जवरीमल्ल पारख
हिंदी के लोकप्रिय अभिनेता देवानंद (1923-2011) जिनकी जन्म शताब्दी इस वर्ष पूरे देश में मानयी जा रही है और जिनका जन्मदिन 26 सितंबर को मनाया जाता है, ठीक उसी दिन सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने हिंदी की प्रख्यात अभिनेत्री वहीदा रहमान को 53वां दादा साहब फाल्के पुरस्कार देने की घोषणा की है। पिछली बार जब 2020 के लिए आशा पारेख को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार देने की घोषणा की गयी थी, तब कई फ़िल्म प्रशंसकों ने यह सवाल उठाया था कि वहीदा रहमान के रहते हुए आशा पारेख को पुरस्कार दिया जाना सही नहीं है। इसलिए इस बार वहीदा रहमान को पुरस्कार देने की घोषणा का हिंदी फ़िल्म के दर्शकों द्वारा स्वागत किया जाना लाजमी है।
दादा साहेब फाल्के (1870-1944) जिन्हें भारतीय सिनेमा का जनक कहा जाता है और जिन्होंने 1913 में ‘राजा हरिश्चंद्र’ फ़िल्म बनायी थी जो भारत की पहली मूक फ़ीचर फ़िल्म थी और जहां से भारत में सिनेमा का इतिहास शुरू होता है, उनके शताब्दी वर्ष (1969-70) में भारत सरकार ने प्रतिवर्ष ऐसे किसी व्यक्ति को पुरस्कृत और सम्मानित करने का फैसला किया जिसने भारतीय सिनेमा की संवृद्धि और विकास में अप्रतिम योगदान दिया हो।
सिनेमा के क्षेत्र में दिया जाने वाला यह सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार है। पहला दादा साहेब पुरस्कार 1969 में देविका रानी को दिया गया जिन्होंने न केवल एक अभिनेत्री के तौर पर बल्कि अपने पति हिमांशु राय के साथ बांबे टॉकीज की स्थापना द्वारा भी उन्होंने सिनेमा के आरंभिक दशकों में महत्त्वपूर्ण फ़िल्मों का निर्माण कर भारतीय सिनेमा में अपूर्व योगदान दिया था। अब तक 52 फ़िल्मकारों और कलाकारों को दादा साहब फाल्के एवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है। इस पुरस्कार से सम्मानित किये जाने वाले फ़िल्मकारों और कलाकारों को स्वर्ण कमल पदक और दस लाख रुपये पुरस्कार राशि के रूप में प्राप्त होते हैं। वहीदा रहमान को दिया जाने वाला पुरस्कार 53वां होगा।
यह पुरस्कार सिनेमा से जुड़ी उस जीवित हस्ती को दिया जाता है जिन्होंने ‘भारतीय सिनेमा की संवृद्धि और विकास में अप्रतिम योगदान दिया हो’। लेकिन भारतीय सिनेमा की संवृद्धि और विकास को नापने का कोई वस्तुगत पैमाना नहीं है और न हो सकता है। आमतौर पर सिनेमा के किसी भी क्षेत्र में जो शिखर पर रहे हैं उनके बारे में यह माना जा सकता है कि उनका योगदान भी अप्रतिम रहा होगा।
लेकिन यह भी सही है कि भारत जैसे बहुभाषी देश में जहां 25 से अधिक भाषाओं में फ़िल्में बनती हैं, वहां प्रतिवर्ष यह तय करना बहुत मुश्किल है कि किन्हें पुरस्कार दिया जाना चाहिए। जिन्हें पुरस्कार के लिए चुना जाता है, क्या उसकी जगह किसी और को नहीं दिया जाना चाहिए था। यह विवाद हर बार जब पुरस्कार की घोषणा होती है, तब उठ खड़ा होता है। ऐसे अवसर कम आते हैं जब किसी तरह का विवाद न हो। संभवत: वहीदा रहमान एक ऐसा ही नाम है।
