अग्नि आलोक
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शैलेन्द्र, सही मायनों में जन कवि थे,उनके गीत बने जन आंदोलनों के नारे

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ज़ाहिद ख़ान

जन गीतकार एक ऐसा ख़िताब है, जो हिन्दी में बहुत कम गीतकारों को नसीब हुआ है। जब तक गीत जनता के जज़्बात से न जुड़ें, उन्हें वे अपने दिल की आवाज़ न लगें, यह मंज़िल आना बेहद मुश्किल है। बीसवीं सदी के एक अहम फ़िल्मी गीतकार शैलेन्द्र, सही मायनों में जन कवि थे। उनकी कविताओं में सामाजिक चेतना और राजनीतिक जागरूकता दोनों साफ़ दिखलाई देती है। साल 2023, गीतकार शैलेन्द्र का जन्मशती वर्ष है। इस मौक़े पर ज़रूरी है कि उनके गीतों और कविताओं का सम्यक मूल्यांकन हो। यह जाना जाए कि वे आख़िरकार क्यों जन गीतकार हैं? उनकी कविताएं और गीत आज भी क्यों अवाम में मक़बूल हैं?

शैलेन्द्र की कोई भी कविता उठाकर देख लीजिए, उसमें सामाजिक यथार्थ के दृश्य बहुतायत में मिलते हैं। गीतों में तो फिर उनका कोई सानी नहीं था। गीतों में उनकी पक्षधरता स्पष्ट दिखलाई देती है और यह पक्षधरता है दलित, शोषित, पीड़ित, वंचितों के प्रति। उनके ज़्यादातर गीत ज़िंदगी और जन आंदोलन से निकले हैं। वे ख़ुद एक मज़दूर थे और उन्होंने मज़दूरों के दुःख-दर्द को क़रीब से जाना और देखा-भोगा था।

जन आंदोलनों में शैलेन्द्र की गीतकार के तौर पर क्या अहमियत है, प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पाण्डेय इसे बयां करते हुए लिखते हैं, “जन आंदोलन से गीत के आत्मीय संबंध का बहुत अच्छा उदाहरण शंकर शैलेन्द्र के गीत हैं। शैलेन्द्र के गीत तेलंगाना आन्दोलन की देन हैं… आज हिन्दी में किसान जीवन के गीतकार अनेक हैं, लेकिन मज़दूरों के संघर्ष और आन्दोलन का शैलेन्द्र से बेहतर गीतकार आज भी कोई दूसरा दिखाई नहीं देता।”

शंकर सिंह शैलेन्द्र, का बचपन बेहद अभावमय और संघर्षों में गुज़रा। स्कॉलरशिप और ट्यूशन पढ़ा-पढ़ाकर उन्होंने जैसे-तैसे अपनी पढ़ाई पूरी की। पढ़ाई के साथ-साथ उनका मन कविता में रमता था। जहां कहीं भी कवि सम्मेलन या मुशायरा होता, वे उसे सुनने ज़रूर जाते। कविताएं पढ़ते-सुनते, कब कविता उनके मिज़ाज का हिस्सा हो गई, उन्हें मालूम ही नहीं चला। वे ख़ुद कविताएं लिखने लगे और वह दिन भी आया, जब कवि सम्मेलनों में उनकी भागीदारी श्रोता के तौर पर नहीं, बल्कि कवि के रूप में हुई।

शैलेन्द्र ने अपनी वतनपरस्त और इंक़लाबी कविताओं से ज़ल्द ही एक अलग पहचान बना ली। वे अब कवि सम्मेलनों में कविता पढ़ने के लिए बुलाए जाने लगे। शैलेन्द्र की नौजवानी का यह दौर, वह दौर था जब देश में आज़ादी की लड़ाई अपने चरम पर थी। महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन में कमोबेश देश की सारी जनता उनके साथ थी। स्वाभाविक ही है कि शैलेन्द्र पर भी इसका असर हुआ और उन्होंने भी स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना शुरू कर दिया। इसके लिए वे जेल भी गए।

