दिलीप कुमार
स्मिता पाटिल समांतर सिनेमा का एक युग, सार्वकालिक हिन्दी सिनेमा में कला फ़िल्मों की ब्रांड एंबेसडर जब से सिल्वर स्क्रीन पर स्मिता पाटिल नाम का सूरज उदय हुआ, फिर अस्त ही नहीं हुआ. आज भी स्मिता पाटिल के अभिनय की प्रतिभा किरणें भाव – विभोर कर देती हैं. स्मिता जितना ही सीरियस अभिनय करती थीं, उतना ही सकारत्मक भाव भी उकेरती थीं. सिनेमा में आते ही प्रभावी दिखीं. उनकी प्रत्येक फिल्म सामजिक चेतना के लिए पथ प्रदर्शन का काम करती रहेगी. उस दौर में मार – धाड़ वाली फ़िल्मों का दौर था, इनसे पहले भी कला फ़िल्में बनती रहीं हैं, लेकिन स्मिता पाटिल का युग समानांतर सिनेमा के लिए स्वर्णिम काल रहा है. व्यापारिक दौर में सिल्वर स्क्रीन पर स्मिता पाटिल बनना आसान नहीं है, बहुत तकलीफ़ देह है. जब फिल्मी पर्दे पर आने के लिए सबसे ज्यादा बाहरी आवरण देखा जाता हो, रूप रंग को प्राथमिकता दी जाती हो, साँवली ल़डकियों को कुरूप माना जाता हो, रही कसर बाज़ार पूरी कर देता है, तब स्मिता पाटिल बनना मतलब पूरी व्यवस्था उलट – पलट कर देना है.
सत्तर के दशक में सिनेमा भी प्रतिभा के अनुसार दो भागों में विभाजित था. प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई, सुभाष घई आदि ये सब व्यपारिक फ़िल्में बना बना रहे थे. दूसरी तरफ़ शक्ति सामंत, यश चोपड़ा भी रोमांस के जरिए अपनी प्रतिभा बिखेर रहे थे. मूल अभिनय पर श्याम बेनेगल, वासु भट्टाचार्य, ऋषिकेश मुखर्जी, वासु चटर्जी, गोविंद नेहलानी आदि समानान्तर सिनेमा के लिए नायाब फ़िल्में बना रहे थे. हिन्दी सिनेमा कला फ़िल्मों को अलग कर दिया जाए ,तो शायद हिन्दी सिनेमा में देखने-सीखने के लिए कुछ नहीं होता. सही मायने में देखा जाए तो व्यापारिक सिनेमा की पूर्णकालिक इज्ज़तअफजाई समानान्तर सिनेमा के कारण हुई, कई बार आलोचनात्मक रूप से समानान्तर सिनेमा ने उसकी फूहड़ता आदि को बचा लिया है. आलोचना करने वाले कहते हैं, ऐसा नहीं है, जन सरोकार की फ़िल्में भी बनती हैं. समानान्तर सिनेमा नहीं होता तो मेरा व्यक्तिगत रूप से सिनेमा से कोई जुड़ाव नहीं होता.
यूँ तो स्मिता पाटिल के कॅरियर की शुरुआत एक न्यूज रीडर के रूप में हुई. सत्तर के दशक में दूरदर्शन के लिए न्यूज पढ़ती थीं. आखिकार 1974 में स्मिता पाटिल ने हिन्दी सिनेमा में पदार्पण किया. फिर पीछे मुड़कर देखता कौन है. मूलतः दमदार अभिनय का ही कमाल था, कि वह कुछ ही सालों में न सिर्फ मराठी एवं हिन्दी सिनेमा का सशक्त चेहरा बन गईं.
जीवन में हर किसी का कोई न कोई गॉड फ़ादर तो होता ही है. स्मिता पाटिल को खोजने का श्रेय श्याम बेनेगल को जाता है. श्याम बेनेगल हिन्दी सिनेमा के लिए नायाब तोहफ़ा स्मिता पाटिल को फ़िल्मों में लेकर आए. कॉलेज में अध्ययन कर रहीं, स्मिता ने मराठी टेलीविजन में काम करना शुरू किया. उसी दौरान निर्माता-निर्देशक श्याम बेनेगल से उनकी मुलाकात हुई. श्याम बेनेगल उन दिनों अपनी फ़िल्म ‘चरणदास चोर’ बनाने की तैयारी में थे. श्याम बेनेगल को स्मिता पाटिल में एक उभरता हुआ सितारा दिखाई दिया, जिनसे वो बेहद प्रभावित हुए. श्याम बेनेगल को मद्धम रंग की बड़ी आँखों वाली स्मिता पाटिल खूब पसंद आईं. अतः उन्होंने अपनी फ़िल्म में स्मिता पाटिल को एक छोटी-सी भूमिका निभाने मौका दे दिया. स्मिता के लिए भी दिखाने के लिए बेहतरीन मौका साबित हुआ.
