आर. पी. विशाल एवं सुनील सिंह
यह कहानी निकोलस कॉपरनिकस (1473 -1543) से शुरू होती है. वे पोलैंड के रहने वाले थे. गणित व खगोल में इनकी रुचि थी. खगोल में अब तक हमारे पास टालेमी का दिया हुआ ब्रह्मांडीय मॉडल था. इसके अनुसार पृथ्वी स्थिर थी और केंद्र में थी व सभी अन्य खगोलीय पिंड इसके चारों ओर चक्कर लगाते दर्शाए गए थे. विद्वानों ने इसका समय-समय पर अध्ययन किया था. गणितीय दृष्टि से कुछ दिक्कतें थी जो इस मॉडल से हल नहीं हो रही थी.कॉपरनिकस का मानना था कि यदि पृथ्वी की बजाए सूर्य को केंद्र में रख लिया जाए तो काफी गणनाएं सरल हो सकती हैं. कॉपरनिकस साधु स्वभाव के व्यक्ति थे. वह समझते थे कि यदि उसने अपना मत स्पष्ट कर दिया तो क्या कुछ हो सकता है. वह चर्च के गुस्से को समझते थे, सो उन्होंने चुप रहना उचित समझा लेकिन उन्होंने अध्ययन जारी रखा. वह बूढ़ा हो गये थे और जब उन्हें अपना अंत निकट लगने लगा, उन्होंने मन बनाया कि ‘वह अपना मत सार्वजनिक करेगा.’
उन्होंने यह काम अपने एक शिष्य जॉर्ज जोकिम रेटिकस को सौंप दिया कि वह इन्हें छपवा दे. उन्होंने यह काम अपने एक मित्र आंद्रिया आसियांडर के हवाले कर दिया. इन्होंने कॉपरनिकस की पुस्तक प्रकाशित करवा दी. यह उसी समय प्रकाशित हुई जब कॉपरनिकस मृत्यु शैय्या पर थे. वह इसकी जांच-पड़ताल नहीं कर सकते थे. आंद्रिया आसियांडर एक धार्मिक व्यक्ति थे. इनका मत कॉपरनिकस के मत से मेल नहीं खाता था. इन्होंने बिना किसी सलाह या इजाजत के पुस्तक में कुछ फेरबदल किए.
उन्होंने पुस्तक की भूमिका में यह लिख दिया कि कॉपरनिकस की यह सब कल्पना है, यथार्थ अध्ययन नहीं है. पुस्तक के नाम में भी कुछ बदलाव किया. प्रकाशित होते ही यह पुस्तक चर्च की निगाह में आई. चर्च नहीं चाहता था कि किसी भी वैकल्पिक विचार की शुरुआत हो. चर्च ने पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया और सभी प्रतियां जब्त कर ली. किसी तरह कुछ प्रतियां बच गई. चर्च ने समझा अब बात आगे नहीं बढ़ेगी.
कुछ समय तक सब शांत रहा. एक बार इटली का एक नवयुवक गीयरदानो ब्रूनो (1548 – 1600) चर्च में कुछ पढ़ रहे थे. वह पादरी बनना चाहते थे. किसी तरह उसके हाथ कॉपरनिकस की पुस्तक लग गई. इन्होंने यह पढी. इनकी इस पुस्तक में दिलचस्पी बढ़ी. इन्होंने सोचा कि क्यों एक व्यक्ति किसी अलग विचार पर बहस करना चाहता है ? इन्होंने इस विषय पर आगे अध्ययन करने का मन बनाया. पादरी बनने की उनकी योजना धरी की धरी रह गई. जैसे-जैसे वह अध्ययन करते गये, उनका विश्वास मजबूत होता गया. वह भी चर्च की ताकत और गुस्से को समझते थे इसलिए उन्होंने इटली छोड़ दी. वह इस मत के प्रचार के लिए यूरोप के लगभग एक दर्जन देशों (प्राग , पैरिस, जर्मनी, इंग्लैंड आदि) में घूमे.
चर्च की निगाह हर जगह थी. कुछ विद्वान इनके मत से सहमत होते हुए भी चर्चा करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे. चर्च की निगाह में ब्रूनो अब भगोड़ा थे. वह जितना भी प्रचार करते चर्च की निगाह में उनका जुर्म उतना ही संगीन होता जाता था. वह छिपते तो भी कहां और कब तक ?