एक तरफ शैलेन्द्र के दिल में अपने देश और देशवासियों के लिए कुछ करने का जज़्बा था, तो दूसरी ओर थी पारिवारिक ज़िम्मेदारियां। जिनसे भी वे मुंह नहीं चुरा सकते थे। पारिवारिक दवाब में ही उन्होंने नौकरी की तलाश की और ज़ल्द ही उन्हें मथुरा के रेलवे वर्कशॉप में वेल्डर की छोटी सी नौकरी मिल गई। नौकरी के साथ-साथ उनकी पढ़ाई जारी रही। झांसी से उन्होंने रेलवे अपरेंटिस का पांच साल का इंजीनियरिंग कोर्स किया। इस दौरान उनका तबादला माटुंगा रेलवे वर्कशॉप मुंबई में हो गया।

रेलवे में नौकरी के दौरान ही शैलेन्द्र मज़दूरों के सीधे संपर्क में आए। उनके दुःख, परेशानियों से साझेदार हुए। मज़दूरों की समस्याओं, उनका शोषण और उन पर ढाए जा रहे अत्याचारों को उन्होंने नज़दीक से देखा। इन सब बातों का शैलेन्द्र के कवि मन पर क्या असर हुआ, यह ख़ुद उनकी ज़ुबानी, “मशीनों के तानपूरे पर गीत गाते हुए भी सामाजिक विषमता पर नज़र जाए बिना न रह सकी। तनख़्वाह के दिन (नौ या दस तारीख़ को) कारख़ाने के दरवाजे पर जहां मिठाई और कपड़े की दुकानों का मेला लगता था, वहां पठान और महाजन अपना सूद ऐंठ लेने के लिए खड़े रहते थे। आदमी निकला और गर्दन पकड़ी।

देश के बहुत से लोग उधार और मदद पर ही ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं। गरीबी मेरे देश के नाम के साथ जोंक की तरह चिपटी है। नतीजा, हम सब एक हो गए- कवि, मैं और मेरे गीत और विद्रोह के स्वर गूंजने लगे। पचास-पचास हज़ार की भीड़ के बीच। सभाओं और जुलूसों में गाये हुए इस काल के गीत, ‘नया साहित्य’ और ‘हंस’ में छपी इस काल की कविताएं अति उग्रवादी अवश्य थीं, लेकिन इनके माध्यम से जनजीवन और रुचि को समझने का अवसर मिला। जनजीवन के पास रहने की आदत पड़ी, जो कालान्तर में फ़िल्मी गीतकार की हैसियत से बहुत काम आयी।” (‘मैं, मेरा कवि और मेरे गीत’ पत्रिका ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित शंकर शैलेन्द्र का आत्म परिचय)

शैलेन्द्र का संजीदा मन कामगारों की समस्याओं से आंदोलित हो उठा और वे मज़दूरों के अधिकारों और उनको इंसाफ़ दिलाने के लिए उनके हक़ में खड़े हो गए। कामगार यूनियन और इप्टा के सरगर्म मेम्बर के तौर पर उन्होंने मज़दूरों की आवाज़ बुलंद की। उनके अधिकारों के लिए संघर्ष किया। शैलेन्द्र की ज़िंदगी के लिए जैसे एक मक़सद मिल गया। अपने गीतों में वे अब मज़दूरों के हक़ की बात करते, उनकी समस्याओं को हुक़्मरानों तक लाना, उनका मक़सद बन गया। ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और ‘भारतीय जन नाट्य संघ’ यानी इप्टा के मंचों से गाये गए उनके गीतों ने तो उन्हें मज़दूरों का लाड़ला गीतकार बना दिया।

बंगाल के अकाल, तेलंगाना आंदोलन और भारत-पाक बंटवारे जैसे तमाम महत्वपूर्ण घटनाक्रमों पर उन्होंने कई मा’नी-ख़ेज़ गीत लिखे। “जलता है पंजाब साथियो…” अपने इस भावपूर्ण गीत के ज़रिए उन्होंने मुंबई की गलियों-गलियों से दंगा पीड़ितों के लिए चंदा इकट्ठा किया। वामपंथी विचारधारा में डूबे उनके परिवर्तनकामी, क्रांतिकारी गीतों को सुनकर लोग आंदोलित हो उठते। उनके अंदर कुछ करने का जज़्बा पैदा हो जाता था।

इप्टा का थीम गीत “तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत पर यक़ीन कर..”शैलेन्द्र का ही लिखा हुआ है। ये ऐसा जोशीला गीत है जो आज भी जन आंदोलनों, नुक्कड़ नाटकों में कामगारों और कलाकारों द्वारा गाया जाता है। गीत का एक-एक अंतरा लोगों के दिल में कुछ करने का जज़्बा पैदा करता है।

तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत पर यक़ीन कर

अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर

हमारे कारवां का मंज़िलों को इंतज़ार है

यह आंधियों की, बिजलियों की पीठ पर सवार है

तू आ क़दम मिला के चल, चलेंगे एक साथ हम

मुसीबतों के सर कुचल, बढ़ेंगे एक साथ हम

कभी तो होगी इस चमन पर भी बहार की नज़र।

शैलेन्द्र मार्क्सवादी विचारकों और रूसी साहित्य से बेहद प्रभावित थे। इस साहित्य के अध्ययन से उनमें एक दृष्टि पैदा हुई, जो उनके गीतों में साफ़ नज़र आती है। सर्वहारा वर्ग का दुःख, उनका अपना दुःख हो गया। इस दरमियान उन्होंने जो भी गीत लिखे, वे नारे बन गए। शैलेन्द्र के एक नहीं, कई ऐसे गीत हैं जो जन आंदोलनों में नारे की तरह इस्तेमाल होते हैं।

मसलन “हर ज़ोर-ज़ुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है..”, “क्रांति के लिए उठे क़दम, क्रांति के लिए जली मशाल..”, “झूठे सपनों के छल से निकल, चलती सड़कों पर आ..”, इसमें भी “हर ज़ोर-ज़ुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है..” मज़दूर आंदोलनों का लोकप्रिय गीत है। मज़दूर, कामगार इसे नारे की तरह इस्तेमाल करते हैं। यह गीत जैसे उनमें एक जोश फूंक देता है। इस गीत को सुनकर मज़दूर मर-मिटने को तैयार हो जाते हैं। गीत की घन-गरज ही है, कुछ ऐसी। यदि यक़ीन न हो, तो इस गीत के बोल पर नज़र डालिये,

हर ज़ोर-ज़ुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है

तुमने मांगें ठुकराई हैं, तुमने तोड़ा है हर वादा

छीना हमसे अनाज सस्ता, तुम छंटनी पर हो आमादा

तो अपनी भी तैयारी है, तो हमने भी ललकारा है

मत करो बहाने संकट है, मुद्राप्रसार इन्फ्लेशन है

यह बनियों चोर लुटेरों को क्या सरकारी कंसेशन है?

बगलें मत झांको, दो जवाब, क्या यही स्वराज्य तुम्हारा है

हर ज़ोर-ज़ुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है।

(‘हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

‘न्यौता और चुनौती’ शैलेन्द्र का एक अकेला कविता संग्रह है। जिसमें उनकी 32 कविताएं और जनगीत संकलित हैं। यह संकलन मराठी के प्रसिद्ध लोक गायक, जनकवि अण्णाभाऊ साठे को समर्पित है। कविताएं साल 1945 से लेकर साल 1954 के बीच लिखी गई हैं। संग्रह की ज़्यादातर कविताएं और गीत जन आंदोलनों के प्रभाव में लिखी गई हैं। इन गीतों में कोई बड़ा विषय और मुद्दा ज़रूर मिलेगा।

शैलेन्द्र की कविता और गीतों की यदि हम विवेचना करें, तो उन्हें दो हिस्सों में बांटना होगा। पहला हिस्सा, परतंत्र भारत का है। जहां वे अपने गीतों से देशवासियों में क्रांति की अलख जगा रहे हैं। उन्हें एहसास दिला रहे हैं कि उनकी दुर्दशा के पीछे कौन ज़िम्मेदार है? अपने ऐसे ही एक गीत ‘इतिहास’ में वे पहले तो साम्राज्यवादी अंग्रेज़ी हुकूमत में मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के बारे में लिखते हैं,

खेतों में खलिहानों में

मिल और कारख़ानों में

चल-सागर की लहरों में

इस उपजाऊ धरती के

उत्तप्त गर्भ के अंदर

कीड़ों से रेंगा करते-

वे ख़ून पसीना करते!

और उसके बाद वे उन्हें आग़ाह करते हैं,

निर्धन के लाल लहू से

लिखा कठोर घटना-क्रम

यों ही आये जायेगा

जब तक पीड़ित धरती से

पूंजीवादी शासन का

नत निर्बल के शोषण का

यह दाग न धुल जायेगा

तब तक ऐसा घटनाक्रम

यों ही आये-जायेगा

यों ही आये-जायेगा!

