पवन कुमार ‘ज्योतिषाचार्य’
ज्योतिषशास्त्र जन्मकालीन ग्रहस्थिति के आधार पर मनुष्य की आयु का निर्णय करता है परन्तु शास्त्रीय प्रमाणों से यह निश्चित हो गया है कि वास्तविक जन्म गर्भाधान ही है।
हम खेत में जिस दिन बीज डालते हैं उसी दिन उसका जन्म हो जाता है और प्रतिक्षण उसमें कुछ क्रिया होती रहती है। भूमि के बाहर दिखाई देना द्वितीय जन्म है। शास्त्रों में मनुष्य के दो और तीन जन्मों का वर्णन है।
ऐतरेयोपनिषत् के अनुसार माता के गर्भ में प्रवेश प्रथम जन्म है, बाहर आना द्वितीय जन्म है और संस्कारों से संस्कृत होना तृतीय जन्म है।
शास्त्र कहते हैं कि मनुष्य जन्म से शूद्र रहता है और संस्कार से दूसरा जन्म पा कर द्विज हो जाता है किन्तु संस्कार यज्ञोपवीत, पीतवस्त्र और तिलक, माला आदि बाह्योपचारों से ही नहीं होता। वास्तव में संस्कार वह है जिसने वाल्मीकि और अंगुलिमाल आदि को सन्त बना दिया।
तद्यदा स्त्रियां सिंचति तदस्य प्रथमं जन्म.
सा भावयित्री जनयति तदस्य द्वितीयं जन्म.
पुण्येभ्यः प्रतिधीयते तदस्य तृतीयं जन्म.
जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते.
अतः जन्मकालीन ग्रहों की स्थिति से आयुनिर्णय असंभव है। महर्षि चरक ने अपनी संहिता में लिखा है कि जो मनुष्य हित आहार और हित बिहार का सेवन करता है, कार्यारंभ के पहले उसके परिणाम को सोचता है, विषयों का सेवन करते हुए भी उसमें डूब नहीं जाता, विद्या, श्रम, अन्न, धन आदि का दान कर जनता का आशीर्वाद लेता है, सत्य बोलता है.
दयालु और क्षमावान् होता है तथा महान् पुरुषों की सेवा करता है वह निरोग और दीर्घायु होता है। स्वस्थ और दीर्घायु होना चाहते हो तो शोक, भय, लोभ, दुःसाहस, क्रोध, अहंकार, ईर्ष्या, अति अनुराग और मिथ्या भाषण आदि के वेगों को रोको पर छौंक, जंभाई, अपानवायु, निद्रा, श्वास, भूख प्यास और मल-मूत्र आदि के वेगों को कभी न रोको। नैतान् वेगान् विधारयेत्।
नरो हिताहारविहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः।
दाता समः सत्यपरः क्षमावानाप्तोपसेवी च भवत्यरोगः।
ज्योतिषशास्त्र ग्रहों के आधार पर रोगों एवं अरिष्टों का बताता है पर योगिराज चरक माता-पिता का और स्वयं का असंयम उसका हेतु बताते हैं ज्योतिषशास्त्र राशि और लग्न के आधार पर मरण काल बताता है पर भिसग्वर चरक कहते हैं कि यदि मनुष्य की आयु निश्चित होती तो मन्त्रों, औषधों, अहिंसादि यमों, शौचादि नियमों और ध्यानादि संयमों का प्रयोग नहीं किया जाता।
कोई होम, जप, व्रत, प्रायश्चित्त आदि न करता साँड़, हाथी, बाघ, भैंसा सर्प और अग्नि आदि से न डरता तथा उनसे बचने का प्रयास न करता वह आँधी, राजदण्ड और संक्रामक रोगों से न डरता।
आयु नियत होती तो इन्द्र भी किसी को वज्र से न मार पाते, कोई किसी पर आक्रमण नहीं करता, कोई युद्ध नहीं करता और देवों के वैद्य अश्विनी कुमार भी किसी रोगी को नीरोग न कर पाते। यदि भाग्य ही सब कुछ होता और आयु निर्णीत होतो तो महर्षिगण तप में प्रवृत्त न होते और उनकी आयु न बढ़ती।
अतः सिद्ध है कि हिताचरण से आयु बढ़ती है। उसके विपर्यय से घटती है और आकस्मिक मृत्यु भी आती है।
जिस प्रकार गाड़ी में लगा हुआ धुरा, धुरे के सब गुणों से युक्त होने पर अपने प्रमाण के क्षय होने से समय पर ही समाप्त होता है, उसी प्रकार शरीरस्य आयु। इसको सामयिक मृत्यु कहते हैं। जैसे गाड़ी पर अधिक भार लादने से, गाड़ी के विषमपथ या अपय में चलने से गाड़ी का पहिया टूटा होने से गाड़ीवान् और थैलों के सदोष होने से, गाड़ी लगातार जुती होने तथा अन्य दोषों से वही धुरा बीच में ही टूट जाता है उसी प्रकार आयु भी शक्ति से अधिक काम करने से, शक्ति से अधिक अथवा विषम भोजन करने से शरीर की सुरक्षा न करने से, अति मैथुन से प्रबल वेगों को रोकने से, निन्दित वेगों को न रोकने से बीच में हो समाप्त हो जाती है।
इसको अकाल मृत्यु कहते हैं। ज्वरादि रोगों का विपरीत उपचार करने पर भी अकाल मृत्यु हो जाती है।
यदि हि नियतकालप्रमाणमायुः सर्वं स्यात्तदायुष्कामानां मन्त्रौषधिमणि- मंगलबल्युपहारहोमनियमप्रायश्चित्तोपावसाद्या न प्रयुज्येरन्।
न च चण्डगोगजतुरगमहिषपवनादयश्च दुष्टाः परिहार्याः।
न चोरगाग्निनरेन्द्रादिभयं नापीन्द्रो नियतायुषं वज्रेणाभिहन्यात्।
नाश्विनावात भेषजेनोपपादयेताम्। नर्षयो यथेष्टमायुस्तपसा प्राप्नुयुः।
तस्मात् हितोपचारमूलं जीवितमतो विपर्ययान्मृत्युः।
यथा यानसमायुक्तोक्षः प्रकृत्यैवाक्षगुणैरुपेतो वाह्यमानो यथाकालं स्वप्रमाणक्षयादेवावसानं गच्छेत्तथायुः शरीरोपगतम्।
स मृत्युः काले। यथा स एवाक्षोऽतिभाराधिष्ठितत्वाद् विषमपथादक्षचक्रभंगाद् वाह्यवाहक दोषादनिर्मोक्षादन्तरा व्यसनमापद्यते तथायुरपि अयथाबलमारंभाद् अयथाग्निविषमादनशरीर- न्यासादतिमैथुनादुदीर्णवेगनिग्रहाद विधार्यवेगाविधारणादन्तरा व्यसनमापद्यते।
स मृत्युरकाले तथा ज्वरादीन् मिथ्योपचरितान कालमृत्यून् पश्यामः॥
(चेतना विकास मिशन).