~ नीलम ज्योति
आर्मीमैन सुखदेव छुट्टी बिताने गांव आ रहा था. शहर से गांव की दूरी अच्छी-खासी थी. शाम को ट्रेन से उतरा. गांव तक आते-आते रात रात हो गई.
गांव की सीमा में एंट्री लेते ही उसके पाँव थिठक गए. सामने लाश पड़ी थी. खून से लथपथ लाश. जाकर देखा तो और भी विचलित हो उठा. खून अभी-अभी हुआ था. शरीर से खून बहना अभी बंद नहीं हुआ था.
इधर- उधर नज़र दौड़ाई तो नकाबपोश हत्यारा गांव की तरफ तेजी से भागता नज़र आया. उसने उसे आवाज देते हुए दौड़ लगाई, लेकिन उसे पकड़ने की उसकी कोशिस नाकाम रही. वह भाग चुका था.
आर्मीमैन अपना बैग उठाने वापस लाश के पास आता है. इसके पहले की वह कुछ सोच पाता, घर लौट रहा पत्रकार दिनेश वहाँ आ जाता है.
वह उसे ही कातिल घोषित कर देता है. बावज़ूद इसके की पत्रकार और आर्मीमैन दोनों बचपन के मित्र होते हैं.
सुखदेव दिनेश से कहता है :
~ दीनू, मैं इसे क्यों मरूंगा. कोई तो मोटीव होना चाहिए. यह मर्डर है भाई. तू तो मेरे बचपन का मित्र है. अच्छी तरह जानता है मुझे.
~ वो तो ठीक है सुक्खू. हम मित्र अभी भी हैं. तू ऐसा कुछ कर सकता है, मुझे यकीन नहीं होता. लेकिन मैं आँखों देखा सच झुठला नहीं सकता.
~ कौन सा आँखों देखा सच. तुमने मुझे इसे मारते हुए देखा क्या?
~ यहां दूर-दूर तक कोई नहीं है. हत्या अभी हुई है. तुम मौज़ूद हो मौके पर. इसके पहले की तुम यहां से नौ दो ग्यारह होते, मैं आ गया.
~ अच्छा. और मोटीव? मैं इसे क्यों मरूंगा. मैं तो इसे जानता तक नहीं.
~ हुई होगी किसी बात को लेकर तकझक. गुस्सा आ गया होगा तुमको. हर कर्म-कुकर्म का मोटीव ही हो, यह जरूरी तो नहीं.
~ हद हो गई यार. तुम इतने समझदार हो. पत्रकार हो. तकझक में किसी की जान ली जाती है क्या?
लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है पत्रकारिता. असली कातिल तक पहुंचने का प्रयास हमें करना चाहिए. तुम तो मुझे ही…
~ जब सबकुछ मेरी आँखों के सामने है तो समय क्यों नष्ट करना. तुम निर्दोष सिद्ध कर देना खुद को. तब कातिल खोजना पुलिस का काम होगा. मेरी नज़र में तो तुम ही हो कातिल
~ तो ऐसे न्यूज़ बनाते हो तुम पत्रकार लोग?
~ तुम गलत समझ रहे हो. ख़ैर! मुझे मेरा फ़र्ज़ निभाने दो.
पत्रकार पुलिस को फोन कर देता है.
पुलिस आ जाती है. सुखदेव दरोगा को अलग ले जाकर सब समझाता है. दरोगा कहता है :
~देखो सर, आप आर्मी में हो. सीमा पर दुश्मनों से देश की रक्षा करते हो. आपकी वज़ह से ही हम सुकून से रह पाते हैं. लेकिन मैं कुछ नहीं कर सकता आपके लिए.
~ तो आप एक बेकसूर को फसाकर अच्छा करोगे. आप यह कर सकते हो?
~ नहीं. कोई आम आदमी होता तो हम उसकी बात पर यकीन नहीं करते. वो पत्रकार है, आपका मित्र भी है. मेरी नौकरी खतरे में पड़ेगी. आरोप लगेगा की पुलिस पैसे खाकर अपराधी को छोड़ दी.
~ इसका मतलब मैं अपराधी सिद्ध हो गया.
~ नहीं. आप थाने चलो. पत्रकार सर भी चलेंगे. इसलिए की वे खुद को चस्मदीद गवाह बता रहे हैं. वहाँ जरूरी फॉर्मेलिटी पूरी होगी. अपराधी – निरपराधी सिद्ध करना कोर्ट का काम है.
थाने में, एक थानेदार को देखकर सुखदेव के मन में आशा की एक किरण उभरती है. वह थानेदार, उसे बांहों में भर लेता है. वह भी उसके बचपन का मित्र होता है. मतलब आर्मीमैन, पत्रकार, थानेदार तीनों बचपन के गहरे मित्र निकलते हैं.
सुखदेव पूछता है :
~चित्रसेन, तुम अपने ही क्षेत्र में थानेदार कैसे?
~ नहीं यार, मेरी पोस्टिंग कहीं और है. किसी केस के सिलसिले में यहां विजिट किया हूँ. लेकिन मैं यहां के थानेदार को बोलूंगा की तुम्हारे साथ नरमी बरतें, बिल्कुल भी सख़्ती नहीं बरतें.