भारतीय सिनेमा जगत में ‘चरणदास चोर’ को ऐतिहासिक फ़िल्म के तौर पर मुक्कमल अभिनय के लिए जाना जाता है. इसी फ़िल्म के माध्यम से श्याम बेनेगल और स्मिता पाटिल के रूप में कलात्मक फ़िल्मों के एक युग का आगमन हुआ. श्याम बेनेगल ने स्मिता पाटिल के बारे में एक बार कहा था – “मैंने पहली नजर में ही समझ लिया था कि स्मिता पाटिल में गजब की स्क्रीन उपस्थिति है.जिसका उपयोग सिल्वर स्क्रीन पर किया जा सकता है.” फ़िल्म ‘चरणदास चोर’ हालांकि बाल फ़िल्म थी, लेकिन इस फ़िल्म के जरिए स्मिता पाटिल ने बता दिया कि हिन्दी फ़िल्मों में ख़ासकर समानान्तर सिनेमा में एक नया नाम स्मिता पाटिल आ चुकी हैं, जो मूलत: अभिनय में पारंगत हैं.
श्याम बेनेगल ‘निशांत फिल्म बना रहे थे, उनके लिए स्मिता से अच्छा नाम कौन हो सकता था, स्टार कास्ट में कला उस्तादों की पूरी फ़ौज के होते हुए ‘निशांत’ में काम करने का मौका मिला. स्मिता पाटिल ने अपनी मौजूदगी दर्ज करायी. स्मिता के सिने कैरियर में 1977 मील का पत्थर माना जाता है. ‘भूमिका’ और ‘मंथन’ जैसी सफल कला फ़िल्में आईं, स्मिता पाटिल के अभिनय कौशल से पूरा हिन्दी सिनेमा सराबोर हो गया था. दुग्ध क्रांति पर बनी फ़िल्म ‘मंथन’ में स्मिता पाटिल के अभिनय के नए रंग दर्शकों को देखने को मिले. यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट हुई. स्मिता की कोई सिग्नेचर फिल्म नहीं है, उनकी प्रत्येक फिल्म उनकी सिग्नेचर फिल्म हैं, इन फ़िल्मों में प्रतिभा बिखरने के बाद स्मिता पाटिल को चुनिंदा कला फ़िल्मों में काम करने को मिला. एक लॉबी ही बन गई थी, कि कला फिल्म के लिए हिरोइन चाहिए तो स्मिता पाटिल, शबाना आज़मी, दीप्ति नवल, इला अरुण, आदि से पूछिए.
1977 में ही स्मिता की ‘भूमिका’ भी प्रदर्शित हुई, जिसमें उन्होंने दशक में मराठी रंगमच की अभिनेत्री हंसा वाडेकर की निजी ज़िंदगी के किरदार को निभाते हुए, अपनी अभिनय क्षमता दिखाई. ‘मंथन’ और ‘भूमिका’ जैसी फ़िल्मों में उन्होंने कलात्मक फ़िल्मों के महारथी नसीरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी, दीप्ति नवल, अमोल पालेकर, नाना पाटेकर, अमरीश पुरी, गिरीश कर्नाड, कुलभूषण खरबंदा, जैसे कलाकारो के साथ काम अभिनय करते हुए खुद को स्थापित किया. उन्होने मंथन, भूमिका, आक्रोश, चक्र, मिर्च मसाला जैसी फिल्मों में काम किया. स्मिता को महान् सत्यजीत रे के साथ भी काम करने का मौका मिला. मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित टेलीफ़िल्म ‘सदगति’ उनके द्वारा अभिनीत श्रेष्ठ फ़िल्मों में आज भी माना जाता है, सद्गति महान सत्यजीत रे की ही नहीं पूरे सिनेमा की विरासत है, एवं उसकी आत्मा स्मिता पाटिल ही थीं. चक्र फिल्म में अपना कालजयी अभिनय किया. इसके साथ ही फ़िल्म ‘चक्र’ के लिए उन्हें दूसरी बार ‘राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया.