इसके बावजूद पुरस्कारों की पूरी सूची देखने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि हिंदी फ़िल्मकारों और कलाकारों को दूसरों की अपेक्षा अधिक वरीयता दी जाती है। इसी तरह अभिनेता, निर्माता और निर्देशकों को संगीतकार, गीतकार, पटकथाकार, की अपेक्षा ज्यादा वरीयता दी जाती है। फ़िल्मों में अभिनेता के रूप में काम करना एक बात है और भारतीय सिनेमा में योगदान देना दूसरी बात। पिछले दस-पंद्रह सालों में ऐसे कई अभिनेताओं को पुरस्कृत किया गया है जिनकी मुख्य पहचान ही व्यवसायिक सिनेमा में काम करना रहा है।
यह भी स्पष्ट है कि पिछले दस सालों में उन लोगों को वरीयता दी गयी है जो मौजूदा शासक दल के समर्थक माने जाते हैं। अन्यथा विनोद खन्ना या आशा पारेख का योगदान इस स्तर का तो नहीं है कि उन्हें दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया जाता। ऐसे और भी कई नाम मिल जायेंगे। निश्चय ही वहीदा रहमान एक बड़ा नाम है और अभिनय के क्षेत्र में उनका योगदान दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किये जाने के सर्वथा उपयुक्त है।
वहीदा रहमान को पुरस्कार दिये जाने की घोषणा कइयों के लिए आश्चर्य की बात हो सकती है और उसके पीछे के कारणों को लेकर तरह-तरह के कयास भी लगाये जा रहे हों, क्योंकि मौजूदा सरकार का अब तक का जो रवैया कला और संस्कृति के प्रति रहा है, वह उनकी नीयत पर संदेह करने का ठोस कारण है और लोगों का यह मानना पूरी तरह सही हो सकता है कि अगले साल होने वाले चुनाव में अपनी छवि को बेहतर बनाने की यह कोशिश भर हो सकती है।
जो भी हो, लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि वहीदा रहमान को यह सम्मान दिया जाना हर दृष्टि से उपयुक्त है। यह इसलिए भी उपयुक्त है कि वहीदा रहमान का कद इस पुरस्कार से कहीं बड़ा है और उन्हें पुरस्कार दिये जाने की घोषणा से यह पुरस्कार पिछले कुछ सालों में जो अपनी प्रतिष्ठा खोता जा रहा था, उसे दोबारा प्राप्त करने की कोशिश के रूप में भी देखा जा सकता है। यहां यह कैसे भुला जा सकता है कि अभी कुछ अर्सा पहले ही इसी सरकार ने सिनेमा द्वारा राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिए एक ऐसी फ़िल्म (दि कश्मीर फाइल्स) को पुरस्कृत किया गया जिसका एजेंडा ही मुस्लिम समुदाय के प्रति नफ़रत और घृणा फैलाना है।
वहीदा रहमान (जन्म : 1938) ने भरतनाट्यम की विधिवत शिक्षा ली थी। उस जमाने में किसी मुस्लिम लड़की का भरतनाट्यम सीखना अपवाद की तरह था, लेकिन वहीदा रहमान ने न केवल भरतनाट्यम सीखा बल्कि उसमें उत्कृष्ट प्रवीणता भी हासिल की। फ़िल्मों में अभिनय की शुरुआत उन्होंने तेलुगु फ़िल्म ‘रोजुलु मारायी’ (समय बदल गया है) से की थी जिसका प्रदर्शन 1955 में हुआ था। उन्होंने उसी दौर में कुछ और तेलुगु फ़िल्मों में काम किया था। उन्होंने ज्यादातर फ़िल्मों में नृत्य से संबंधित भूमिकाएं निभायी थी। इस फ़िल्म के जुबली समारोह में भाग लेने के लिए गुरुदत्त को आमंत्रित किया गया था। उस समय तक गुरुदत्त हिंदी सिनेमा के एक प्रतिष्ठित नाम बन चुके थे। इस फ़िल्म में वहीदा रहमान की छोटी-सी भूमिका थी और इस फ़िल्म में वहीदा रहमान के नृत्य के दृश्य भी थे।