~ ओह! लेकिन मैंनें खून नहीं किया. कुछ करो यार. इस मूर्ख पत्रकार दिनेश से बात करो. मुझे नाहक फसा रहा है.
~ चलो हम तीनों कहीं अलग बैठकर बात करते हैं. हम दोस्त हैं. समझते हैं माज़रा क्या है.
तीनों थाने के परिसर में स्थित मंदिर के प्रांगण में जाकर बैठते हैं. थानेदार पत्रकार से कहता है :
~ दीनू, हम तीनों बचपन के अज़ीज़ दोस्त हैं. एक-दूसरे के राजदार. हमारी दोस्ती, जनहितैशी भावना और ईमानदारी के किस्से आज भी गांव में गूंजते है. मुझे नहीं लगता की सुक्खू ने क़त्ल किया होगा. कोई वज़ह भी तो नहीं दिखती यार.
~ हाँ मीतू, मैं तुम्हारी बात से सहमत हूँ. सुक्खू ऐसा कैसे कर सकता है. लेकिन आँखों देखा सच मैं नहीं झुठला सकता यार.
~ तुमने इसे खून करते देखा है?
~ नहीं, लेकिन मौका-ए-बारदात पर सिर्फ़ यही थे. रात का समय था. दूर दूर तक भी कोई नज़र नहीं आया. मेरी जगह तुम होते तो क्या करते?
~ हम दोस्त हैं. एक – दूसरे के व्यक्तित्व से परिचित हैं.
~ हां, लेकिन दोस्ती निभाने से ज्यादा जरूरी होता है समाज और देश के प्रति कर्तव्य निभाना. गलत काम में साथ देना मित्रता का तकाज़ा नहीं होता. आई एम सॉरी मित्र.
सुखदेव को लॉकअप में डाल दिया जाता है.
अगले दिन अख़बार की लीड-स्टोरी इसी टॉपिक पर बनती है. उसमें यह भी दिखाया जाता है की, कातिल ने पत्रकार को एक लाख रूपये का ऑफर देकर चुप रहने को कहा था.
सुखदेव को जाँच के सिलसिले में घटना स्थल पर और गांव में मृतक के ठिकाने पर भी ले जाया जाता है.
मृतक गांव के मुखिया ठाकुर साहब का ड्राइवर होता है. ठाकुर साहब यहां खुद न्यायाधीश माने जाते हैं. अच्छा-खासा दबदबा है उनका. पुलिस- अदालत का नंबर ही नहीं आता गांव के मामले में.
तय होता है की पंचायत बैठेगी. फैसला यहां होगा.
सुखदेव कहता है की, मैं कातिल का चेहरा नहीं देख पाया. रात थी, कातिल नकाब भी पहना था. उसे मैं भागते हुए पीछे से देखा हूँ. इतनी ट्रेनिंग तो मुझे मिली है की चालढाल से भी मैं पहचान सकता हूँ. पंचायत में गांव के सभी पुरुषो को बुलाया जाये. बारी-बारी से उनको चलाया जाये. मैं कातिल की शिनाख्त करूंगा. सच तो पुलिस उससे उगलवा ही लेगी.
इस बात पर सभी सहमत हो जाते हैं.
निर्धारित नियम के तहत सभी को बारी- बारी से चलाया जाता है. आर्मीमैन को एक भी पुरुष अपराधी जैसा नहीं मिलता.
अब वह मुखिया से कहता है :
सिर्फ़ आप बचे हैं ठाकुर साहब. क्या आप भी चलकर दिखाएंगे?
ठाकुर साहब भड़क जाते हैं :
तेरी इतनी हिम्मत! दो टके का आदमी, तू मुझ पे ऊँगली उठाता है? मेरे ड्राइवर का खून हुआ है. मैं उसे क्यों मरुँगा? वह एक अदना-सा नौकर था. मैं तो प्रजापालक हूँ.
सब चुप रहते हैं. एक पढ़ालिखा नौजवान कहता है :
ठाकुर साहब! सॉरी. आप तो प्रजापालक हैं, गांव के मुखिया हैं, न्याय के देवता हैं. आपको तो सबसे पहले चलकर दिखाना चाहिए था.
इसने आपकी प्रतिष्ठा को चुनौती दी ही. अब बात गांव के, आपके सम्मान पर भी आ गयी है. और फिर सांच को आंच क्या..!
ठाकुर साहब चलकर दिखाते हैं तो सुखदेव उनको कातिल बता देता है. गांव के लोगों की बातों, सेचूएशन, पुलिस के प्रयास के बाद ठाकुर साहब सच कबूल लेते हैं.
वे बताते हैं :
मैंनें ड्राइवर को मेरी पत्नि के साथ आपत्तिजनक स्थति में रंगेहाथ पकड़ा था. मेरी इज्जत का सवाल था. क्या करता. कुछ नहीं बोला. बाहर से सबको माफ कर दिया, लेकिन भीतर से मेरा खून खौल रहा था. मैं इसे कहीं जाने के बहाने ले गया और रास्ते से हटा दिया. (चेतना विकास मिशन).