अस्सी के दशक में स्मिता पाटिल ने व्यपारिक फ़िल्मों में भी काम किया. अमिताभ बच्चन के साथ ‘नमक हलाल’ और ‘शक्ति आदि फ़िल्मों में काम किया. जिसकी सफलता ने स्मिता पाटिल को व्यपारिक सिनेमा में भी स्थापित कर दिया अस्सी के दशक में स्मिता पाटिल ने व्यपारिक सिनेमा के साथ-साथ समानांतर सिनेमा में भी अपना बेह्तरीन संतुलन बनाए रखा. इस दौरान उनकी ‘सुबह’ ‘बाज़ार’, ‘भींगी पलकें’, ‘अर्थ’ , ‘अर्द्धसत्य’ और ‘मंडी’, जैसी कलात्मक फ़िल्में और ‘दर्द का रिश्ता’, ‘कसम पैदा करने वाले की, ‘आखिर क्यों’, ‘ग़ुलामी’, ‘अमृत, ‘नजराना’ और ‘डांस-डांस’जैसी व्यावसायिक फ़िल्मों में काम किया. जिसमें स्मिता के अभिनय के विविध रूप दर्शकों को देखने को मिले. स्मिता ने सिद्ध कर दिया था कि व्यवसायी कलाकार समानान्तर फ़िल्मों में भले ही काम न कर सकें, लेकिन कला अभिनय वाले व्यपारिक फ़िल्मों में काम कर सकते हैं, प्रत्येक समान्तर सिनेमा के कलाकार ने यह साबित किया है, इसीलिए समानान्तर सिनेमा को मूलत : सिनेमा कहा जाता है .
स्मिता विद्रोही स्वभाव के कारण खुलकर बोलने वाली महिला थीं, शक्ति फिल्म के सेट पर किसी ने उनसे इंटरव्यू करते हुए पूछा, कि आप दिलीप साहब से कितना कुछ सीखती हैं? स्मिता जवाब देती हैं बहुत सीख रही हूँ, हालांकि बता नहीं सकती की क्या सीखा, लेकिन बोध है, सम्प्रेषक ने फिर पूछा आपने दिलीप साहब की कितनी फ़िल्में देखी हैं? आपकी कौन सी पसंदीदा हैं? दिलीप साहब भी पीछे बैठे सुन रहे थे, स्मिता जवाब देती हैं इसको बोलने के लिए ईमानदारी और ज़ज्बा चाहिए. स्मिता पाटिल जवाब देतीं हैं, कि मैंने आजतक दिलीप साहब की कोई फिल्म देखी ही नहीं है, कहा जाता है कि दिलीप साहब जब से पर्दे पर सक्रिय रहे उनके बाद के या पहले के कोई भी कलाकार उनकी अभिनय शैली से खुद को बचा नहीं सके, एक कहावत थी, कि हिन्दी सिनेमा में हर किसी के अंदर थोड़ा दिलीप कुमार हैं, लेकिन स्मिता पाटिल ने सच कह दिया हालांकि दिलीप साहब के सामने अपने नंबर बढ़ाने के लिए वो बोल सकती थीं, जो मानवीय स्वभाव होता है… हालाँकि ज़ज्बे का नाम स्मिता पाटिल था. ईमानदारी सुनने के बाद दिलीप साहब ने स्मिता पाटिल को खूब साराह था. स्मिता पाटिल भी दिलीप साहब के बड़े दिल की फैन बन चुकी थीं. शक्ति फिल्म में स्मिता पाटिल ने दिलीप साहब, अमिताभ बच्चन & अनिल कपूर तीन पीढ़ी के अलग – अलग ध्रुवो के बीच कैसे खुद की चमक बिखेरी, यह उनकी प्रतिभा का एक रूप था.
स्मिता अभिनय को परखने में भी उस्ताद थीं, नाना पाटेकर को फिल्मों में लाने का श्रेय स्मिता पाटिल को जाता है. नाना पाटेकर बताते हैं कि मैं फ़िल्मों में काम नहीं करना चाहता था, क्योंकि सच्चाई स्वीकारने में तकलीफ़ तो हुई,कि मेरे जैसे औसतन रंग रूप का व्यक्ति कैसे हीरो बन सकता है! हालांकि मैं थियेटर में बहुत खुश था, क्योंकि अपनी अभिव्यक्ति व्यक्त करने का माध्यम था, स्मिता को याद करते हुए नाना बताते हैं कि वे फ़िल्मों में स्मिता की वजह से आए थे. फिल्म ‘आज की आवाज़’ में स्मिता ने फिल्मकार रवि चोपड़ा से मेरी सिफारिश की थी. स्मिता पाटिल मेरी बहुत अच्छी दोस्त थीं. नाना हंसते हुए बताते हैं, “मैं बड़े-बड़े डायलॉग आसानी से रट लिया करता था, तब स्मिता कहती थी ‘कैसे रट लेता है रे इतने आसानी से इतने बड़े-बड़े डायलॉग, नाना पाटेकर कहते हैं “स्मिता पाटिल अगर होती तो निश्चित रूप से उनके जैसा दूसरा कोई होता नहीं, मूलतः अभिनय में स्मिता पाटिल का कोई जवाब नहीं हैं बेमिसाल थीं.नाना और स्मिता ने ‘आवाम’ और ‘गिद्द’ जैसी फिल्मों में साथ काम किया है.
