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राजस्थान में कांग्रेस का विरोध नहीं तो समर्थन की लहर भी नहीं

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जगदीप सिंह सिंधु

 राजस्थान विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-भाजपा आमने-सामने हैं। राजस्थान की समस्याएं और चुनावी मुद्दे भी हिंदी क्षेत्र के अन्य राज्यों जैसे ही हैं। बेरोजगारी, सिचाईं, स्वास्थ्य और शिक्षा के साथ-साथ कानून-व्यवस्था का मामला चुनावी समर में प्रमुखता से उठ रहा है। इन्हीं सवालों की आंधी में 2018 में प्रदेश की जनता ने भाजपा की सरकार को चलता कर दिया था। एक रोष ने वसुंधरा राजे की सरकार को पलट दिया, लेकिन 2019 में अद्भुत रूप से नरेंद्र मोदी में विश्वास जता लोकसभा में प्रचंड बहुमत दिलाने में अपना पूरा योगदान देने से यह प्रदेश नहीं चूका। क्या यह मान लिया जा सकता है कि देश के मुद्दों और प्रदेश के मुद्दों पर राजस्थान का मतदाता अलग-अलग तरह से मतदान करता है। 

2023 के विधानसभा चुनाव दोनों ही मुख्य राजनीतिक दलों के लिए कोई पहेली न रह कर सीधे-सीधे बड़ी चुनौती के रूप में सामने खड़ा है। प्रदेश के मतदाताओं की धारणाओं, अपेक्षाओं, प्राप्तियों के आंकलन की तस्वीर चुनाव के परिणामों के बाद ही देखने को मिलेगी, लेकिन राजनीतिक दलों की रणनीतियां स्थानीय मुद्दों को संतुलित करने में कितनी भूमिका निभा पाएंगी ये समझना भी अस्वश्यक है। वर्तमान कांग्रेस सरकार के प्रति रोष की सशक्त भावना प्रदेश में स्पष्ट तौर पर सामने नहीं आ रही है लेकिन ठोस विश्वास भी उतना ही धूमिल है। 

भारत जोड़ो यात्रा के बाद कांग्रेस को मिली संजीवनी से कांग्रेस प्रदेश में अपने विरोधाभास खत्म करके जमीन पर कितनी मजबूती से ख़ड़ी रह पाती है ये सवाल अब पार्टी की एकजुटता को टटोल रहा है। टिकटों के बंटवारे के बाद उठे बगावती तेवर और असंतुष्टों की जमात को सधने के प्रयास में पार्टी कितना सफल हो पाती है यह सवाल भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

इसके लिए किये प्रयासों में दोनों ही पार्टियों ने सावधानी बरतने की कोशिश की है। समानांतर तौर पर प्रदेश के गुटों में एकजुटता का सवाल हल हो गया यह स्पष्ट तौर पर धरातल पर अभी दिखाई नहीं दे रहा। स्थानीय जातिगत व सामुदायिक समीकरण को संतुलित करने का सवाल भी उतना ही बड़ा है। प्रदेश में चुनाव अभी तक स्थानीय व प्रदेश के मुद्दों के आस-पास ही केंद्रित रहने के साफ आसार दिखाई दे रहे हैं।

कांग्रेस अब चुनाव को व्यक्ति केंद्रित न करके अपने कार्यकाल में किये गए कामों और योजनाओं की ओर ले जाने के प्रयासों में है। हालांकि अपने पूरे कार्यकाल में कांग्रेस की सरकार अधिकतर समय अपने राजनीतिक विरोधाभासों में उलझी रही और प्रदेश में सत्ता को बनाये रखने की चुनौतियों से जूझती रही।

प्रदेश में पार्टी की गुटबाजी की कश्मकश के कारण मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की कार्यशैली भी सवालों से बच नहीं पाई। प्रदेश में सरकार का नेतृत्व करने का सवाल अभी भी वैसे ही बना हुआ है। 

कांग्रेस के पास अपने कार्यकाल में किये गए कामों की कोई बड़ी उपलब्धियां हालांकि नहीं हैं लेकिन अबकी बार कांग्रेस 7 गारंटियों की नाव पे सवार होकर प्रदेश की जनता को अपने भरोसे में उतारना चाहती है। इन योजनाओं और नीतियों के लाभ को पूरे प्रदेश का मतदाता कितना स्वीकार कर रहा है ये सवाल भी कमजोर नहीं है।

