हरेंद्र राणा
वर्तमान भारतीय समाज दुखों के समुद्र में डूबा हुआ है। मजदूरों का न कोई गांव है न शहर, किसानों की खेती ही उनकी मौत का सबब बन गई है, आदिवासियों के जंगल उनके लिए तबाही की वजह बन चुके हैं, उप-राष्ट्रीयताएं धूं-धूंकर जल ही रही हैं, दलित आज भी समाज में सबसे खराब स्थिति में पड़े हुए हैं, रही बात औरतों की तो न उनकी जगह जमीन पर है न आसमान में। पूरा समाज शोषण-उत्पीड़न और वंचना के महासमुद्र में गोते लगा रहा है।
समस्या और उसकी वजह सबके लिए एक ही जैसी है। लेकिन यह लेख मुख्यत: औरतों की समस्या को समझने की कोशिश करेगा, खासकर मध्य-वर्ग की औरतों की समस्या को।
मध्य-वर्ग कि औरतें अपनी सोच, अपनी चेतना (consciousness) यानि दिमागी गुलामी की वजह से संघर्षशील और संगठित नहीं हो पातीं। यह दिमागी गुलामी औरतों की मुक्ति और गुलामी के बीच हिमालय की तरह पैर अड़ाकर खड़ी हुई है। शासक-वर्ग यह दिमागी गुलामी को हमारी मानसिकता में एक आध्यात्मिक दृष्टिकोण के रूप में बैठा देता है। हम इसको खुद की मानसिकता मान लेते हैं तथा इसको पुष्पित-पल्लवित करने के लिए अपनी जान लगा देते हैं। अपनी शारीरिक-मानसिक-भौतिक (material) इच्छाओं को तिलांजलि दे देते हैं।
दिमागी गुलामी के शासक वर्गीय दृष्टिकोण को एक भौतिक आधार (material-base) प्रदान कर दिया जाता है। जिसकी निम्न विशेषताये हैं: पितृ सत्तात्मक सामंती परिवार संरचना, धर्मभीरुता, परजीविता और लोकाचार।
इस परिघटना (phenomenon) को समझने के लिए हमें अपने इतिहास पर एक नजर मारना जरूरी है।
पुराने जमाने में एक पुरुष शासित परिवार संरचना के इर्द-गिर्द भारतीय समाज की आधारशिला रखी गयी। जिसमें औरतों को आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक हकों से वंचित रखा गया था। जिसकी अभिव्यक्ति धर्मभीरुता, लोकाचार और परनिर्भरता के रूप में हुई।
परनिर्भरता
औरत की परनिर्भरता पर यहां ज्यादा बात नहीं करेंगे, क्योंकि सभी जानते हैं कि औरत चाहे जिस भी धर्म की हो, वह आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक तौर पर मर्दों पर ही निर्भर होती है।
लोकाचार
महाभारत में दुष्यंत, शकुंतला और उसके पुत्र को स्वीकार नहीं करता क्योंकि लोग तरह-तरह के सवाल उठाएंगे। जब आसमान से भविष्यवाणी होती है तब स्वीकार करता है। सीता को अपनी वैध शादी के बाहर पर-पुरुष से सम्बन्धों के सवाल से दो-चार होना पड़ा। अग्नि परीक्षा देनी पड़ी। अंतत: उसके पति ने लोकाचार के भय से सीता को वनवास दे दिया। कुंती को आजीवन अपने बिना ब्याह के पैदा हुए बच्चे के अपमान का दंश झेलना पड़ा और करण के वध के समय स्वीकार करना पड़ा कि यह मेरा पुत्र था। क्या विडम्बना है न पुत्र का प्यार मिला और आखिरकार लोकलाज भी न बच सकी। जाने अभी भी रोज कितनी कुंती, शकुंतला और सीता इस विडम्बना से गुजरती हैं और लोकाचार की वजह से सब सहन कर जाती हैं।
आज 21 वीं सदीं में सुप्रीम कोर्ट में बहस चल रही है कि बिन ब्याहे मां-बाप के बच्चे को वैध माना जाए या नहीं। उस बच्चे को मां-बाप की जायदाद में हिस्सा मिलना चाहिए कि नहीं। फैसला आया कि हिन्दू शादी कोड के अनुसार इस बच्चे को दादालाई संपत्ति में हिस्सा नहीं मिलेगा बस अपने मां-बाप की संपत्ति में मिल सकता है। यानि बच्चे को खानदान की स्वीकृति नहीं मिलेगी ना ही समाज की। वह बच्चा समाज की नजरों में अभी भी नाजायज़ ही रहेगा और उसकी मां लोकाचार के ताने ताउम्र झेलती रहेगी।
