*सुसंस्कृति परिहार*
जिन राज्यों में इस साल के अंत में चुनाव होने वाले हैं उन राज्यों में खैरातों की बाढ़ आ गई है वे कितना असरकारी होंगी ये तो वक्त बताएगा किंतु ध्यान रहे देश के सर्वोच्च न्यायालय ने चुनावी काल में बंटने वाली रेवड़ियों पर चिंता जाहिर करते हुए एक याचिका पर संज्ञान लेते हुए चुनाव आयोग को इस बात के सख्त निर्देश दिए थे मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि चुनाव आयोग ने आदर्श चुनाव आचार संहिता में कई जगह बदलाव किये हैं। बदलाव के बाद राजनीतिक दलों को घोषणा पत्र में चुनावी वादों के साथ ही ये भी बताना होगा कि उनके सफल और व्यवहारिक संचालन के लिए पैसा कैसे आएगा?
चुनाव आयोग का कहना है कि अब सिर्फ घोषणायें कर देना भर काफी नहीं होगा, और इसी सिलसिले में आयोग ने सभी राजनीतिक दलों को पत्र भी लिखा है। आयोग का कहना है कि ये सब राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों को ज्यादा तार्किक और व्यवहारिक बनाने के मकसद से किया जा रहा है।
सवाल इस बात का है कि चुनावी घोषणाएं पढ़ते कितने लोग है वे जनता के बीच ना बराबर ही पहुंच पाती हैं हालांकि उनमें किए वादों को हमारे देश के गृहमंत्री बहुत पहले जुमला कहकर मुस्करा चुके हैं।15लाख,दो करोड़ को नौकरी कुछ इसी तरह की घोषणाएं थीं। इससे बाद से तो कहीं स्कूटी देने, टेलीविजन देने,बिजली बिल माफ करने जैसी बातें सामने आई गई हो चुकी है।मंच पर दिए झांसों में जनता को जाल में फंसाने का सिलसिला पिछले दस सालों से ज्यादा देखने मिल रहा है। हमारे साहिब जी तो इस कला में सबसे ज्यादा माहिर हैं ये एन्टायर पालिटिक्स डिग्री की ही देन है जो साहिब को सिर्फ दी गई अब नहीं पढ़ाई जाती कोई दूसरा उन जैसा बन गया तो मुसीबत आ जाएगी।
यही वजह है कि हमारे देश में पहली बार साहिब जी ही एमसीडी के चुनावों में प्रचार करने का नया कीर्तिमान भी बना चुके हैं वे मंच पर झूठ का ऐसा ताना बाना सालों साल से बुनते जा रहे हैं कि लगता है वे सिर्फ और सिर्फ भारत में भाजपा के अकेले प्रचार मंत्री हैं।ये बात अलग है उनके मुखारविंद से निकले इन वचनों को फिर उनके मंत्री उच्च स्वरों में उठाकर एक माहौल बना देते हैं।ऐसा कल्चर कांग्रेस अपना लें तो शायद काम बन जाए। विदेशों में इतनी लंबी फेंक दिए कि सदन में कच्चा चिट्ठा खुल गया तो रही सही देश की प्रतिष्ठा धूल धूसरित कर दी।
बहरहाल बात रेवड़ी कल्चर की ही की जाए तो साथियों घोषणा पत्र से अलहदा विभिन्न राज्यों की सरकारें चुनाव के अंतिम साल में ऐसी घोषणाएं भी करती है जिनका सीधा असर मतदाताओं पर पड़ता है जैसे मध्यप्रदेश में हाल ही में घोषित लाड़ली बहना सम्मान निधि है जिसमें हजारों महिलाओं की उपस्थिति में मुख्यमंत्री ने एक महिला का आवेदन भरवाया। महिलाओं को पहले धरम से और अब रकम से वोट की ओर आकृष्ट किया जा रहा है जबकि प्रदेश की आर्थिक हालत बदतर है और सरकार कर्ज पर क़र्ज़ लिए जा रही है।यह बंदरबांट चुनावी साल में ही क्यों होती है इस पर संज्ञान लेने की ज़रुरत है। लाड़ली बहना को रक्षाबंधन में और उपहार दिए जाने वाले हैं।