वहीदा रहमान के काम और नृत्य से गुरुदत्त प्रभावित हुए और उन्होंने वहीदा रहमान को अपनी कंपनी से बतौर अभिनेत्री जोड़ने का निश्चय किया। वहीदा रहमान को हिंदी सिनेमा में न केवल लाने का श्रेय गुरुदत्त को है, बल्कि एक उत्कृष्ट अभिनेत्री में रूपांतरित करने का श्रेय भी गुरुदत्त को है। जब हैदराबाद में गुरुदत्त ने वहीदा की तेलुगु फ़िल्म देखी थी, तब उसके व्यक्तित्व से आकृष्ट तो हुए थे, लेकिन हिंदी फ़िल्मों के लिए उपयुक्त है या नहीं इसके लिए उन्होंने यह जानना चाहा था कि क्या वह उर्दू ठीक से बोल सकती है।
उन्होंने लगभग आधे घंटे तक वहीदा से बात की और जब आश्वस्त हो गये कि हां, यह उर्दू ठीक से बोल सकती है, उसके बाद ही उन्होंने अपनी फ़िल्म में लेने का निर्णय लिया और लगभग तीन महीने बाद तीन साल के लिए वहीदा रहमान के साथ अनुबंध किया। उनकी पहली हिंदी फ़िल्म ‘सीआईडी’ (1956) थी जिसका निर्माण गुरुदत्त ने किया था और देवानंद इसके नायक थे। गुरुदत्त और देवानंद दोनों के साथ वहीदा रहमान ने कई फ़िल्मों में काम किया। सीआईडी फ़िल्म का निर्देशन राज खोसला ने किया था।
बताया जाता है कि वहीदा रहमान को आरंभ में अपना नाम बदलने का सुझाव गुरुदत्त और राज खोसला दोनों ने दिया था जिसे वहीदा रहमान ने ठुकरा दिया था। फ़िल्मों में नाम बदलकर कोई अन्य नाम रखना एक आमचलन रहा है। खासतौर पर अभिनेता और अभिनेत्रियों के नाम बदले जाते थे और अब भी बदले जाते हैं। इसका मुख्य कारण होता था, ऐसा नाम रखना जो दर्शकों की जबान पर आसानी से चढ़ सके। यह जो धारणा प्रचलित है कि मुस्लिम कलाकारों के हिंदू नाम रखे जाते थे, यह पूरी तरह सही नहीं है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि दिलीप कुमार को नाम बदलने के लिए जो वैकल्पिक नाम सुझाये गये थे, उनमें एक नाम जहांगीर भी था। नाम बदलने का आग्रह स्वयं दिलीप कुमार का भी था जो नहीं चाहते थे कि उनके पिता को यह बात मालूम हो कि उनका बेटा फ़िल्मों में काम करता है। यह बात स्वयं उन्होंने अपनी आत्मकथा में कही है। बहुत सी अभिनेत्रियां पहले से ही मुस्लिम नाम से काम कर रही थीं, नर्गिस और सुरैया इनमें उल्लेखनीय हैं और इन दोनों के नाम उनके वास्तविक नाम नहीं हैं बल्कि फ़िल्मों के लिए रखे गये नाम हैं।
वहीदा रहमान को जब नाम बदलने का सुझाव दिया गया था, तब वह हिंदी सिनेमा में अपना करियर शुरू ही कर रही थीं। इससे पहले तेलुगु फ़िल्मों में उन्होंने बहुत छोटे रोल किये थे। इसलिए वहीदा रहमान निश्चय ही गुरुदत्त से कोई सौदेबाजी करने की स्थिति में नहीं थीं। यह महज सुझाव था और जब वहीदा रहमान ने सुझाव नहीं माना तो बात खत्म हो गयी। यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि स्वयं गुरुदत्त का वास्तविक नाम वसंतकुमार शिवशंकर पाडुकोण था, लेकिन फ़िल्मों में गुरुदत्त के नाम से ही वे ख्यात हैं।