इस्लाम धर्म कहता है कि इस्लाम के अनुसार शादी के बाहर अगर कोई बच्चा पैदा होता है तो वह हराम है। उसका अपने मां-बाप और दादालाई संपत्ति में कोई हक नहीं होगा। यानि मर्दों के बनाये सामाजिक और खानदानी नियमों की मुहर लगना लाजिमी है अन्यथा मां बदचलन है और उसे लोकाचार के हिसाब से गिरी हुई औरत माना जाएगा।
1926 के नियम के अनुसार ईसाई भी उसी बच्चे को खानदानी और सामाजिक तौर पर स्वीकार्य मानते हैं जो नियम अनुसार शादी से पैदा हुआ हो अन्यथा वह भी नाजायज है। उसका मां-बाप और दादालाई संपत्ति में कोई हक नहीं होगा।
क्या इस लोकाचार की वजह से औरत का अपनी शारीरिक और मानसिक इच्छाओं पर हक है? या लोकाचार के डर से मर्दों का नियंत्रण है? आज भी इस लोकाचार की वजह से हजारों-लाखों की संख्या में औरतें अत्महत्या करती हैं या मार दी जाती हैं। लेकिन कोई विद्रोह नहीं करतीं।
धर्मभीरुता
गौतम मुनि की पत्नी अहिल्या को इन्द्र के दुष्कर्म की नैतिक सजा झेलनी पड़ती है। द्रौपदी और गांधारी कोई इनसे अछूती नहीं रही हैं।लेकिन किसी ने भी कभी विद्रोह नहीं किया। विद्रोह ना करने की जड़ में है धर्मभीरुता। आज भी भारत में हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई औरतें तथाकथित पादरियों, मुल्लाओं और साधु-संतों की व्यभिचारिता की आए दिन शिकार होती रहती हैं। वो अपने खुद के घर में भी झेलती रहती हैं। लेकिन इस धर्मभीरुता के विरुद्ध जंग का एलान नहीं करतीं, जो एक-दो हिम्मती औरतें करतीं हैं। यह समाज उसका साथ नहीं देता। क्योंकि ऊपर वाले का निजाम बिगड़ जाएगा, उसके नियम में कैसे खयानत कर सकते हैं? कभी ये नहीं सोचती की ये ऊपर वाले का बनाया निजाम नहीं है बल्कि पितृसत्तात्मक मर्दों का बनाया निजाम है। जिसे ढहाकर नेस्तनाबूद कर देने में ही औरतों की भलाई है।
सवाल ये है कि क्या आज औरतें इस दिमागी गुलामी से मुक्त हो गई हैं? हम मानते हैं कि नहीं हुईं। क्या आज भी औरतें अपने शरीर पर खुद का अधिकार रखती हैं? क्या अहिल्या की तरह नैतिक दंड नहीं झेलती हैं? क्या शकुंतला, सीता और कुंती के समान लोकाचार का शिकार नहीं होती हैं? और क्या आत्महत्या या हत्या का शिकार नहीं होती हैं? क्या आज भी औरतें परनिर्भर नहीं हैं? लेकिन क्या कभी हमारे मन भी आता है कि ये सब गुलामी है और इससे विद्रोह होना चाहिए, नहीं आता। क्योंकि हम इसके अभ्यस्त हो चुके हैं, इसको अपना जीवन मान चुके हैं, इसके फलने-फूलने में ही अपने जीवन की इतिश्री मानते हैं। जबकि जीवन से तो महरूम ही रह जाते हैं। क्या विडम्बना है?
यहां सवाल उठता है कि इस हजारों साल की दिमागी गुलामी के बंधन से विद्रोह कैसे किया जाए? इसका एक मात्र रास्ता है, हमें धर्मभीरुता, लोकाचार और परनिर्भरता के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए। हमें अपनी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक जरूरतों को बिना किसी भय के पूरा करना चाहिए और अगर जरूरत हो तो बिना किसी हिचक के लड़ जाना चाहिए, विद्रोह कर देना चाहिए, मरने से नहीं डरना चाहिए। ऐसे भी हम एक जिंदा लाश की तरह जीते है, मार दिये जाते हैं या खुदखुशी ही कर लेते हैं। फिर लड़कर मरने में क्या डर है?