इस पहले हिस्से में शैलेन्द्र की कुछ भावुक कविताएं ‘जिस ओर करो संकेत मात्र’, ‘उस दिन’, ‘निंदिया’, ‘यदि मैं कहूं’, ‘क्यों प्यार किया’, ‘नादान प्रेमिका’, ‘आज’, ‘भूत’ आदि भी शामिल हैं। यह साधारण प्रेम कविताएं हैं, जो इस उम्र में हर एक लिखता है। इन कविताओं और गीतों के लिखते समय शैलेन्द्र की उम्र महज़ 23-24 साल थी। जैसे-जैसे शैलेन्द्र वैचारिक तौर पर परिपक्व होते हैं, उनके गीतों की भावभूमि बदलती है। गीतों में एक नज़रिया आता है, उनका लहज़ा आक्रामक होता चला जाता है। आख़िर वह दिन भी आया, जब देश आज़ाद हुआ। करोड़ों-करोड़ लोगों के साथ इस आज़ादी का शैलेन्द्र ने भी स्वागत किया।

जय जय भारतवर्ष प्रणाम

युग युग के आदर्श प्रणाम!

शत शत बंधन टूटे आज

बैरी के प्रभु रूठे आज

अंधकार है भाग रहा

जाग रहा है तरूण विहान!

(‘पन्द्रह अगस्त’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

आज़ादी के बाद, देश की नई सरकार से कई उम्मीदें थीं। देशवासियों को लगता था कि अपनी सरकार आने के बाद उनके दुःख-दर्द दूर हो जाएंगे। समाज में जो ऊंच-नीच और भेदभाव है, वह ख़त्म हो जाएगा। अब कोई भूखा, बेरोज़गार नहीं रहेगा। सभी के हाथों को काम मिलेगा। लेकिन ये उम्मीदें, सपने ज़ल्दी ही चकनाचूर हो गए।

शैलेन्द्र जो ख़ुद कामगार और सामाजिक विषमता के भुक्तभोगी थे, उनका दिल यह देखकर तड़प उठा। उनके गीत जो कल तक अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ़ आग उगलते थे, अब उनके निशाने पर देशी हुक्मरान आ गए। शैलेन्द्र जब अपने गीतों से लोगों को संबोधित करते हैं, तो उनकी नज़र में हुक्मरान, हुक्मरान है। फिर वह विदेशी हो या देसी। अपने गीतों में इन हुक्मरानों को वे जरा सा भी नहीं बख़्शते हैं।

आज़ादी की चाल दुरंगी

घर-घर अन्न-वस्त्र की तंगी

तरस दूध को बच्चे सोये-

निर्धन की औरत अधनंगी

बढ़ती गई गरीबी दिन दिन

बेकारी ने मुंह फैलाया!

शैलेन्द्र अपने इसी गीत में हुक्मरानों के वर्ग चरित्र और मक्कारी को बयां करते हुए लिखते हैं,

संघ खुला, खद्दर जी बोले/

आओ तिनरंगे के नीचे!

रोटी ऊपर से बरसेगी

करो कीर्तन आंखे मीचे!

तुमको भूख नहीं है भाई

कम्युनिस्टों ने है भड़काया!

(‘पन्द्रह अगस्त के बाद’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

शैलेन्द्र के एक नहीं, कई गीतों में इस झूठी आज़ादी के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा साफ़ नज़र आता है। लेकिन अपने इन गीतों में वे देसी सरकार की पूंजीवादी नीतियों का ही विरोध नहीं करते, बल्कि अंत में वे जनता को एक विकल्प भी सुझाते हैं। उन्हें यक़ीन है कि मज़दूर और किसान यदि एक हो जाएं, तो देश में पूंजीवादी निज़ाम बदलते देर नहीं लगेगी। देश में समाजवाद आ जाएगा। लिहाज़ा वे उन्हीं का आहृान करते हुए लिखते हैं,

उनका कहना है : यह कैसे आज़ादी है

वही ढाक के तीन पात हैं, बरबादी है

तुम किसान-मज़दूरों पर गोली चलवाओ

और पहन लो खद्दर, देशभक्त कहलाओ!

तुम सेठों के संग पेट जनता का काटो

तिस पर आज़ादी की सौ-सौ बातें छांटो!

हमें न छल पायेगी यह कोरी आज़ादी/

उठ री, उठ, मज़दूर किसानों की आबादी!