सवाल यह भी उठाया जाए जब देश के सभी राज्यों और देश में आर्थिक संकट है तो यह बैठे ढाले महिलाओं को फुसलाने का काम क्यों।क्या इसलिए कि वे बिना सोचे समझे रुपया देने वाले को वोट दे देती हैं ठीक वैसे ही जैसे बाबाओं के जाल में फंसती हैं या धर्म भीरू हैं जिसके पैसे लेती हैं उसे समर्थन देती हैं। भगवान से डरती हैं। चुनाव के एक दो दिन पहले अक्सर मतदाताओं को रिझाने मंदिरों में भगवान के सामने यह राशि भेंट इसलिए ही तो की जाती है।इसकी बराबर शिकायतें होती हैं पर चुनाव अधिकारी की धीगामस्ती से कहीं कुछ नहीं होता दुख की बात तो यह है कि ये सब आचारसंहिता लगी होने के बावजूद होता है।अब प्रलोभनों के नए तौर तरीकों का इस्तेमाल भी होने लगा है चुनावी साल में भर्तियां, निर्माण कार्य , बिजली बिल माफी, पाकिस्तानी हमला, हिंदू मुस्लिम, किसानों को सम्मान निधि, छात्राओं को विशेष रियायतें , खासकर महिलाओं को लाड़ली बहना के नाम पर हर माह एक हजार देना ऐसा ही है। कहते हैं जून से यह पैसा मिलेगा। कार्यवाही होते होते चुनाव आ जायेंगे।कुछ ही बहनों को ये राशि मिल पाऐगी जो मिलनी शुरू हो गई है आवेदन बराबर भरे जा रहे हैं क्योंकि आशा के वशीभूत वोट तो मिल ही जायेगा। फिर यदि सरकार बदल गई तो सब मामला अगली सरकार के मत्थे मढ़ दिया जाएगा। बेरोजगारी भत्ता या राशन के ज़रिए जनता को खुश करना भी इस चुनावी साल में खूब होता है। प्रश्न यही है कि इस कड़वी सच्चाई पर भी प्रहार होना चाहिए चुनावी साल में ऐसी घोषनाओं पर प्रतिबंध लगना चाहिए क्योंकि ये भी चुनाव पर सीधे असर डालती हैं।
उम्मीद है वर्तमान चुनाव आयुक्त जिन्हें गलत तरीके से सरकार ने अपने फायदे के लिए आनन फानन में नियुक्त किया था ,को सुको ने संज्ञान में लिया ज़रुर पर इनकी नियुक्ति अवैध मानकर हटाने की पहल अभी तक नहीं हुई ।इतना तय है था कि अगला चुनाव आयुक्त जो नई बनी समिति द्वारा चयनित होता इन मसलों को गंभीरता से लेता इसके खिलाफ सरकार ने अध्यादेश लाकर ये सिद्ध कर दिया कि स्वतंत्र चुनाव आयोग की महत्ता इस मनमानी से ख़त्म हो जायेगी और पार्टी अपने चुनावी घोषणापत्र के साथ साथ इन इतर रेवड़ियों पर भी ध्यान नहीं देगा।अभी तो सरकारों की मनमानी चल रही है तथा चादर से बाहर हाथ पैर फैलाकर रेवड़ियां धड़ल्ले से बंट रही हैं।जिसका परिणाम मेहनत करने वाले कर्मचारियों को ना पूरा वेतन मिलेगा और ना भविष्य की सुरक्षा।बटती रेवड़ियां कौन रोकेगा रेवड़ियां निरंतर बंटेगी। मनमाफिक सरकार बनेगी तो चार साल बाद फिर लूट की तैयारी में जुट जाएगी।
यह उस भारत भू पर हो रहा है जो मुफ्त का माल खाने से परहेज़ करती रही है इसकी क्रोनोलाजी बड़ी जटिल है पहले मंहगाई बढ़ाओ फिर कुछ दाम घटाओ चुनाव आने पर और फिर लोगों को खुश करने रेवड़ियां बांटों। कुछ नौकरियां निकालो उनमें उलझाए रखो।बाद में महिलाओं को बहना और भांजियों कहकर खुश रखो तथा रेवड़ियां दे डालो। क्योंकि घर महिलाएं चलाती हैं उनके हाथ में जब रकम आएगी वो खुशी महसूस करेंगी तो वोट कहां जाएगा।इसे समझना होगा। इसलिए विपक्ष भी महिलाओं के लिए और बड़ी सौगात का आश्वासन लिए खड़ा मिलता है।ये सवाल बहुत महत्वपूर्ण है इस पर विमर्श ज़रूरी है अन्यथा रेवड़ी कल्चर ही देश के चुनाव को प्रभावित करता रहेगा।कार्य योजनाओं और देश के विकास का रास्ता बंद हो जाएगा।