वैचारिक समझौता उन्हें मंजूर नहीं था. चर्च ने ब्रूनो को पकड़ने के लिए एक जाल बिछाया. एक व्यक्ति को तैयार किया गया कि वह ब्रूनो से पढ़ना चाहता है. फीस तय की गई. ब्रूनो ने समझा कि अच्छा है एक शिष्य और तैयार हो रहा है. ब्रूनो इस चाल को समझ नहीं पाये. उन्होंने इसे स्वीकार किया और बताए पते पर जाने को तैयार हो गये. इस प्रकार वह चर्च के जाल में फंस गये. जैसे ही वह उस पते पर पहुंचे चर्च ने उसे गिरफ्तार कर लिया.
चर्च ने पहले तो इन्हें बहुत अमानवीय यातनाएं दी. उन्हें एकदम से मारा नहीं. चर्च ने उन्हें मजबूर करना चाहा कि वह अपना मत वापस ले ले और चर्च द्वारा स्थापित विचार को मान ले. ब्रूनो अपने इरादे से टस से मस नहीं हुए. चर्च ने लगातार 6 वर्ष प्रयास किए कि वह बदल जाए. उन्हें लोहे के संदूक में रखा गया जो सर्दियों में ठंडा और गर्मियों में गर्म हो जाता था. किसी भी तरह की यातनाएं उनके मनोबल को डिगा नहीं पाई. अब तक चर्च को भी पता चल चुका था कि ब्रूनो मानने वाले नहीं हैं. न्यायालय का ड्रामा रचा गया. चर्च ने सजा सुनाई कि इस व्यक्ति को ऐसी मौत दी जाए कि एक बूंद भी रक्त की न बहे. ब्रूनो ने इस फरमान को सुना और इतना ही कहा -‘आप जो ये मुझे सजा दे रहे हो, शायद मुझसे बहुत डरे हुए हो.’
17 फरवरी सन् 1600 को ब्रूनो को रोम के Campo dei Fiori चौक में लाया गया. उन्हें खंभे से बांध दिया गया. उसके मुंह में कपड़ा ठूंस दिया गया ताकि वह कुछ और न बोल सके. उन्हें जिंदा जला दिया गया. इस प्रकार ब्रूनो विज्ञान की दुनिया का पहला शहीद बन गये.
लोग वर्षों से मान्यताओं, धारणाओं, प्रथाओं और भावनाओं के पीछे इतने पागल हैं कि वे अपने विचारों से अधिक न कुछ सुनना चाहते हैं और न देखना. बदलना व त्यागना तो उससे भी बड़ी चुनौती है. यह जो एक डर बनाया जाता है, असल में वो कुछ लोगों के एकाधिकार के छिन जाने के कारण बनाया जाता है. इसलिए वे इस डर को बनाये रखने की हिमायती है, बशर्ते उसके पीछे कितनी ही कल्पनायें क्यों न गढ़नी पड़ जाए !
ज्यार्दानो ब्रूनो : एक दार्शनिक, गणितज्ञ और खगोल विज्ञानी
1591 ई. में ब्रूनो इटली लौटते हैं और 1592 ई० में उन पर मुकदमा चलाया जाता है. इसके पहले वह यूरोप के हर देश में अपने ज्ञान और तर्क का झंडे पहरा चुके थे. पूरा पादरी समुदाय उनके खिलाफ था. इसका कारण यह था कि वह वर्षो पुरानी टालमी के द्वारा पतिपादित भूकेन्द्रीय (Geocentric) सिद्धांत के खिलाफ थे और कापरनिक्स के हेलियोसेन्ट्रिक सिद्धांत के पक्ष थे. अर्थात सूर्य केन्द्र में है और ब्रह्मांड अनन्त है.
उन्होंने कहा, ‘आकाश बस उतना ही नहीं है जितना हम देखते हैं. आकाश अनन्त है और इसमें असंख्य विश्व है.’ 1584 ई० में वह एक पुस्तक ‘Of Infinity, the Universe, and the World’ लिख चुके थे. इस पुस्तक में उन्होंने अरस्तू के ब्रह्मांड सम्बन्धी विचारों पर हमला किया था और इस विचार को प्रतिपादित करते थे कि धर्म अज्ञान में फंसे लोगों को निर्देशित तथा शासन करने के लिए है. सन् 1583 में ब्रूनो लंदन गए थे और फिर आक्सफोर्ड. अपने इन विचारों के कारण उन्हें आक्सफोर्ड से पुन: लंदन लौटना पड़ा. इस प्रकार ब्रूनो को लंदन और जर्मनी में वहां के पादरियों का कड़ा विरोध सहना पड़ा. लेकिन यह विरोध उन्हें डरा नहीं सका. उन्हे धर्म से बहिष्कृत कर दिया गया.
