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बलराज साहनी:‘मेरी फिल्मी आत्मकथा’

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बिमल राय ने कैमरा ट्रैफिक कंट्रोल के ऊंचे कैबिन पर लगवाया था, जहां से चौराहे का पूरा दृश्य दिखाई देता था. मुझसे कहा गया था कि इशारा मिलते ही मैं देहाती लोगों की सी घबराहट में हावड़ा-पूल की ओर से आऊं और चौराहे के उन कंगाल लोगों में से गुज़रू. बहुत महत्त्वपूर्ण शॉट था वह. मेरी कहानी मानो सिर्फ मेरी नहीं, उन अभागे इंसानों की भी कहानी थी.

मुझे घबराहट का दिखावा भर करना था; लेकिन लोगों की भाग-दौड़ को देख मैं सचमुच घबरा गया. मैं चौराहे के पास पहुंचा ही था कि अचानक एक ट्राम आ धमकी, और मैं उसके नीचे आते-आते बचा. ऐन मौके पर मैं लाइन तो पार कर गया; लेकिन मेरे हाथ में पकड़ी हुई लाठी का निचला सिरा सीमेंट के चबूतरे से टकरा गया, और मैं चारों खाने चित गिर पड़ा. साथ ही, मेरा बेटा (रतन कुमार) भी गिर पड़ा, जिसने मेरी उंगली पकड़ रखी थी. लाठी के सिरे पर टंगी हुई कपड़ों की गठरी दूर जा गिरी.

ड्राइवर ट्राम रोककर मुझे तोल तोल कर गालियां देने लगा. यह सोचकर कि कैमरा चल रहा होगा और मेरे गिरने से और भी सुंदरता पैदा हुई होगी, मैं जल्दी से उठा और बच्चे को लिए फिर आगे चल पड़ा. अपनी लाठी और कपड़ों की गठरी उठाना मैं भूल ही गया. मेरी इस हालत का कंगाल बिरादरी पर अजीब-सा असर हुआ. हां, कभी वे भी ऐसी आशाएं लेकर शहर आए थे, और मेरे जैसी स्थिति से वे भी गुज़रे थे. तभी वे भागकर आए और उन्होंने मुझे घेर लिया.

स्त्रियों ने ‘मेरे बच्चे’ को थाम लिया और पुरुषों ने मुझे बांह से पकड़कर फर्श पर बैठाया. फिर मुझे हौसला देने लगे- ‘घबराओ मत. माथा ठंडा रखो. सब ठीक हो जाएगा. पहले पहल सबके साथ ऐसा होता है. थोड़ा देर इधर आराम करो. हम तुमको सब कुछ बताएगा, तुम्हारा मदद करेगा. किसी बात का फिकर मत करो.’

इतने में उनमें से कोई मेरे लिए पीने का पानी ले आया. पर मेरा ध्यान अभी भी कैमरे की ओर था. ‘मैं बिलकुल ठीक हूं, मुझे काम है. मुझे जाने दो.’ मैं उठकर फिर आगे बढ़ना चाहा. उन लोगों को और भी विश्वास हो गया कि मैं होश हवास खो चुका हूं. उन्होंने मुझे और भी मजबूती से पकड़ लिया.

‘क्या ठीक है ? तुम्हारा गठरी किधर गिरा, इसका तो तुमको हवा नहीं है. हमारा बात क्यों नहीं सुनता तुम ?’ एक स्त्री बोली, ‘इस बच्चा को मारना चाहता है तुम क्या ?’

मैं बुरी तरह घिर गया था. मुझे यही नहीं पता था कि शॉट कब का कट गया था और बिमल राय, हृषीकेश मुकर्जी तथा अन्य साथी भीड़ में खड़े मेरा तमाशा देख रहे थे. आखिर हृषीकेश ने आगे बढ़कर मुझे छुड़ाया और उन लोगों को समझाया कि मैं असली गरीब नहीं हूं, बल्कि जो फिल्म खींची जा रही है, उसमें गरीब का रोल कर रहा हूं.

एकाएक मेरे चारों ओर खड़े लोगों की आंखों में ईसानी प्यार और हमदर्दी के चश्मे सूख गए. वे आंखें मुझे दूर जाती हुई प्रतीत हुई, बहुत दूर, जैसे ‘जूम लेंस’ में से निकट का दृश्य एकाएक दूर चला जाता है. जिन्दगी उन लोगों के साथ रोज़ ही मजाक करती थी. आज मैंने उनका भेस बनाकर उनसे मजाक किया था. यह सबसे क्रूर मजाक था. यह बात उनकी आंखें कह रही थी. अब उन आंखों में नफरत थी. एकाएक हुए इस मौन परिवर्तन को मैं कभी भूल नहीं सकूंगा.