(‘नेताओं को न्यौता !’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

वामपंथी विचारधारा से जुड़े तमाम बुद्धिजीवियों की तरह शैलेन्द्र का भी मानना था कि देश को जो आज़ादी मिली है, वह अधूरी है। कहने को देश में सत्ता बदल गई है, लेकिन उसका वर्ग चरित्र वही है। सामंतों और पूंजीपतियों ने सत्ता का आहरण कर लिया है। जब तक किसान और मज़दूर पूंजीवादी ढांचे से आज़ाद नहीं होंगे, तब तक देश सही मायने में आज़ाद नहीं होगा।

ढोल बजे एलान हुआ, आज़ादी आई/

ख़ून बहाये बिना लीडरों ने दिलवाई/

ख़ुश होकर अंगरेज़ों ने दी नेताओं को

सत्य अंहिसावादी वीर विजेताओं को!

वही नवाब, वही राजे, कुहराम वही है

पदवी बदल गई है, किंतु निज़ाम वही है

थका पिसा मज़दूर वही, दहकान वही है!

कहने को भारत, पर हिंदुस्तान वही है!

बोली बदल गयी है, बात वही है सारी

हिज मैजेस्टी छठे जार्ज की लंबरदारी

कॉमनवैल्थ कुटुम्ब, वही चर्चिल की यारी

परदेशी का माल सुदेशी पहरेदारी!

आज ख़ून से रंगी ध्वजा सबसे आगे है

क्रांति शांति की लाल ध्वजा सबसे आगे है

अपनी क़िस्मत का नूतन निर्माण चला है

क्रूर मौत से भीषण रण संग्राम चला है!

अंदर की आग एक दिन भड़केगी ही

नयी ग़ुलामी की बेड़ी भी तड़केगी ही!

(‘अंदर की यह आग’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

26 जनवरी, 1950 देश में नया संविधान बना और इस संविधान से सभी को समान अधिकार मिले। लेकिन यह संविधान भी देश के सभी नागरिकों के अधिकारों का संरक्षण नहीं कर पाया। रोज़ी, रोटी और मकान जैसे बुनियादी अधिकारों को पाने के लिए जनता को सड़कों पर आना पड़ा। जो सत्ता में बैठा, अपने संवैधानिक कर्तव्य भूल गया। दमन उसका हथियार बन गया। शैलेन्द्र ने भारतीय लोकतंत्र की इन विसंगतियों का पर्दाफ़ाश करते हुए लिखा,

मुझ जैसे ये लाखों हैं जो मांग रहे हैं

रोज़ी, रोटी, कपड़ा, बोनस औ, महंगाई

मांग रहे हैं जीने का अधिकार स्वदेशी सरकारों से!

किंतु सुना है, जीने का अधिकार मांगना अब ग़ुनाह है

ग़द्दारी है!

ग़द्दारी के लिए जेल, गोलीबारी है!

(‘नई-नई शादी है….’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

हुक्मरान, सत्ता का किस तरह से ग़लत इस्तेमाल करते हैं, शैलेन्द्र इन प्रवृतियों पर तंज़ करते हुए लिखते हैं,

भगतसिंह ! इस बार न लेना काया भारतवासी की

देश भक्ति के लिए आज भी सज़ा मिलेगी फ़ांसी की!

यदि जनता की बात करोगे, तुम ग़द्दार कहलाओगे

बंब संब की छोड़ो, भाषण दिया कि पकड़े जाओगे!

निकला है क़ानून नया, चुटकी बजते बंध जाओगे

न्याय अदालत की मत पूछो, सीधे मुक्ति पाओगे

कांग्रेस का हुक्म, ज़रूरत क्या वारंट तलाशी की!

(‘भगतसिंह से’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

शैलेन्द्र ने यह गीत साल 1948 में लिखा था। इस गीत को लिखे सात दशक से ज़्यादा हो गए, लेकिन सत्ता का किरदार नहीं बदला। सरकारें बदल गईं, किरदार वही है। अंग्रेज़ों का बनाया देशद्रोह क़ानून आज भी सत्ताधारियों का प्रमुख हथियार बना हुआ है। जो कोई भी सरकारी नीतियों का विरोध करता है, उसे देशद्रोह कानून के अंतर्गत जेल में डाल दिया जाता है।

शैलेन्द्र अपने गीतों में सिर्फ़ सरमायेदारी और साम्राज्यवाद का विरोध ही नहीं करते, बल्कि अपने गीतों में इसका एक विकल्प भी देते हैं। उनका मानना है कि समाजवाद में ही किसानों, मज़दूरों और आम आदमियों के अधिकार सुरक्षित होंगे। उन्हें वास्तविक इंसाफ़ मिलेगा। लिहाज़ा वे इकट्ठा होकर सरमायेदारी के ख़िलाफ़ निर्णायक लड़ाई लड़ें।

धनवानों की दीवाली की रात ढल गई

अब ग़रीब का दिन है, दिल का उजियाला है!

