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इन किताबों में समग्र रूप में संकलित हैं सनातन का भेद

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तमिलनाडु के मंत्री उदयनिधि स्टालिन के द्वारा सनातन धर्म को लेकर उठाए गए सवाल पर राजनीतिक बयानबाजियां जोरों पर हैं। जहां एक तरफ आरएसएस और भाजपा के नेता उनके ऊपर हमलावर हैं तो दूसरी तरफ विपक्षी दलों के नेताओं में भी उथल-पुथल मचा है। वहीं बुद्धिजीवियों में भी इस बात को लेकर बहस जोरों पर है। लेकिन यह केवल आज की बात नहीं है। पहले भी सनातन धर्म पर सवाल उठाए जाते रहे हैं। खासकर जोतीराव फुले, पेरियार और आंबेडकर आदि ने अपनी किताबों में न केवल सवाल उठाए हैं, बल्कि सवालों का जवाब भी दिया है। 

ये वे किताबें हैं, जिनसे सनातन धर्म, जिसे हिंदूवादी अपना धर्म बता रहे हैं, के बारे में विस्तार से बताया गया है। जोतीराव फुले की किताब ‘गुलामगिरी’ 1873 में पहली बार प्रकाशित हुई। इस किताब को फारवर्ड प्रेस ने नए स्वरूप में संदर्भ-टिप्पणियों के साथ प्रकाशित किया है। इस किताब में फुले सवाल उठाते हैं– “ब्राह्मण ग्रंथकारों ने … लोगों की नज़रों से छिपकर अपने वेद मंत्र और उनसे जुड़ी हुई दंतकथाओं से मिलती-जुलती स्मृतियां, संहिताएं, शास्त्रों और पुराणों आदि अनेक ग्रंथों की घर बैठे-बैठे भरमार रचनाएं की। इन सबका एक ही उद्देश्य था– शूद्रों पर ब्राह्मणों का वर्चस्व स्थापित करना। उन्होंने शूद्रों को विश्वास दिलाया कि उनके पूर्वजों की तरह उन्हें भी ब्राह्मणों की सेवा ही करनी है। उनके लिए भी सही धर्म का पालन करना होगा। आगे चलकर कभी यह ब्रह्म-कपट शूद्रों के सामने खुल न जाय, इस डर से और उन ग्रंथों में उन्हें मनचाहे फेरबदल करने में आसानी हो, इसलिए उन्होंने मनुस्मृति जैसे अपवित्र ग्रंथ में यह बड़ी कड़ाई के साथ लिख रखा है कि पाताल में भेजे हुए लोगों को यानि शूद्रों को कोई ज्ञान देने की कोशिश भी न करें।” (जोतीराव फुले, गुलामगिरी, फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, 2021, पृ. 116)

वहीं सनातन धर्म पर सवाल करते हुए डॉ. आंबेडकर अपनी किताब ‘जाति का विनाश’ में लिखते हैं– “हिंदुओं को इस पर विचार करना होगा कि क्या उनके लिए यह स्वीकार करने का समय नहीं आ गया है कि कुछ भी स्थिर नहीं है, कुछ भी शाश्वत नहीं है, कुछ भी सनातन नहीं है; कि सब कुछ बदल रहा है कि बदलाव ही व्यक्तियों और समाजों, दोनों के लिए बदलाव ही कानून है। एक बदलते हुए समाज में, पुराने मूल्यों में लगातार क्रांति होती रहनी चाहिए और हिंदुओं को यह महसूस करना होगा कि यदि मनुष्य के कृत्यों का मूल्यांकन करने के लिए मानक होने चाहिए, तो इन मानकों को संशोधित करने की तैयारी भी होनी चाहिए।” (डॉ. आंबेडकर, जाति का विनाश, फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, पृ. 123)

इतना ही नहीं, डॉ. आंबेडकर ने महात्मा गांधी के सनातन धर्म के बारे में अपनी राय रखी है। गांधी की आलोचना करते हुए वे लिखते हैं– “कुछ लोग सोच सकते हैं कि महात्मा ने काफी प्रगति की है, क्योंकि अब वे जाति में विश्वास नहीं करते, बल्कि सिर्फ वर्ण की बात करते हैं। यह सही है कि एक समय ऐसा था, जब महात्मा रक्त-मांस-मज्जा के साथ सनातनी हिंदू थे। वेदों, उपनिषदों, पुराणों और हिंदू शास्त्र के नाम पर जो कुछ जाना जाता है, उसमें उनकी आस्था थी और इसलिए अवतार तथा पुनर्जन्म में भी उनका विश्वास था। वे जाति को मानते थे और किसी रूढ़िवादी की ताकत के साथ उसका बचाव करते थे। वे अंतर्जातीय भोज और अंतर्जातीय विवाह के पक्ष में उठी आवाजों की भर्त्सना करते थे और कहते थे कि अंतर्जातीय भोजन पर प्रतिबंध ‘इच्छाशक्ति को मजबूत बनाने और एक निश्चित सामाजिक सद्‍गुण का परिरक्षण’ करने में काफी हद तक मदद करता है। यह अच्छी बात है कि उन्होंने इस पाखंडी बकवास को छोड़ दिया है और यह स्वीकार कर लिया है कि जाति ‘आध्यात्मिक और राष्ट्रीय, दोनों प्रकार के विकास के लिए नुकसानदेह है’ और हो सकता है कि इसका कुछ संबंध उनके पुत्र द्वारा जाति से बाहर विवाह करने से हो। लेकिन महात्मा ने क्या सचमुच प्रगति की है? महात्मा जिसका समर्थन करते हैं, उस वर्ण का चरित्र क्या है? क्या यह वही वैदिक अवधारणा है, जो स्वामी दयानंद सरस्वती और उनके अनुयायी आर्यसमाजी सामान्यत: समझते और प्रचारित करते हैं?” (वही, पृ. 147)