2

‘विमल राय’ अब इस संसार में नहीं हैं. मैं उनसे अपने कथन की पुष्टि नहीं कर सकता, लेकिन मुझे लगता है कि ‘दो बीघा जमीन’ में कंगाल बस्ती की मालकिन का पात्र उन्होंने शायद उसी भीड़ में से लिया था.

विमल राय और हृषीकेश मुखर्जी दिन-भर शर्टिंग करते और सारी रात नई ‘लोकेशनों के लिए भटकते. कलकत्ता में प्रातःकाल के समय सड़कें धोने का रिवाज है. उस वातावरण को फिल्माने के लिए उन्होंने मुझे रात के तीन बजे ही रिक्शा में जोत दिया. मुझे इतना ज़्यादा रिक्शा चलाना पड़ा कि भूख के मारे मेरा बुरा हाल हो गया. एक बस्ती के बाहर मैंने एक हलवाई को गर्म-गर्म दूध बेचते देखा. मैं उसके पास गया और आधा सेर दूध देने के लिए कहा.

हलवाई ने एक नज़र मुझे देखा और कड़ककर कहा, ‘जानो, दूध नहीं.’ ‘कड़ाही में यह क्या उबल रहा है ? मैं पैसे दे रहा हूं, मुफ्त तो नहीं मांगता !”

‘कह जो दिया, दूध नहीं है !’ उसके गुस्से का पारा और भी चढ़ गया था.

दोपहर का समय था. गर्मी बेहद थी. कैमरा एक ट्रक में छिपाकर लगाया गया था. सारी यूनिट उस ट्रक पर सवार थी. रुमाल का इशारा पाते ही मैं रिक्शा लेकर दौड़ पड़ता था. कभी सवारी उतारता, कभी नई सवारी लेता. कभी दो सवारियां, कभी तीन. प्यास के मारे मेरी बुरी हालत थी लेकिन ट्रकवालों को रोकना संभव नहीं था.

एक जगह सड़क के किनारे मैंने एक पंजाबी सरदार का ढाबा देखा, तो कुछ क्षणों के लिए रिक्शा एक ओर खड़ा करके भागता हुआ गया, और बड़े अपनत्व से पंजाबी में बोला, ‘भाई जी, बहुत सख्त प्यास लगी है. एक गिलास पानी पिलाने की कृपा कीजिए.’

‘दफा हो जा, तेरी बहन की…’ उसने मुझे घुसा दिखाकर कहा. एक पंजाबी आदमी रिक्शा चलाने का घटिया काम करे, यह उसे शायद सहन नहीं हो पाया था. मेरे मन में आया कि मैं उसे अपनी असलियत बताऊं और दो-चार खरी-खरी सुनाऊं, पर इतना समय नहीं था.

एक पानवाले की दुकान पर मैंने ‘गोल्ड फ्लैक’ सिगरेट का पैकेट मांगा और साथ ही पांच रुपये का नोट उसकी ओर बहाया. पानवाले ने कुछ देर मेरा हुलिया देखा, फिर नोट लेकर उसे धूप की ओर उठाकर देखने लगा कि कहीं नकली न हो. आखिर कुछ देर सोचने के बाद उसने मुझे सिगरेट का पैकेट दे दिया. अगर वह मुझे पुलिस के हवाले भी कर देता, तो कोई हैरानी की बात न होती.

चौरंगी में शूटिंग करते समय भीड़ जमा होने लगी थी. विमल राय ने मुझे और निरूपा राय को कुछ देर के लिए किसी होटल में चले जाने के लिए कहा. हम फौरन एक रेस्तरां में दाखिल हुए, तो वेटरों ने हमें धक्के देकर बाहर निकाल दिया.

हम भारतीय सभ्यता और उसके मानवतावादी मल्यों की डींगें मारते नहीं थकते; पर हमारे देश में सिर्फ पैसे की कद्र है, आदमी की कद्र नहीं है. यह बात मैने उस शूटिंग के दौरान साफ तौर पर देख ली थी. हमारे देश में गरीब आदमी के पास पैसा हो, तो भी उसे चीज़ नहीं मिलती, यह हमारी सभ्यता की विशेषता है.

  • बलराज साहनी (‘मेरी फिल्मी आत्मकथा’ से)
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