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स्वतंत्र लेखकों और कलाकारों के जीवन संघर्ष को चित्रित करने वाली कुछ बेहतरीन फिल्में

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राकेश कबीर

लेखकों, कवियों, शायरों, संगीतकारों के जीवन संघर्ष को चित्रित करने वाली कुछ बेहतरीन फिल्में बाॅलीवुड और दुनिया भर के सिनेमा में समय-समय पर बनी हैं। सन 1957 में बनी गुरूदत्त की फिल्म प्यासा एक ऐसे भावनात्मक कवि की कहानी प्रस्तुत करती है जो पाॅलीटिक्स आफ पब्लिकेशन का शिकार है। उसको नौसिखिया कहकर अपमानित किया जाता है, उसकी रचनाओं को प्रकाशक डस्टबिन में डाल देते हैं तो उसके खुद के भाई उसकी गीतों की डायरी रद्दी में बचे देते हैं। इतना ही नहीं, उसे धक्के मारकर घर से बाहर निकाल देते हैं क्योंकि ज़माने की नज़र में वह बेकार आदमी है और पैसे नहीं कमा सकता। उसकी प्रेमिका (माला सिन्हा) भी उसकी गरीबी व बेरोजगारी के कारण उसे छोड़कर चली जाती है और शहर के बड़े प्रकाशन व्यवसायी (रहमान) से शादी कर सैटल हो जाती है। इस बात को वह विजय से बातचीत में स्वीकार करती है।

एक अच्छा गीतकार और शायर हर जगह से भगाया जाता है और शहर के पार्क की बेंच पर रात गुजारने को विवश है। उसी पार्क में उसका ही गीत गुनगुनाती एक महिला, जो वैश्या (वहीदा रहमान) की भूमिका में है, से विजय की मुलाकात होती है। कवि विजय की डायरी को रद्दी की दुकान से खरीदकर लाने वाली यही महिला है, जो समाज से बहिष्कृत और अपमानित है लेकिन वह गीतों की, सर्जक रचनाकार की इज्ज़त करना जानती है। इतना ही नहीं, उस भूखे-उपेक्षित कवि को प्रेम का अवलंबन भी देती है।

जब दुनिया यह मान लेती है कि विजय ने आत्महत्या कर ली है तो अपने सारे गहने और जमा-पूंजी लेकर वह उसी प्रकाशक के पास पाण्डुलिपि के प्रकाशन हेतु पहुंचती है जो विजय की प्रेमिका मीना (माला सिन्हा) का पति (रहमान) हैं। एक काबिल शायर की रचनायें दुनिया के सामने लाने का उसका प्रयास रंग लाता है। उसकी किताब बेस्टसेलर साबित होती है। विजय की पहली पुण्यतिथि पर (हालाॅंकि वह मरा नहीं होता है) एक बड़ा जलसा प्रकाशक द्वारा आयोजित होता है। विजय भी वहां पहुंचता है जिसे कोई पहचानता नहीं है और दौलत की अंधी दुनिया उसे धक्के मारकर बाहर निकाल देती है।

फिल्म का अंत भी बहुत ही मार्मिक है। नायक विजय प्रकाशकों के लालच, अपने सगे भाइयों की नीचता और प्रेमिका के प्रैक्टिकल अप्रोच से दुखी होकर अपनी प्रेमिका गुलाब (वहीदा रहमान) के साथ बहुत दूर चला जाना चाहता है, जहाॅं से और दूर न जाना पड़े।

गौरतलब है कि प्यासा का नायक झूठी दुनियावी सफलताओं में और उसके भ्रम में नहीं जीता बल्कि वह ‘बीइंगनेस’ की चेतना में जीता है। उसे अपने भीतर वह गरिमाबोध चाहिए जो एक रचनाकार का वास्तविक वजूद पैदा करता है। वह दौर अस्तित्ववादी दार्शनिक ज्यां पॉल सार्त्र का दौर था। यूं ही नहीं विजय कहता है कि ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया/ ये इंसां के दुश्मन समाजों की दुनिया/ ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है …  एक सदी पहले गालिब भी कह चुके थे कि आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना …. विजय का जीवन दरअसल उसकी असफलाओं का अक्स नहीं है बल्कि वह पूरी की पूरी व्यवस्था के सड़ जाने का अक्स है जिसमें वास्तव में उसकी हताशा और आइसोलेशन सबसे बड़ा सवाल है। आज के संदर्भों को देखते हुये यह सवाल बड़ी सहजता से उठता है कि आखिर नेहरू जी कैसी समाजवादी व्यवस्था का संचालन कर रहे थे? आखिर में क्या उसे वहीं नहीं आना था जहां वह आज है?

इसके साढ़े पाँच दशक बाद रणवीर कपूर अभिजीत राॅक स्टार (2011) फिल्म में नायक, संगीतकार जार्डन को इसी तरह घर और समाज से धक्के मारकर बाहर निकाल दिया जाता है। वह भी दर-दर भटकता है लेकिन उसके गानों के एलबम “निगेटिव” को जारी करने वाला प्रोडयूसर (धींगरा, पीयूष मिश्रा) करोड़ों रुपया कमाता है। जार्डन की प्रेमिका हीर (नर्गिस फाखरी) की शादी भी मौफिद अजीज नाम के गैर पुरूष से कर दी जाती है।

1957 हो या 2011 या अब 2022 में रचनाकारों की मुश्किलें, कम नहीं हुई हैं। मसिजीवियों के सामने भूखमरी के हालात हैं क्योंकि उनमें से सभी बाजार को साध नहीं पाते। हमारे प्रोफेसर ने बीस साल पहले ही कहा था कि अब ज्यादातर लेखक कवि, गीतकार प्रोफेसर, अधिकारी या वे लोग हैं जो नौकरी में हैं। पहले रोटी-रोजगार, फिर लेखन का कार्य करते हैं। यह बात बहुत हद तक सही है। रामजी यादव (गाँव के लोग) व डॉ. सागर (गीतकार बाॅलीवुड) जैसे लोग संघर्षरत हैं लेकिन समाज इनको पहचानने, सम्मान देने में कोताही करता है। विनोद कुमार शुक्ल जैसे लेखकों को रायल्टी भी नहीं मिल पाती। संतोष आनंद जैसे गीतकार गरीबी में जीवन जी रहे बुढ़ापे में।

जो सवाल सन 1957 में जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहाँ हैं? (साहिर लुधियानवी), गुरूदत्त साहब ने अपनी फिल्म प्यासा से उठाया था वे आज भी अनुत्तरित हैं। रचनाकारों, मसिजीवियों को छले जाने के काम सरे बाजार हो रहा है। जिनके पेट भरे हैं और जो ‘ज्ञान और प्रकाशन’ की राजनीति में सेट हो गए हैं बेशक उन्हें कोई शिकायत न होगी लेकिन आलम (1973 में आई फिल्म नमक हराम में रजामुराद ) जैसे शायरों को तो प्रेम-सम्मान और पहचान की प्यास लिए मरना है पड़ता है। ऐसे ही इस दौर में फ्रीलान्सर पत्रकारों और लेखकों की संख्या इतनी कम नहीं हो गई कि वे उँगलियों पर गिने जाने जितने  भी नहीं बच सके।

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