भाजपा का प्रदेश नेतृत्व पिछले पांच वर्षों में प्रदेश में अपनी हार के सदमे से उबरने में ही गुम रहा इसलिए विपक्ष की भूमिका को सशक्त रूप से निभाने में लगभग कमजोर ही साबित हुआ। ‘मोदी से बैर नहीं- वसुंधरा तेरी खैर नहीं’ की मनोदशा ने प्रदेश के भाजपा समर्थकों में एक नयी तरह की गुटबाजी और प्रतिस्पर्धा को जिस तरह पार्टी में खड़ा किया उसके प्रभाव ने भाजपा को एक नए अन्तर्द्वन्द में पहुंचा दिया है जिसके साफ संकेत चुनाव के प्रारम्भ से ही देखने को मिल रहे थे।

मोदी काल में भाजपा की एकाधिकारवादी नीति प्रदेश में एक नई परिभाषा गढ़ने के प्रयोग में लगी हुई है। प्रदेश में स्थानीय नेतृत्व की पहचान के विपरीत भाजपा का प्रयास चुनावों में बिना चेहरे के केवल पार्टी के चिन्ह को ही मुख्य रखने की रणनीति ने अंतर्द्वंद के सवाल को और मजबूत कर दिया है। 

चुनाव जीतने की चुनौती के समानांतर और नयी चुनौतियां के सवाल भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने पार्टी के लिए खड़े कर लिये हैं। इन चुनावों में भाजपा के पास अपने कोई विशेष मुद्दे नहीं हैं और कोई बड़ी उपलब्धियां केंद्रीय सरकार की भी नहीं हैं जिन्हें प्रदेश में भुनाया जा सके।

भाजपा एक ओर धार्मिक भावनाओं और भव्य राम मंदिर के निर्माण के आसरे ही अपनी जीत को रेखांकित करने के प्रयास में जुटी है तो दूसरी ओर कांग्रेस सरकार को भ्रष्टाचार पर घेरने की रणनिति में लगी है। राजस्थान में कानून व्यवस्था के सवाल को वो जोर से उठा रही है। सरकार में चले घमासान को बताने से नहीं चूक रही। महिलाओं के प्रति अत्याचार का प्रचार अपने मंच से लगातार कर रही है। अपने पार्टी के अंदर असंतुष्टों की बगावत-गुटबाजी को ढकने की कोशिश में निरंतर जुटी है।

दोनों मुख्य राजनीतिक धाराओं से निराश प्रदेश के कुछ अन्य वर्ग अपनी नई धारा के साथ के चुनाव में उतर रहे हैं। आदिवासी क्षेत्र में भारत आदिवासी पार्टी ने अपने अधिकारों की आवाज़ को परिभाषित करने की ठान ली है। मोहन राऊत जिसने सितंबर 2023 में अपनी नयी पार्टी का गठन किया, तेजी से अपने जनाधार के विस्तार के तहत एक बड़े क्षेत्र में अपने प्रभाव को मजबूत कर विधानसभा में अपनी उपस्थिति को दर्ज कर प्रदेश को आश्चर्यचकित करने की ओर बढ़ रहे हैं।

ग्रामीण किसान कमेरा वर्ग व बहुजन वर्ग का राजनीतिक योग हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक पार्टी व  चंद्रशेखर आज़ाद की आज़ाद समाज पार्टी की राजनीतिक संधि अपने धरातल की खोज में मजबूती से दावेदार बन रही है। बहुजन समाज पार्टी जिसने पिछले चुनाव में अपेक्षाकृत अच्छा प्रदर्शन किया था, अब प्रदेश में शक्ति संतुलन बनाने की भूमिका के लक्ष्य को साधने में लगी है। आम आदमी पार्टी अपने मत प्रतिशत को बढ़ाने के लिए प्रदेश में अपनी तैयारी में लगी है।  

भीतरघात की आशंका और विरोधाभास के डर में सियासत की बिसात पर राजनीतिक पार्टियों ने अपने मोहरे सज़ा लिए हैं। शाह और मात के दांव किसको कितना हिलाएंगे ये अब चुनाव के मतदान वाले दिन तक रोचक रहेगा। 6 नवंबर तक नामांकन दाखिल होने के बाद चुनाव की गति व दिशा निर्धारित होना प्रारम्भ हो जाएगी। आरोप प्रत्यारोप के दौर और चुनौतियों के मध्य प्रदेश की जनता क्या भूमिका अपनाती है ये भी कम रोचक नहीं होगा।

प्रदेश में विरोध की लहर नहीं तो समर्थन की लहर का भी अभी तक देखने में नहीं आ रही है। अपनी-अपनी जीत की संभावनाओं की मजबूती को मुख्य राजनीतिक दल मतदाताओं तक पहुंचाने के प्रयास में हैं। जीत की राह उतनी आसान नहीं जितनी कुछ समय पहले तक आंकी जा रही थी।

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