स्मिता पाटिल बनना इसलिए भी कठिन है, कि उनके लिए सहूलियतें नहीं थीं, उनके पिता महाराष्ट के जाने माने नेता थे, फ़िल्मों में काम करना भी एक प्रकार से घर से बगावती होने की भी बहुत गुंजाईश होती थी. प्रखर नारीवादी स्मिता ने हर वो नैतिक काम किया जो उनके आड़े आ रहा था. स्मिता पाटिल एवं शबाना आज़मी दोनों में एक फर्क़ है. शबाना आज़मी के लिए कोई बंदिशें नहीं थीं, लिटरेचर जन सरोकार के उच्च मानक उन्हें बचपन से ही मिले, जबकि स्मिता पाटिल का बचपन में जन सरोकार, मुफलिसी, संजीदगी आदि से क्या लेना देना हो सकता था, वहीँ शबाना आज़मी की जीवन शैली ही यही थी. स्मिता पाटिल & शबाना आज़मी दोनों शहरी मिजाज़ की लड़की थीं. दोनों ने गांव, शहर, मुफलिसी अमीरी, सब पर्दे पर जिया, चूंकि शबाना के लिए यह सहज था, इससे पहले उनकी जिंदगी बहुत साधारण थी, वही स्मिता पाटिल इतनी साधारण तो नहीं थीं, एक मंत्री रईस खानदान की सुपुत्री होते हुए भी मुफलिसी, तंगहाली, गांव आदि को दिखाते हुए इतनी सहज यही उनकी अभिनय कला बहुत प्रभावित करती है. स्मिता पाटिल & शबाना आज़मी दोनों समानान्तर सिनेमा में पूरा का पूरा युग हैं. दोनों मेरी ऑल टाइम फेवरेट हैं, लेकिन जब भी दोनों में एक चुनना होगा स्मिता को चुनना चाहूँगा. आज के दौर में फेस क्रीम आदि के विज्ञापन के लिए जब साँवले रंग को श्राप के रूप में बता कर मोटा मुनाफा कमाने के घृणित उपाय होते हैं, तो स्मिता पाटिल याद आती हैं, जब उनको देखते हुए उनका सांवला रंग ही आकर्षण का केंद्र होता था. सांवला रंग भी आकर्षक होता है, स्मिता पाटिल ने इस कुंठित समाज़ को बताया .
श्याम बेनेगल भी साँवले रंग के चेहरे पर मुस्कान एवं प्रभावी आवाज़ को देखकर सुनते हुए दृढ़ संकल्पित हुए कि इससे सशक्त आवाज़ नहीं हो सकती.
स्मिता की कला फ़िल्मों को देखने से पहले उनकी व्यवसायिक फ़िल्में ज़रूर देखना चाहिए, उनकी कला फ़िल्में देखकर तो कोई भी उनका फैन बन सकता है, यह तो औपचारिक सी बात है. शक्ति, नज़राना, आखिर क्यों, आदि उनकी फ़िल्मों में स्मिता पाटिल ने भारतीय गृहणी एवं भारतीय महिला के रोल में अमिट छाप छोड़ी है. ख़ासकर नज़राना फिल्म में स्मिता जी के साथ राजेश खन्ना & श्रीदेवी होती हैं, फिल्म प्रेम से ज्यादा मानवीय जीवन की सच्चाई को बयां करती है, कोई भारतीय महिला जो गृहणी होती है, स्मिता पाटिल जी को नज़राना में देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है, मैंने एक बार नज़राना देखी थी, जब फ़िल्मों सामजिक, मानवीय मूल्यो का बिल्कुल भी कुछ पता नहीं था, हालांकि तब तक राजेश खन्ना & श्रीदेवी पसंदीदा थे, स्मिता पाटिल के बारे में बिल्कुल भी पता नहीं था, जैसे आसपास कोई घरों में महिलाएं होतीं हैं, स्त्रीत्व दिखता है, बल्कि बच्चे गौर करते हैं, मेरे लिए गौर करने की वज़ह स्मिता जी राजेश खन्ना के पत्नी के रोल में थीं, वो भी साँवली सी औसतन चेहरा सहसा मन में एक प्रश्न उठा, ऐसी कौन सी हीरोइन होती हैं, हीरोइन तो श्रीदेवी, मधुबाला जैसी होती हैं, शुरू में बहुत गुस्सा आता क्योंकि चैनल बदलने का कोई ऑप्शन नहीं था. मजबूरन फिल्म देखा पूरी फिल्म देखने के बाद पता चला कि क्यों फिल्म में श्रीदेवी से ज्यादा स्मिता पाटिल को जगह मिली, स्मिता जी व्यपारिक फ़िल्मों में भी उस्ताद थीं, यह मेरे बालमन से एक अमिट छाप है, कि स्मिता जी क्यों इतनी प्रभावी रहीं हैं. स्मिता जी नारीवादी होने के साथ ही स्त्रीत्व को क्या खूब प्ले करतीं थीं, उनका ग़ज़ब का अभिनय का एक क्लास था.
