस्कृति की तुलना करते हुए वे कहते हैं– “ब्राह्मणवादी समाज में शाकाहारी भोजन को दैवीय भोजन के रूप में सामने लाया गया और ऐसे भोजन की प्रशंसा की गई तथा उसे शुद्ध भोजन के रूप में महिमामंडित किया गया। जबकि जनजाति खाद्य संस्कृति की निंदा असभ्य लोगों के भोजन के रूप में की गई, लेकिन शाकाहारियों में मांसाहारी भोजन खाने की शिक्षा जनजाति समाज से ही मिली, क्योंकि भेड़, बकरी, मुर्गे, सूअर आदि खाने का प्रचलन जनजाति समाज में ही था।” 

समीक्षित पुस्तक ‘हिंदुत्व मुक्त भारत की ओर’ का मुख पृष्ठ

वास्तव में जनजाति समाज के लोगों ने ही अन्य लोगों को स्वादिष्ट मांसाहारी भोजन का ज्ञान दिया। उनके ही देखा-देखी मांसाहारी भोजन के ज्ञान को उच्च जातियों ने उनसे सीखा। इसी के साथ-साथ चमड़ा उद्योग के विकास का प्रश्न भी इससे जुड़ा है। दलित और जनजाति समुदायों ने पशुओं का चमड़ा उतारने और उसे साफ़ करके उपयोगी चमड़े के रूप में बदलने में अपने प्राचीन संचित ज्ञान का उपयोग करके इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त की। जहां एक ओर आज चर्म लघु उद्योग से लेकर बड़ी-बड़ी कंपनियां विकसित हुईं, उनमें इन्हीं वर्गों का संचित ज्ञान है। वहीं दूसरी ओर चमड़े का काम करने वाली जातियों को ब्राह्मण वर्ग घृणा की दृष्टि से देखता है, जबकि भारत में कृषि क्रांति से लेकर हर जगह चमड़े का व्यापक उपयोग होता है। यहां तक कि गायन-वादन के यंत्र बनाने में भी इसका उपयोग होता है। दलितों द्वारा स्थापित चमड़े के घरेलू उद्योग ने मनुष्य जाति को आत्मविश्वास मुहैया कराया।

एक अन्य अध्याय ‘सबाल्टर्न नारीवादी’ में कांचा आइलैय्या का कहना है कि पश्चिम से नारीवाद आने से बहुत पहले ही भारत में शूद्र तथा जनजाति समाज की स्त्रियां पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करती रही हैं, चाहे वह शिकार करना हो, खेतों में काम करना हो या चमड़े आदि का काम करना हो। उच्च जातियों में सफाई की अवधारणा को पवित्रता की धारणाओं से जोड़ दिया गया। इसी कारण से ये जातियां अपने ही गंदे कपड़े धोने के काम को बहुत निम्न स्तर का काम समझती थीं, इसलिए यह काम व्यापक दलित स्त्रियां करने लगीं तथा अपने ही गंदे कपड़े धोने वाली इस जाति को ब्राह्मण वर्ग ने अछूत घोषित कर दिया। शादी-विवाह को लेकर तथा इसमें निहित स्त्री-पुरुषों को लेकर नैतिकता और स्त्री की शुद्धता के मापदंड उस तरह के नहीं हैं, जैसे कि ब्राह्मण समाज में हैं। 

इसके अलावा एक अन्य अध्याय में उन्होंने बताया है कि गायों या भेड़ों को पालना तथा उससे ऊन और दूध का उत्पादन करने का काम भी पिछड़ी जातियों का ही रहा है और आज भी है, जिससे आज डेयरी उद्योग जैसे अनेक उद्योग विकसित हुए। गायपालन का काम यादव जाति के लोग करते थे, यही कारण है कि उन्हें उच्च जाति में नहीं रखा गया। हिंदू धार्मिक मिथकों में एक कृष्ण का ही ऐसा चरित्र हैं, जो पशुपालक थे। हो सकता है कि इसी कारण से संभवत: उन्हें भी यादव जाति में रख दिया गया। इसके विपरीत ईसाई धर्म में ईसा को गरेड़ियाए के रूप में चित्रित किया गया। इसका अर्थ यह है कि हिंदू धर्म की अपेक्षा अन्य धर्मों में श्रम की गरिमा स्थापित की गई है। लेखक आगे लिखते हैं– “भारत के ब्राह्मणों ने यादवों के साथ ऐसा घोर छल किया कि उसने उनका भगवान तक छीन लिया और उनसे अपना मतलब साधा। खेतों में काम न करने के बावज़ूद समाज के अन्य तबकों द्वारा पैदा किए गए हर संसाधनों के उपभोग को जायज़ ठहराने के लिए उन्होंने कृष्ण की लिखी पुस्तक को दुबारा लिखा। गीता में यादवों को सामाजिक रूप से जितने निम्न स्तर पर रखा गया है, इससे भी यह ज़ाहिर होता है, जिस रूप में यह पुस्तक आज है, उसमें वह ब्राह्मण पाठकों का ही हित साधन करती है। अगर इसका लेखन कृष्ण ने ही किया है, तो भी ब्राह्मणों ने बाद में जाकर इसका पुनर्लेखन किया ही होगा।” (पृष्ठ संख्या-131) 

बीसवीं सदी के तीसरे दशक में इटली और जर्मनी में उबरे फासीवादी-नाजीवादी अभियानों की चर्चा करते हुए वे बताते हैं कि हिंदुत्व के ब्राह्मणवादी ढांचे में ये तत्व हज़ारों सालों से चले आ रहे हैं। इसने आबादी के तीन-चौथाई हिस्से को आध्यात्मिक तौर पर विकलांग बना दिया है। इसलिए लेखक हिंदुत्व से मुक्ति की बात करते हैं। यह इन पददलित जाति समूहों के लिए ही नहीं, अपितु भारतीय राष्ट्रवाद के लिए भी आवश्यक है। भारतीय जाति व्यवस्था ने श्रमशील जातियों को आध्यात्मिकता से वंचित कर दिया, जिसके कारण उनका समग्र विकास नहीं हो पाया। गौतम बुद्ध से लेकर वासवन्ना और मध्य काल में कबीर, रैदास और नानक ने विभिन्न दस्तकार और किसान जातियों को आध्यात्मिक चेतना से जोड़ने की कोशिश की थी। आधुनिककाल में फुले-आंबेडकर ने भी ऐसी कोशिश की थी। 

बहरहाल 415 पृष्ठों की यह किताब अत्यंत विचारोत्तेजक है। सामाजिक सरोकारों वाले सभी लोगों को इसे अवश्य पढ़ना चाहिए।

समीक्षित पुस्तक : हिंदुत्व मुक्त भारत की ओर
लेखक : कांचा आइलैय्या शेपर्ड
प्रकाशक : फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली
मूल्य : 500 रुपए (अजिल्द)

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें