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नज़ीर हुसैन की याद 

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गोपाल राठी पिपरिया 

‘‘नजीर हुसैन’’ जिन्हे इनके चाहने वाले भोजपुरी सिनेमा के भीष्म पितामह कहते हैं और इन्होने Bollywood की फ़िल्मो मे भी काम किया है.. पर इनके ज़िन्दगी का एक पहलु और भी है की ये मुजाहिद ए आज़ादी थे वे नेताजी सुभाषचंद्र बोस के सैनिक थे …!

हिन्दी सिनेमा के दर्शकों के लिए नजीर हुसैन का नाम आते ही पिता की भूमिका में उनके निभाये जाने कितने ही किरदार स्मरण में आ जाते हैं। उन्हें ‘आरज़ु’ में नायिका साधना के पिता के रोल में याद करते ही उनके एक से एक संवाद ताजा हो जाते हैं। एक द्दश्य में रोते हुए वे कहते हैं, “अगर बेटी का भला सोचना बाप के लिए गुनाह है, तो मैं तुम्हारा गुनहगार हुँ, बेटी। और भी जितना कहना है कहो… कुछ और ताने मारो।” जब हीरो राजेन्द्र कुमार साधना को पहचानने से इनकार कर चल देता है, तब अपनी बेटी के आग्रह के खिलाफ पिता उसे यह कहकर नहीं रोकते कि “जो ठोकर मारकर चला गया, उस से भीख मांगने से कुछ नहीं मिलेगा, उषा… कुछ नहीं मिलेगा!” उसी फिल्म में “छलके तेरी आंखों से शराब और जियादा…” गीत के दौरान ‘वाह वाह’ करते नजीर हुसैन हो या ‘राम और श्याम’ में दिलीप कुमार के हंसी-मजाक वाले संवादों पर ठहाके लगाते नजीर हुसैन हों हर प्रकार के अभिनय में एक सच्चाई होती थी।

लेकिन उनके हिस्से बहुधा हीरोइन के पिता की करूण भूमिकाएं ज्यादा आतीं थीं। कुछ ऐसी ही स्थिति आजकल आलोकनाथ की कही जा सकती है, जो भी एक दुरूखी पिता के काफी रोल कर चूके हैं। उसी नजीर हुसैन को देव आनंद की ‘प्रेम पूजारी’ में परदे पर एक टांग वाले अपाहिज सैनिक बने और “ताकत वतन की हमसे है, हिम्मत वतन की हमसे है…” समूह गीत गाते देखने वाले कितने लोग जानते होंगे कि नजीर साहब असल जिन्दगी में भी अपनी युवानी में सैनिक बन चूके थे! वे देश की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेज हुकुमत के खिलाफ जंग लडने के लिए नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की बनाई ‘आजाद हिन्द सेना’ के सिपाही थे।

वैसे उनकी पहली नौकरी अपने पिताजी की तरह भारतीय रेल में की थी। नेताजी की सेना में वे बर्मा (आज के मयनमार) में पहुँचे थे। उस सेना का हौसला बढाने के लिए नजीर हुसैन उन दिनों नाटक लिखते भी थे और उन में अभिनय भी करते थे। इस लिए नेताजी भी उन्हें पसंद करते थे। यही वजह थी कि नेताजी ने उन्हें ‘आइ एन ए’ के प्रचार विभाग की बागडोर सोंपी थी। विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद आजाद हिंद सेना के अन्य सैनिकों के साथ जब उन्हें भी रिहा किया गया, तब अपने वतन उत्तर प्रदेश जाने के बजाय वे नजीर हुसैन भी अपने बंगाली दोस्तों के साथ कलकत्ता में स्थायी हो गए।

कलकत्ता में नेताजी के एक भाई ने नजीर जी को न्यू थिएटर्स में बी एन सरकार से मिलाया और अभिनय की गाडी भारत में भी चली। ऐसे ही एक शो में आये बिमल रोय ने नजीर हुसैन को देखा और उन से बातचीत से प्रभावित होकर बिमल दा ने आजाद हिन्द सेना की पृष्ठभूमि वाली ‘पहला आदमी’ बनाई। उस समय उनकी उम्र ३० साल की थी और नजीर हुसैन ने पिता का रोल इतने अच्छे से निभाया कि बिमल रोय ने ‘बोम्बे टॉकिज’ के लिए बनाइ अगली फिल्म ‘मां’ में भी पिता की भूमिका के लिए नजीर साहब को ही चूना। इस तरह से नजीर हुसैन बम्बई आए। फिर तो वे बिमल रोय की फिल्मों में जैसे एक अनिवार्य अभिनेता हो गए। उनकी फिल्म ‘बिराज बहु’ के संवाद लिखे। बिमल दा की ‘यहुदी’ हो या ‘परिणिता’ नजीर हुसैन अनिवार्य थे।

तो ‘देवदास’ में हीरो की बचपन से देखभाल करने वाले ‘धर्मदास’ के महत्वपूर्ण पात्र में बिमल दा ने नजीर हुसैन को लिया था। बिमल रॉय के बहुधा साथी उन दिनों मलाड में नडियादवाला कोलोनी में रहते थे। उन में ह्र्षिकेश मुकरजी से लेकर नबेन्दु घोष और सुधेन्दु रॉय तक के सभी का समावेश होता था। धीरे धीरे सब वहां से दुसरे इलाकों में चले गए। परंतु, नजीर हुसैन और हास्य अभिनेता असित सेन वहीं एक ही मकान में उपर नीचे रहे। सभी बंगाली दोस्तों के बीच रहकर अच्छी खासी बंगाली भाषा बोलने वाले नजीर साहब का वतन उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में था। उन्होंने अपना परिवार बम्बई बुला लिया। अब घर में अपनी भोजपुरी भाषा का चलन बढता गया जिसने आगे चलकर नजीर हुसैन को भोजपुरी फिल्म उद्योग के महत्वपूर्ण निर्माता भी बनाया। उनकी लिखी ‘गंगा मैया तोहरे पियरी चढैबो’ आज भी भोजपुरी की प्रारंभिक सुपरहीट फिल्मों में गिनी जाती है।

जब कि हिन्दी फिल्मों में उनका सफर निरंतर जारी था। उनकी फिल्मों में प्रमुख हैं, ‘अमर अकबर एन्थनी’, ‘कटी पतंग’, ‘लीडर’, ‘कश्मीर की कली’, ‘चरस’, ‘ज्वेल थीफ’, ‘कर्मयोगी’, ‘राजपुत’, ‘धी बर्नींग ट्रेइन’, ‘मेहबुबा’, ‘बैराग’, ‘तपस्या’, ‘प्रतिज्ञा’, ‘धर्मात्मा’, ‘कुंवारा बाप’, ‘अनुराग’, ‘मेरे जीवन साथी’, ‘शर्मिली’, ‘अभिनेत्री’, ‘गीत’, ‘हमजोली’, ‘आया सावन झुमके’, ‘चिराग’, ‘जहाँ प्यार मिले’, ‘शागीर्द’, ‘मेरे सनम’, ‘आई मिलन की बेला’, ‘अनपढ’, ‘असली नकली’, ‘गंगा जमुना’ इत्यादि। ‘गंगा जमुना’ में एक ऐसे पुलिस अधिकारी वे बने थे, जो नासिर खान को अपने भाई को पकडने की हिंमत और ज्ञान देते हैं।

फिल्मों में अपने सिद्धांतो पर अडिग रहने वाले पात्र निभाने के माहिर नजीर हुसैन अपनी असल जिन्दगी में भी वैसे ही थे। जैसे कि ‘गंगा मैया तोहरे…” की उनकी लिखी कथा के बारे में किसी ने ये दावा किया था कि असल में उस कहानी के लेखक कोई और थे। अब जानने वाली बात ये थी कि हमारे प्रथम राष्ट्रपति बाबु राजेन्द्र प्रसाद के सूचन पर नजीर हुसैन ने भोजपुरी फिल्म लिखी थी। इस लिए उनकी कहानी पर किसी और के दावे से वो इतने नाराज हो गए थे कि अदालत में केस दाखिल कर दिया। इतना ही नहीं, अदालत को नजीर साहब के पक्ष में अपना फैसला देना पडा था।

16 अक्टूबर 1987 के दिन उनका देहांत हो गया। आज उनके निधन के इतने साल बाद भी नजीर हुसैन उनकी सैंकडों फिल्मों के अपने संवेदनशील अभिनय से हमारे बीच हमेशा के लिए जीवित ही हैं।

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