हमारी ऐतिहासिक वीरांगनाएं ही हमें अपने अनुभवों से रास्ते दिखती हैं, जिस पर चलकर हम आजाद हो सकते हैं। महाभारत में जब अर्जुन कर्ण का वध कर देता है तो कुंती युधिष्ठिर को बताती है कि यह तुम्हारा बड़ा भाई था। मैंने लोकलाज के डर से नहीं बताया था। द्रोपदी जो पांडवों के लिए सब कुछ न्यौछावर कर देती है, स्वर्ग जाते हुए जब वह गिर जाती है तब युधिष्ठिर बोलते हैं कि यह भीम को ज्यादा प्यार करती थी। इसी पक्षपात की वजह से ये स्वर्ग में नहीं जा सकती। उस समय द्रोपदी बोलती है कि मेरी सारी तपस्या बेकार ही थी।
सीता जो राम के साथ वन में मारी-मारी फिरी अंत में अकेले ही वनवास भोगना पड़ा। गार्गी जिसने राजा जनक के दरबार में याज्ञवलक्य को वाद-विवाद के लिए चुनौती दी थी। याज्ञवलक्य ने ये कहकर चुप करा दिया की अगर तुमने एक शब्द भी और बोला तो तुम्हारा सर धड़ से अलग हो जाएगा। मीरा ने सब लोकलाज छोड़कर अपनी भक्ति के गीत गाये और मर्दों के निजाम से बगावत कर दी।
ये ऐतिहासिक औरतें ही हमें हमारा रास्ता दिखती हैं। औऱ दूसरी ओर औरतें धर्म से डरती रहीं, लोकलाज निभाती रहीं, परजीवी बनकर जीती रहीं। क्यों? क्योंकि जिससे उनकी ज़िंदगी नियमानुसार सुख-चैन से कट जाए। लेकिन क्या सुख-चैन से कटी? नहीं उनको अंतत: वे सारे लांछन भोगने पड़े जिनसे वे सब बचना चाहती थीं। अपने जीवन के अंत में इनको लोकाचार और धर्मभीरुता पर सवाल उठाने पड़े और अपनी इस गलती को स्वीकार करना पड़ा। अब ये हमें सोचना है कि क्या हम धर्मभीरु, लोकाचार और परनिर्भरता की राह पर चलें या खुदमुख्तार होकर अपनी शारीरिक-मानसिक आजादी की राह अपनाएं? परिणाम हम हर सूरत में जानते हैं।
एक डर हमें यहां सता सकता है कि हम अकेले कैसे लड़ सकते हैं? सबसे जरूरी बात तो यह है कि हम अपने मन में ठान लें कि हम इस दिमागी गुलामी से आजाद होकर जीएंगे। उसके बाद हम अपने दोस्त तलाशें जो इस आजादी के संघर्ष में हमारा साथ दें। क्योंकि “अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता”। सारी शोषित-उत्पीड़ित औरतें हमारी दोस्त हैं, दलित हमारे दोस्त हैं, गरीब किसान-मजदूर हमारे दोस्त हैं, आदिवासी और उप-राष्ट्रीयताओं के उत्पीड़ित लोग हमारे दोस्त हैं यानि सभी शोषित-उत्पीड़ित-वंचित इस आजादी के संघर्ष में हमारे दोस्त है। हम बहुसंख्यक हैं, हमें डरना नहीं चाहिए, हम सबको अपना दुख साझा करना चाहिए, उस दुख से एकताबद्ध होकर दो-दो हाथ करना चाहिए।
निष्कर्ष के तौर पर हम यह कह सकते हैं कि औरतों की मानसिकता पर आध्यात्मिक दृष्टिकोण लाद दिया गया। धर्मभीरुता, लोकाचार और परजीविता के रूप में। जिसकी वजह से औरतों ने अपनी शारीरिक-मानसिक-भौतिक (material) इच्छाओं को त्याग दिया। इतिहास हमें बताता है कि इस आध्यात्मिक दृष्टिकोण को निभाने पर भी कभी उनको ज़िंदगी नहीं मिली। मिली तो सिर्फ बेइज्जती, मौत और आत्महत्या। जो सिलसिला आज तक चला आ रहा है। ज़िंदगी का भौतिक दृष्टिकोण अपनाकर अपनी शारीरिक-मानसिक इच्छाओं को जीने के लिए, खुद के मन में ठानकर, सभी दुखियों के साथ एकताबद्ध होकर हम इस रौरव नरक से मुक्त हो सकते हैं। तय हमें ही करना है।
(हरेंद्र राणा दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में रिसर्च स्कॉलर हैं।)