लोगों ने की सभा, फ़ैसला कर डाला है-

एक साथ हम सब रावण पर वार करेंगे

अपनी दुनिया का हम ख़ुद उद्धार करेंगे!

अन्नपूर्णा लक्ष्मी को आज़ाद करेंगे

स्वर्ग इसी धरती पर हम आबाद करेंगे!

(‘दीवाली के बाद’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

शैलेन्द्र की समाजवाद में गहन आस्था थी। सोवियत रूस और चीन की साम्यवादी क्रांति के बारे में उन्होंने काफ़ी कुछ पढ़ा था और उन्हें लगता था कि भारत में भी कमोबेश ऐसे ही हालात हैं। देश का सर्वहारा वर्ग यदि एक हो जाए, तो परिस्थितियां बदलते देर नहीं लगेगी। यहां भी वास्तविक क्रांति हो जाएगी।

क्रांति के लिए उठे क़दम

क्रांति के लिए जली मशाल !

भूख के विरुद्ध भात के लिए

रात के विरुद्ध प्रात : के लिए

मेहनती ग़रीब जात के लिए

हम लड़ेंगे, हमने ली कसम !

तय है जय मज़ूर की, किसान की

देश की, जहान की, अवाम की

ख़ून से रंगे हुए निशान की

लिख गई है मार्क्स की कसम !

(‘उठे कदम’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

शैलेन्द्र की समाजवाद में आस्था यूं ही नहीं है, बल्कि इस विचारधारा के वे इसलिए क़ायल हो गए कि इस विचारधारा ने लोगों में जाति, वर्ण और धर्म के सारे भेद मिटा दिए। सब को समान अधिकार दिए हैं।

सौ साल उस कार्ल मार्क्स को जिसने मुक्तिमार्ग दिखलाया

मिट्टी के पुतलों को जिसने फ़ौलादी इंसान बनाया !

‘दुनिया के मज़दूर एक हो जाओ’, एका अस्त्र हमारा

महामंत्र बन गया आज एंगेल्स और मार्क्स का नारा !

बदल गये इतिहास फ़लसफ़े, बदला शास्त्र पुराण पुराना

पलट चली धारा विचार की, करवट लेने लगा ज़माना !

जाति वर्ण की, धर्म-कर्म की, बदलीं परिभाषाएं सारी

सर के बल थे, पैरों पर हो गये खड़े निर्धन नर-नारी।

(‘पेरिस कम्यून’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

सोवियत संघ के बाद चीन दूसरा देश था, जहां समाजवाद कामयाबी से आया। किसानों और कामगारों की संयुक्त क्रांति से वहां पूंजीवाद का विनाश हुआ। शैलेन्द्र इस बदलाव का स्वागत करते हुए लिखते हैं,

अंतिम बंधन तोड़ रहा है, नया चीन, एक नया चीन !

सदियों बाद किसान ज़मीं से मेहनत के फल उगा रहा है

पहले पहल मज़ूर चीन का मालिक बन मिल चला रहा है

खोद रहा है अपनी ख़ानें, नई बस्तियां बसा रहा है

तोड़ राह की चट्टानों को, युग की धारा मोड़ रहा है !

नयी चीन, एक नया चीन !

(‘नया चीन’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

शैलेन्द्र अपने गीतों में पूंजीवाद के साथ-साथ साम्राज्यवाद का भी विरोध करते हैं। उनके मुताबिक़ साम्राज्यवादी देशों की पूंजीवादी और साम्राज्यवादी नीतियों से दुनिया में जंग का साया छाया हुआ है। अपने हितों को पूरा करने के लिए वे किसी भी हद तक चले जाते हैं,

चर्चिल मांगे ख़ून मज़ूर किसानों का

ट्रूमन मांगे ताज़ा ख़ून जवानों का !