सनातन अथवा हिंदू धर्म की अवधारणाओं और गुत्थमगुत्थी को डॉ. आंबेडकर ने अपनी किताब ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ में दर्ज किया है। यह किताब इसलिए भी पठनीय है, क्योंकि इससे इन अवधारणाओं की पोल खुल जाती है। जैसा कि इस किताब में डॉ. आंबेडकर कहते हैं– “ब्राह्मणों का दावा है कि हिंदू सभ्यता सनातन है अर्थात अपरिवर्तनीय है। … इस पुस्तक में मैंने यह बताने की चेष्टा की है कि यह धारणा तथ्यपरक नहीं है और हिंदू सभ्यता में समय-समय पर बदलाव होते रहे हैं तथा अक्सर इसमें आमूलचूल परिवर्तन हुए हैं। … इस पुस्तक को पढ़ने से यह पता चलेगा कि ब्राह्मणों ने अपने आराध्यों और ग्रंथों में किस प्रकार परिवर्तन किए। एक समय वे वैदिक देवताओं के पूजक थे। फिर, एक दौर ऐसा आया जब उन्होंने वैदिक देवताओं को दरकिनार कर दिया और अ-वैदिक देवताओं की पूजा करने लगे। कोई उनसे पूछे कि आज इंद्र कहां हैं, वरुण कहां हैं, ब्रह्मा कहां हैं और मित्र कहां हैं। ये सभी वे देवता हैं जिनका वेदों में उल्लेख है।” (डॉ. आंबेडकर, हिंदू धर्म की पहेलियां : बहुजनो! जानो ब्राह्मणवाद का सच, फारवर्ड प्रेस, पृ. 61)

ई.वी. रामासामी पेरियार बुद्धिवाद और तर्कवाद को महत्व देते थे। उनके विचारों को फारवर्ड प्रेस ने ‘ई.वी. रामासमी पेरियार : दर्शन, चिंतन और सच्ची रामायण’ में संकलित किया है। पेरियार तथाकथित सनातन धर्म की मूल अवधारणा पर ही सवाल उठाते हैं– “हिंदू धर्म के मूल आख्यानों का सावधानीपूर्वक, विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाए, तो पता चलता है कि जो भी तथाकथित घटनाएं इनमें वर्णित हैं; वे अधिकाधिक असभ्य और बर्बर हैं। गौर करने वाली बात यह भी है कि इनमें लोगों, विशेषकर तमिलों के लिए इनसे सीखने और इनके अनुरूप आचरण करने लायक कुछ भी नहीं है। इनमें न तो नैतिकता है; न ही सराहनीय दर्शन। इन पुराकथाओं को इस चतुराई के साथ लिखा गया है कि ब्राह्मण दूसरों की नजर में महान दिखें; महिलाओं को इनके द्वारा दबाया जा सके तथा उन्हें दासी बनाकर रखा जा सके। इनका उद्देश्य ब्राह्मणों के धर्मग्रंथों, रूढ़ियों तथा ‘मनुस्मृति’ को समाज पर थोपना है; जो कि तमिलों के लिए अपमानजनक है। ये आख्यान राम और कृष्ण का अनुचित व अवांछित देवताकरण करते हैं; उन्हें स्थाई तौर पर थोपते हैं।” (पेरियार, ई.वी. रामासमी पेरियार : दर्शन, चिंतन और सच्ची रामायण, फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, पृ. 80)

आज बेशक सनातन धर्म पर सवाल उठाए जाने पर आरएसएस व उसके समर्थक आगबबूला हो रहे हैं, लेकिन सच तो यही है कि यह एक खास जाति समूहों की मान्यता रही है, जिसके मूल में वर्चस्व को बनाए रखना है। इस संबंध में फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित किताब ‘हिंदुत्व मुक्त भारत की ओर’ में प्राख्यात चिंतक प्रो. कांचा आइलैय्या शेपर्ड ने लिखा है– “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके हिंदू आतंकवादी नेटवर्क के उभरने से भीतरी तौर पर हिंदू धर्म के अंत की प्रक्रिया को गति ही मिली है। इतिहास में जब भी ब्राह्मणवादी ताकतों ने अपने आपको एक धर्म और एक संस्कृति के आधार पर संगठित करने का प्रयास किया है, और दलित-बहुजन को यंत्रणा तथा दमन के उसी धरातल पर छोड़ दिया है तो दूसरे धर्मों को मौका मिला है कि वे भारत के जमीन से जुड़े समुदायों को अपने साथ लें। उत्पादक समूहों को पूरी तरह दबाते हुए जब भी ब्राह्मणवाद ने पूरे भारत को अपने अधिकार में करने का प्रयास किया, दमित समुदाय उन धर्मों की तरफ मुड़े, जहां उन्हें बराबरी का हक़ मिलता था।”

इस प्रकार हम पाते हैं कि सनातन धर्म को लेकर आज जो सवाल उठ रहे हैं, उसके बारे में पहले ही दलित-बहुजन लेखकों/चिंतकों ने विस्तृत रूप में विश्लेषित कर रखा है। उदयनिधि स्टालिन ने जो कहा है, उसे इन्हीं विचारों के प्रस्फुटन के रूप में देखा जाना चाहिए।

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