इसी तरह देवानंद का नाम धर्मदेव पिशारीमल आनंद था, लेकिन फ़िल्म में उन्होंने देवानंद कहलाना ज्यादा पसंद किया। यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि आरंभ से ही हिंदी सिनेमा के लगभग हर क्षेत्र में मुस्लिम समुदाय से आये कलाकार काम करते रहे हैं और उन्हें अपार लोकप्रियता और दर्शकों का प्यार भी मिला है। विभाजन के दौर में भी इस स्थिति पर कोई असर नहीं हुआ था। वहीदा रहमान उन्हीं में से एक हैं।
यह सही है कि एक अभिनेत्री के रूप में उन्हें तैयार करने में अहम भूमिका गुरुदत्त ने निभायी थी जो स्वयं भी उत्कृष्ट अभिनेता और निर्देशक थे। गुरुदत्त से सीखने का लाभ यह जरूर हुआ कि अपने को नाटकीयता और अतिरंजनापूर्ण अभिनय से हमेशा बची रहीं। भावनाओं को संयमित रूप से प्रस्तुत करना, शारीरिक मुद्राओं को भी उतना ही व्यक्त करना जितना यथार्थपरक अभिनय के लिए जरूरी है। ‘गाइड’ की रोजी की भूमिका में नाटकीयता और अतिरंजना की पर्याप्त गुंजाइश थी, लेकिन वहीदा रहमान इन दोनों से बचकर ही अपनी भावनाओं को व्यक्त कर सकीं।
इसी फ़िल्म में जब मार्को के सामने वह क्रोधित होती हैं तब भी उसका गुस्सा बहुत जरूरी और स्वाभाविक लगता है। ‘तीसरी कसम’ में हीराबाई की भूमिका में भी वहीदा रहमान के अभिनय का उच्चशिखर नजर आता है। फ़िल्म के अंतिम दृश्य में जब हीराबाई और हिरामन एक दूसरे से जुदा होते हैं तब बिना शब्दों के दोनों अपनी भावनाओं को जितनी गहराई से पेश करते हैं, वह कोई सामान्य कलाकार नहीं कर सकता। खामोशी’ में नर्स की भूमिका को भी कभी नहीं भुलाया जा सकता। ऐसी कई फ़िल्में हैं और ऐसी कई भूमिकाएं हैं जिन्होंने वहीदा रहमान को वहीदा रहमान बनाया है।
वहीदा रहमान ने लगभग सात दशकों में फैले अपने फ़िल्मी करियर में 90 फ़िल्में की हैं। उन्होंने गुरुदत्त, सत्यजित राय, असित सेन, बासु भट्टाचार्य, सुनील दत्त, विजय आनंद, यश चोपड़ा, अपर्णा सेन, गुलज़ार, राकेश ओमप्रकाश मेहरा, कमल हासन, दीपा मेहता, जाह्नु बरुआ जैसे प्रख्यात फ़िल्म निर्देशकों के साथ काम किया है। उन्होंने मुख्य रूप से हिंदी फ़िल्मों में ही काम किया है और उनकी लोकप्रियता हिंदी फ़िल्मों की वजह से ही है। लेकिन उन्होंने तेलुगु, बांग्ला, मलयालम, तमिल और अंग्रेजी फ़िल्मों में भी काम किया है। उन्होंने अपने समय के लगभग सभी प्रमुख अभिनेताओं के साथ काम किया है जिनमें गुरुदत्त, दिलीप कुमार, राज कपूर, सौमित्र चटर्जी, देवानंद, सुनील दत्त, राजकुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन प्रमुख हैं।
वहीदा रहमान ने गुरुदत्त के साथ सीआईडी ((1956), प्यासा (1957), कागज़ के फूल (1959), चौदहवीं का चांद (1960) और साहब, बीबी और ग़ुलाम (1962) फ़िल्मों में काम किया। ये सभी फ़िल्में वहीदा रहमान के करियर की उल्लेखनीय फ़िल्में हैं। खासतौर पर प्यासा, कागज़ के फूल और साहब, बीबी और गुलाम को हिंदी सिनेमा की क्लासिक फ़िल्मों का दर्जा प्राप्त है।
