~ रीता चौधरी
जनानख़ाने से कहा गया , दो किलो हल्दी , अभी इसी वक्त। वजह भैंस ने बच्चा दिया है , उसे देना ( पिलानी ) है। बाज़ार ने बताया चार सौ रुपये किलो , “ आपको “ साढ़े तीन सौ लगा देंगे। तौलते – तौलते उसने बड़े झटके में पूछा
– चूना ?
– वो तो लग गया !
– हम मजाक नहीं कर रहे हैं , चूना भी ले लीजिये.
जानवर को कैलेशियम की ज़रूरत होती है, इस चूने को रात भर मिट्टी के बरतन में खूब सारा पानी डाल कर भिगो दीजिये। पानी पड़ते ही चूना पानी को खौला देगा। सुबह तक पानी ठंढा हो जायगा और चूना नीचे सतह पर बैठ जायगा। पानी को सावधानी से निकाल कर शीशे के बोतल में रख दीजिये। यह पानी कैलेसियम बन जाता है। जानवर को जब भी पानी पिलायें सौ दो सौ मिली ग्राम चूना पानी मिला दें बस।
आप डाक्टर भी हैं ?
– नहीं मालिक ! डाक्टर लोग आते रहते हैं न !
– जमे हुए चूने का क्या करें ?
– हल्दी पीस कर चुटकी भर हल्दी मिला दीजिये , पीला , नारंगी , केसरिया रंग तैयार। कपड़ा रंग लीजिये , खादी हो तो क्या कहने । चर्म रोग होगा ही नहीं।
– बस आज इतना ही ! बोल कर हम वापस घर की और मुड़े और मन लौट गया बहुत पीछे। जब हल्दी ने हमे पिटवा दिया था।
बचपन की बात है , हम बचपन में अनगिनत खेल खेलते थे उन्हें गिनाना फ़िज़ूल है , अब ये लोप हो चुके हैं , इनके नाम का ज़िक्र ही शब्दकोश से बाहर हो चुका है । एक खेल होता था चिल्होर।
चिल्होर खेल पेड़ की फैली शाख़ों और नीचे की समतल और साफ़ जमींन के दरमियाँ खेला जाने वाला खेल है। हम खेल रहे थे , हम अपनी सुविधानुसार एक डाल पर बैठे थे , नीचे कूदते समय चड्ढी का पिछला हिस्सा डाल की खूँटी में ऐसा फँसा कि ——- जाने दीजिये। नीचे ज़मीन पर था कूदना लेकिन भक्क से गिर गया। दाहिने पाँव में मोच आ गई।
यहाँ पहली मुलाक़ात हुई हल्दी और प्याज़ से। लेकिन और भी कुछ हुआ , बेहतर शब्दावली में डाँट पड़ी , जहाँ से चड्ढी फटी थी , वहीं चार डंडा मारने का ऐलान हुआ , पर मारा नहीं गया। पीतल की कलछुल में रौताईंन अम्मा ने सरसों का तेल , पीसी हल्दी और प्याज़ गरम कर के पैर में बांध दिया.
गाँव में अनगिनत विषय ऐसे हैं जो पढ़ाये नहीं जाते , प्रकारांतर से मिल जाते हैं। संयुक्त परिवार और विनमय से बंधे समाज का यह गुण है कि वह स्वच्छन्दता की हद तक स्वतंत्र होने की छूट देता है। विशेष कर बच्चों को। मौसम , अन्न , दरख़्त , औरत , मर्द , वग़ैरह वग़ैरह पाठ्यक्रम के विषय नहीं होते थे , गाँव को बच्चों को यह ज्ञान स्वानिभूत से मिलता रहता रहा , अब धीरे धीरे शहर यह सब मिटा रहा है।
हल्दी बचपन में ही मिल गई थी.
– सुखदेव बनिया के दुकान से दुइ गाँठ हरदी लेइ.
ले , जल्दी कर बटुली का दाल ख़ुदबुदात बा.
ज जल्दी कर , लप्प से आव!
गणित , विशेषण , संज्ञा सब अनजाने में मिल रहा था।
“ लप्प “ अब तक समझ में नहीं पाया हूँ , वक्त नापने की यह इकाई आयी कहाँ से ? लेकिन बचपन में समझता था , लप्प का मतलब जल्दी।
हल्दी नज़दीक आती गई। खाने में हल्दी का इस्तेमाल औषधीय गुण की वजह से होता आया है यह जवान होने के बाद समझ में आया। हल्दी के तुफैल ने यह भी बताया कि वो औरतें “ लौधर “ होती हैं जो साग में भी हल्दी डालती हैं , और वो पुरुष पाजी होता है जो थाली में आये भोजन में कमी खोजने के लिये , साग में हल्दी नहीं पड़ने की शिकायत करता है।
पीढ़ियों से हम हल्दी खाते आये हैं , अब अन्दाज़ लगाइये हमारे पुरखे कितने खोजी थे , आज निकम्मी बैठी पीढ़ी उस पीढ़ी को अज्ञानी और असभ्य बताती है। हल्दी का एक और गुण है यह ऐंटी सेप्टिक है। यह हमारे रश्मो रिवाज में , बा अदब आकर अपनी जगह बना ली है।
गोड़फुलना अपने निकम्मे देवर को ताना मार रही हैं.
-इही सहूरे ( इसी सऊर से ) गाँड़ में हरदी ना लगी, जवानी लटक के (बहुत फूहड़ बात बोली ).
भौंकी बीनती पतरकी क घूँघट कसमसान , उ फिस्स से हँस पड़ी।
बचपन ने नोट किया – हल्दी नहीं लगने का मतलब होता है शादी का न होना। शादी का हल्दी से बहुत पूराना और जीवंत उत्साही रिवाज रहा है। वर बधू दोनों को लगता है। हल्दी गीत होता है। नाच गाना होता है। औरतों का अस्तित्व उफ़ान पर पहुँचता है। हल्दी आगे बढ़ती है। बहू की चुनरी और वर का जामा जोड़ा सफ़ेद सूती धोती से बनता रहा है अब रिवाज में तब्दीली आयी है।
हल्दी महगी हो गई
– किसान हो ?
– जी !
– जमीन है ?
– है !
– तो पैदा करो , एक कूला खेत का टुकड़ा और लगा दिया।
खेत देखिये , हल्दी का पौधा देखिये , हल्दी का गाँठ देखिये ,और उन्हें देखिये जो हल्दी न लगे होने का ऐलान करते हैं।