सन् 1592 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर धर्मविरोधी विचारों के लिए मुकदमा चलाया गया. करीब आठ साल तक ब्रूनो को केस्टेलो सेंट’ ऐंजलो जो वेटिकन के बिल्कुल निकट था, जंजीर से जकड़कर जेल में रखा गया. इस प्रकार के दमन से अपने विचारों के प्रति उनकी दृढ़ता बढ़ती ही गयी. मौत की सजा भी उन्हें अपने विचारों से न डिगा सकी.
जेसुट कारडिनल रेबरिट बेलारमाइन उस धार्मिक कोर्ट के जज थे. जब वह सजा सुना रहे थे उस वक्त ब्रूनो ने कहा, ‘मेरी सजा को सुनाने में मुझे जितना डर नहीं लग रहा है उससे ज्यादा आपके मौत की सजा सुनाने में डर लग रहा है.’ मौत की सजा सुनाने के बाद उन्हें यंत्रणा दी गयी और 17 फरवरी 1600 को उन्हें रोम की सड़कों पर लाया गया और जिंदा जला दिया गया. आज वहीं पर ब्रूनो का मूर्ति खड़ा है.
ब्रूनो का जन्म 1548 में नोला शहर में हुआ था, जो उस समय नेपल्स के राज्य का हिस्सा था, जो अब इटली है. वह स्पेन के लिए लड़ने वाले एक सैनिक का बेटा था, जिसे फरोइसा सावलिनो के साथ जियोवानी ब्रूनो कहा जाता था.
लड़के को अपने गृहनगर में पहले अक्षर मिले, लेकिन 15 साल की उम्र में वह नेपल्स चले गए, जो उस समय की महान यूरोपीय बस्तियों में से एक था, फिर अपनी शिक्षा जारी रखने के लिए ब्रुनो ने ऑगस्टिन के साथ धर्मशास्त्र का अध्ययन किया; इसके अलावा, उन्होंने मानविकी कक्षाओं में भाग लिया.
17 साल की उम्र में उन्होंने नेपल्स में डोमिनिकन बनने का फैसला किया. तभी उन्होंने अपना नाम बदलकर जियोर्डानो रख लिया. ब्रूने पहले एक पुजारी बने और धर्मशास्त्र मे डाक्टरेट की उपाधि ली. लेकिन इसी दौरान उन्होंने सवाल खड़ा करना शुरू कर दिया जो बौद्धिक स्वतंत्रता के पक्ष में थे. यह एक प्रकार से धर्म के चुनौती देना था.
मानव समाज के विकास का कारण कूपमंडुकता व जड़ मानसिकता का विवेकसम्मत विचारों के संघर्ष की निरंतरता है. पूराने रूढ़ विचार हमेशा नए विचार की राह में रोड़ा बनकर आयी है. लकड़ी के हल में जब लोहा लगाया गया ते इसका भी विरोध हुआ था. पुराने खयालात वाले लोग इसका विरोध किए और इसका मजाक उड़ाया.
तर्क और विवेक जिसने पूंजीवाद के जन्म दिया, आज यह पूरे विश्व के लिए खतरा बन गया है. जिस पूंजीवाद ने सामंतवाद को खत्म करने में अपनी भूमिका निभाई थी, उसे फिर जीवित करने की कोशिस की जा रही है. हम देखते हैं कि अमेरिका में पाठयक्रम में बिग बैंग थ्यूरी के जगह पुन: बाइबिल में वर्णित क्रिएशन की थ्यूरी को पढ़ाया जा रहा है. भारत में पंच सितारा बाबाओं के प्रवचन टीवी चैनलो पर प्रसारित किया जाता है ताकि लोग अंधविश्वास में रहें और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को कुंठित किया जा सके.
हमने पिछले कोरोना काल में देखा किस प्रकार अंधविश्वास एक कारोबार बनकर उभरा है. यह दु:खद और हो जाता है जब सरकार के मुखिया और मंत्री इसे प्रोत्साहित करते हैं. आज भी रोज नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पानसरे, गौरी लंकेश, एस. एम. कलबुर्गी जैसे सैकड़ों ब्रूनो शहीद हो रहे हैं. ये सारे लोग इसलिए मारे गए क्येंकि इन्होंने कट्टरता के आगे समझौता नहीं किया और अंधविश्वास और अवैज्ञानिक सोच का विरोध किया.
आखिर प्रो. डी. एन. झा जो हाल ही में 4 फरवरी, 2021 को दिवंगत हुए को जान से मारने की धमकी क्यों दी गयी ? क्योंकि वह तर्किक सोच के आधार पर इतिहास लिख रहे थे !
- आर. पी. विशाल एवं सुनील सिंह