उन्होंने सत्यजित राय की बांग्ला फ़िल्म ‘अभिजन’ (1962) में नायिका की भूमिका निभायी थी। इस फ़िल्म में उनके साथ बांग्ला फ़िल्मों के प्रख्यात अभिनेता सौमित्र चटर्जी ने नायक की भूमिका निभायी है। इन फ़िल्मों के अलावा नवकेतन प्रोडक्शन की भी कई फ़िल्मों में काम किया जिनमें काला बाज़ार (1960) और गाइड (1965) ही सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं। देवानंद के साथ उनकी फ़िल्म गाइड को एक क्लासिक का दर्जा हासिल है जो स्वयं वहीदा रहमान के फ़िल्मी करियर की एक बहुत ही महत्वपूर्ण फ़िल्म है। यह फ़िल्म अंग्रेजी कथाकार आर. के. नारायण के उपन्यास ‘गाइड’ पर आधारित थी।
इस फ़िल्म में नायक की भूमिका देवानंद ने निभायी थी और विजय आनंद ने निर्देशन किया था। बासु भट्टाचार्य के निर्देशन में बनी शैलेंद्र की फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ में हीराबाई की भूमिका भी उसी तरह की चुनौतीपूर्ण थी जैसी ‘प्यासा’ की गुलाबो या ‘गाइड’ की मिस रोजी। खामोशी (1970) में नर्स की जो जटिल भूमिका निभायी है, उसे निभाना हर अभिनेत्री के लिए आसान नहीं है।
इनके अलावा बीस साल बाद (1962), मुझे जीने दो (1962), राम और श्याम (1967), रेशमा और शेरा (1971), त्रिसंध्या (1972, मलयालम), कभी-कभी (1976), त्रिशूल (1978), नमकीन (1982), सिंहासनम (तेलुगु, 1986), चांदनी (1989), लम्हे (1991), वाटर (2005), मैंने गांधी को नहीं मारा (2005), 15 पार्क एवेन्यू (2005, अंग्रेजी-बांग्ला), रंग दे बसंती (2006), दिल्ली-6 (2009), विश्वरूपम-2 (2018), स्केटर गर्ल (2021, अंग्रेजी, हिंदी) उनकी प्रमुख फ़िल्में हैं। 85 वर्ष की उम्र में वे अभी भी सक्रिय हैं।
फ़िल्मों में उत्कृष्ट अभिनय के लिए उन्हें ‘रेशमा और शेरा’ फ़िल्म के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार प्राप्त हुआ। इसके अलावा ‘साहब बीबी और गुलाम’ और ‘नीलकमल’ के लिए फ़िल्मफेयर पुरस्कार प्राप्त हुआ। 1994 में फ़िल्मफेयर लाइफटाइम एचीवमेंट पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। भारत सरकार ने वहीदा रहमान को फ़िल्मों में योगदान के लिए 1972 में पद्मश्री और 2011 में पद्मभूषण से भी सम्मानित किया गया। अभी 26 सितंबर, 2023 को सिनेमा के क्षेत्र का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार दादा साहेब फाल्के पुरस्कार की घोषणा की गयी है जो उन्हें 2021 वर्ष के लिए दिया जायेगा।
वहीदा रहमान ने कंवलजीत (वास्तविक नाम : शशिरेखी) नामक एक सहयोगी अभिनेता के साथ 1974 में विवाह किया था जिसके साथ उन्होंने ‘शगुन’ फ़िल्म में काम किया था। वे दो बच्चों की मां है हालांकि उनके पति कंवलजीत का सन 2000 में देहावसान हो गया है। विवाह के बाद उन्होंने फ़िल्मों में काम करना कम अवश्य किया लेकिन बंद कभी नहीं किया और अभी भी वे फ़िल्मों और सामाजिक कार्यों में सक्रिय हैं।
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