अग्नि आलोक
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*मत कर तू अभिमान रे बंदे*

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शशिकांत गुप्ते इंदौर

गांधीजी ने लोकतंत्र में चुनाव को लोक शिक्षण कहा है।
लोकतंत्र में लोक शिक्षण से तात्पर्य चुनाव के दौरान राजनैतिक दलों द्वारा अपनी रीति,नीति और सिद्धांतों के अनुरूप जनता के हित में अपना पक्ष रखना होता है।
चुनाव के दौरान राजनैतिक दलों द्वारा प्रस्तुत घोषणा पत्र में जो वादे किए जाते हैं,उनका व्यवहारिक क्रियान्वयन कैसे होगा,कितनी समयावधि में होगा,यह स्पष्ट होना चाहिए।
जब से व्यक्ति,सत्ता और पूंजी केंद्रित राजनीति का प्रचलन शुरू हुआ है,तब से येनकेनप्रकारेण सत्ता प्राप्त करना ही राजनैतिक दलों का शग़ल बन गया है।
तकरीबन सभी दलों के घोषणा पत्रों में जनता की भलाई के लिए मानो प्रतिस्पर्धा होती है।
घोषणा पत्र में जनहित के लिए लोकलुभावन घोषणाओं के साथ अब तो रेवड़ियां बांटने में भी कोई किसी से कम नहीं है।
अहम प्रश्न तो यह है कि, रेवड़ियां बांटने के लिए,धन जिस खजाने से लिया जाता है,वह खजाना तो जनता का ही है,अर्थात जनता के पैसों से ही भरा जाता है।
समाजवादी चिंतक,विचारक,
स्वतंत्रता सैनानी,*डॉक्टर राम मनोहर लोहियाजी ने तो यहां तक कहा है, कि, सत्ता परिवर्तन तो अँगीठी पर बनने वाली रोटी जैसा होना चाहिए। *जिस तरह अँगीठी पर रोटी ऊलटने ,पलटने के बाद फूलती और पकती है, उसी तरह बार बार सत्ता परिवर्तन से सत्ता में विराजित लोगों में परिपक्वता आएगी।*
एक दल की सत्ता निरंतर बने और एक ही व्यक्ति को योग्य समझा जाए तो उस व्यक्ति में गुरुर आना स्वाभाविक है।
गुरुर किए व्यक्ति की मानसिकता कैसी हो सकती है,यह बात स्पष्ट होती है। शायर शहाब जाफ़री रचित निम्न शेर में।
चले तो पाँव के नीचे कुचल गई कोई शय
नशे की झोंक में देखा नहीं कि दुनिया है
ऐसा व्यक्ति दुनिया को शय मतलब कोई वस्तु या लेटनेवाला,या सोनेवाला कोई प्राणी समझता है।
ऐसा व्यक्ति सत्ता में आता तो है बहुत ही जोर शोर से,मतलब शोर शराबे के साथ लेकिन पीतल पर चढ़ा सुवर्ण का मुलम्मा अंतः उतर ही जाता है।
जो हश्र होता है,वह शायर
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद रचित शेर को पढ़ने पर ज्ञात होता है।
जिन सफ़ीनों ने कभी तोड़ा था मौजों का ग़ुरूर
उस जगह डूबे जहाँ दरिया में तुग़्यानी न थी
(सफ़ीना=नाव। तुग़्यानी=ठहरा हुआ पानी,अवरुद्ध पानी,जमा हुआ पानी)
किसी भी व्यक्ति को गुरुर का सुरूर होना खतरनाक मानसिकता है।
ऐसे व्यक्ति के लिए शायर वसीम बरेलवी फरमाते हैं।
आसमाँ इतनी बुलंदी पे जो इतराता है
भूल जाता है ज़मीं से ही नज़र आता है
समान्यज्ञान का उपयोग करने पर ऐसे व्यक्ति के लिए, शायर बशीर बद्रजी
रचित निम्न शेर प्रासंगिक है और शेर में सबक भी है।
ख़ुदा हम को ऐसी ख़ुदाई न दे
कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे
चुनाव लोक शिक्षण क्या,अब तो राजनेताओं की शिक्षा पर ही सवाल उठ रहे हैं? एक दूसरे पर फर्जी प्रमाण पत्र के आरोप लग रहें हैं?
उक्त आचरण लोकतंत्र के लिए खतरनाक है।
कोई कितना भी गुरुर कर ले,शोहरत का तमाशा पल भर का ही है।
शायर बशीर बद्रजी अपने निम्न शेर में यही तो फरमा रहे हैं।
शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा है
जिस डाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है
समय का इंतजार है बस?

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