स्मिता को हर वो मुकाम हासिल है, जो उनको मिलना चाहिए. स्मिता पाटिल की छोटी सी एक ही दशक की सिनेमाई यात्रा में हर वो रंग शामिल है, जो उनको मूलत: अभिनय में पूरा संस्थान सिद्ध होती हैं, स्मिता पाटिल का एक – एक डायलॉग, एक – एक संवाद आज के दौर में सिनेमैटोग्राफी सीख रहे बच्चों के लिए, पूरा का पूरा पीएचडी है. स्मिता पाटिल हिन्दी सिनेमा में कितनी सशक्त आवाज़ हैं, कितनी महान महिला एवं ग्रेट अभिनेत्री हैं, इसका मानक है, लोगों को अवॉर्ड पाने की चाहत होती है, वहीँ स्मिता पाटिल के नाम से इतना बड़ा सम्मान दिया जाता है, स्मिता पाटिल मेमोरियल अवार्ड 1986 में प्रियदर्शनी अकादमी द्वारा अभिनेत्री स्मिता पाटिल की स्मृति में स्थापित किया गया. वहीँ सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए स्मिता पाटिल मेमोरियल अवार्ड समारोह से पहले की अवधि में भारतीय सिनेमा में उनके योगदान के लिए, किसी विशेष प्रदर्शन के बावजूद, वैश्विक स्तर पर पहिचान कमाने के बावजूद भी स्त्री विमर्श पर क्या महत्वपूर्ण कार्य किया है,इन मानकों पर खरा उतरने के बाद यह सम्मान मिलता है. यह सम्मान आयोजन ही सिद्ध करता है, कि स्मिता पाटिल से ज्यादा बहुमुखी महिला भारतीय सिनेमा में दूसरी कोई नहीं है. यह हर दूसरे वर्ष एक भारतीय अभिनेत्री को प्रदान किया जाता है.
कैटरीना कैफ को स्मिता पाटिल मेमोरियल अवार्ड मिलना भी विवाद का कारण बना, कटरीना अपनी अभिनय क्षमताओं के लिए प्रसिद्ध नहीं है. सोशल नेटवर्क पर प्रेस और जनता दोनों द्वारा व्यापक आलोचना मिली. लोगों ने कटरीना को अवार्ड दिया जाना स्मिता पाटिल का घोर अपमान बताया, और बहस छिड़ गई कि पिछले सभी प्राप्तकर्ताओं का मजाक उड़ाया गया है, हालांकि विवाद तो होते ही रहते हैं, कटरीना कैफ ने कुछ तो सकारात्मक अपने सिने यात्रा में किया ही होगा कि उनको प्रतिष्ठित अवॉर्ड के लिए चयन किया गया. हालाँकि स्मिता जी आज जिवित होतीं तो फब्तियां कसने वालों को करारा जवाब देतीं और बताती, कि कैसे समाज ने महिलाओं के लिए सहूलियतें नहीं छोड़ी. नारी सशक्तिकरण का सबसे बड़ा चेहरा स्त्रीत्व का सबसे प्रतिष्ठित नाम स्मिता पाटिल जी हर दिन याद आती हैं, अपनी फ़िल्मों के जरिए कभी सामजिक उथल – पुथल के बीच उनका सांवला आकर्षक चेहरा झूलता रहता है. स्मिता पाटिल केवल अभिनय के लिए ही नहीं स्त्री विमर्श में भी हमेशा याद आती रहेंगी. सबसे ज्यादा पसंदीदा महिलाओं में स्मिता जी के जन्मदिन पर नमन…………