दुनिया में एक तरफ साम्राज्यवादी देशों का यह पूंजीवाद का नंगा नाच है, तो दूसरी ओर सोवियत संघ जैसे देश भी हैं, जो अपने यहां विकास की नई इबारत लिख रहे हैं। शैलेन्द्र इन बातों को अपने इसी गीत में रेखांकित करते हुए लिखते हैं,

रूस देश संघर्षों का, क़ुर्बानी का

ख़ून पसीने की अनकही कहानी का

वहां क्रांति की जीत, तुम्हारी पहली हार

हमने अपनी हस्ती जानी पहली बार

रूस ख़्वाब के, इंक़लाब के गानों का !

वहां सुतार लुहार हुए मिल मैनेजर

राजा नहीं, रंक बैठा सिंहासन पर

जिनका ख़ून पसीना, उनका राज बना

स्वर्ग इसी धरती पर, नया समाज बना

हुआ रूस में सच सपना इंसानों का !

(‘चुनौती’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

ज़ाहिर है कि सोवियत संघ, वंचितों और शोषितों के लिए एक यूटोपिया है। शैलेन्द्र की चाहत है कि सोवियत संघ की तरह भारत भी एक आदर्श राज्य बने। मेहनतकशों का देश में राज हो। कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’ के अपने सभी गीतों में शैलेन्द्र, देशवासियों को जहां नई चुनौतियों से अवगत कराते हैं, तो वहीं उन्हें न्यौता देते हैं, क्रांति के लिए। समाज और राजव्यवस्था में बदलाव के लिए। सामाजिक, आर्थिक क्रांति जो अभी तलक स्थगित है।

‘अंदर भी आग जला’, ‘इस बार’, ‘प्रभात की ज्वाला’ आदि गीतों में भी शैलेन्द्र के क्रांतिकारी तेवरों की झलक दिखलाई देती है। शैलेन्द्र के गीतों में ग़ज़ब की लय और भाषा की रवानी है। आमफ़हम भाषा में वे बड़ी-बड़ी बातें कह जाते हैं। इन गीतों में कहीं-कहीं ऐसा व्यंग्य है, जो उनके गीतों को धारदार बनाता है। शैलेन्द्र अपने गीतों में घुमा-फिराकर नहीं, सीधे-सीधे बात करते हैं। इस साफ़-गोई से कहीं-कहीं उनकी भाषा और भी ज़्यादा तल्ख़ हो जाती है। मसलन

लीडर जी, परनाम तुम्हें हम मज़दूरों का

हो न्यौता स्वीकार तुम्हें हम मज़दूरों का

एक बार इन गंदी गलियों में भी आओ

घूमे दिल्ली-शिमला, घूम यहां भी जाओ !

(‘नेताओं को न्यौता !’ कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौती’)

शैलेन्द्र अपने गीतों में जनसाधारण के दुःख-दर्द, भावों को आसानी से कैसे अभिव्यक्त कर देते थे?, इसके मुतअल्लिक़ उनका कहना था, “कलाकार कोई आसमान से टपका हुआ जीव नहीं है, बल्कि साधारण इंसान है। यदि वह साधारण इंसान नहीं, तो जनसाधारण के मनमानस के दु:ख-सुख को कैसे समझेगा और उसकी अभिव्यक्ति कैसे करेगा?” शैलेन्द्र को ज़िंदगानी का बड़ा तजुर्बा था और अपने इस तजुर्बे से ही उन्होंने कई नायाब गीत लिखे। सहज, सरल भाषा में अनोखी बात कह देने की उनमें एक कला थी। यही वजह है कि उनके गीत ख़ूब लोकप्रिय हुए।

शैलेन्द्र के गीतों की तारीफ़ करते हुए, वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पाण्डेय अपने लेख ‘जन आन्दोलन और जनवादी गीत’ में लिखते हैं, “शंकर शैलेन्द्र के गीतों की लोकप्रियता का अंदाज़ वही कर सकता है, जो जन आंदोलनों से जुड़ा हुआ है। संघर्ष में आस्था जगाने वाले ये गीत मज़दूर आन्दोलनों के समान किसान आन्दोलनों के भी प्रेरणादायक हैं। शैलेन्द्र के गीत साबित करते हैं कि आन्दोलन से उपजी कला भी स्थायी होती है, बशर्ते कि उसमें जीवन के संघर्ष का संगीत हो।” ज़ाहिर है कि शैलेन्द्र ने अपने संघर्षों से बहुत कुछ सीखा था। संघर्ष ही उनके गुरु थे। संघर्षों में ही तपकर वे कुंदन बने।

फ़िल्मों में मसरूफ़ियत के चलते शैलेन्द्र अदबी काम ज़्यादा नहीं कर पाए, लेकिन उनके जो फ़िल्मी गीत हैं, उन्हें भी कमतर नहीं माना जा सकता। शैलेन्द्र के इन गीतों में भी काव्यात्मक भाषा और आम आदमी से जुड़े उनके सरोकार साफ़ दिखलाई देते हैं। अपने इन फ़िल्मी गीतों में उन्होंने किसी भी स्तर का समझौता नहीं किया।

गीतकार शैलेन्द्र के बारे में कहानीकार भीष्म साहनी का कहना था कि, ‘‘शैलेन्द्र के आ जाने पर (फ़िल्मी दुनिया में) एक नई आवाज़ सुनाई पड़ने लगी थी। यह आज़ादी के मिल जाने पर, भारत के नए शासकों को संबोधित करने वाली आवाज़ थी। इसके तेवर ही कुछ अलग थे। बड़ी बे-बाक़, चुनौती भरी आवाज़ थी। इसमें दृढ़ता थी। जुझारूपन था। पर साथ ही इसमें अपने देश और देश की जनता के प्रति अगाध प्रेमभाव था.. पर साथ ही साथ शासकों से दो टूक पूछा भी गया था,

लीडरो न गाओ गीत राम राज का

इस स्वराज का क्या हुआ किसान, कामगार राज का।”

शैलेन्द्र का दिल वाक़ई ग़रीबों के दुःख-दर्द और उनकी परेशानियों में बसता था। उनकी रोज़ी-रोटी के सवाल वे अक्सर अपने फ़िल्मी गीतों में उठाते थे। फ़िल्म उजाला में उनका एक गीत है,

सूरज जरा आ पास आ, आज सपनों की रोटी पकाएंगें हम

ऐ आस्मां तू बड़ा मेहरबां, आज तुझको भी दावत खिलाएंगें हम।

वहीं फ़िल्म मुसाफ़िर में वे फिर अपने एक गीत में रोटियों की बात करते हुए कहते हैं,

क्यों न रोटियों का पेड़ हम लगा लें

रोटी तोड़ें, आम तोड़ें, रोटी-आम खा लें।

दरअसल शैलेन्द्र ने भी अपनी ज़िंदगी में भूख और ग़रीबी को क़रीब से देखा था। वे जानते थे कि आदमी के लिए उसके पेट का सवाल कितना बड़ा है। रोज़ी-रोटी का सवाल पूरा होने तक, ज़िंदगी के सारे रंग, उसके लिए बदरंग हैं। फ़िल्मों में शैलेन्द्र ने 800 से ज़्यादा गीत लिखे, लेकिन इन गीतों में भी भाषा और विचारों की एक उत्कृष्टता है। अपने गीतों से उन्होंने हमेशा अवाम की सोच को परिष्कृत किया। वे जनता की नब्ज़ को पहचानने वाले गीतकार थे।

अपने गीतों की लोकप्रियता के बारे में उनका कहना था कि ‘‘इन सोलह वर्षों के हर दिन ने मेरे गीतकार को कुछ न कुछ सिखाया है, एक बात तो दृढ़ता से मेरे मन में विश्वास बनकर बैठ गई है कि जनता को मूर्ख या सस्ती रुचि का समझने वाले कलाकार या तो जनता को नहीं समझते या अच्छा और ख़ूबसूरत पैदा करने की क्षमता उनमें नहीं है। हां, वह अच्छा मेरी नज़रों में बेकार है, जिसे केवल गिने-चुने लोग ही समझ सकते हैं। इसी विश्वास से रचे हुए मेरे कई गीत बेहद लोकप्रिय हुए।”

शैलेन्द्र को इस दुनिया से गए, एक लंबा अरसा बीत गया, लेकिन उनके गीतों की एक-एक पंक्ति अब भी फ़िज़ा में लहरा रही है और अवाम को प्रेरणा दे रही है,

तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत पर यक़ीन कर

अगर कहीं है स्वर्ग, तो उतार ला ज़मीन पर।

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