अग्नि आलोक
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मै किसी की औरत नहीं……!

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सुसंस्कृति परिहार
     चौंकिये नहीं । समकालीन कवियत्री सविता सिंह ये बेटूक लिखती हैं:-” मैं किसी की औरत नहीं , अपनी औरत हूं । ” ठीक ही लिखा है,औरत के साथ किसी का होना आखिर क्यों जरूरी है ?औरत सिर्फ अपनी औरत हो ।यही दिवा स्वप्न है प्रगतिशील नारी का ।उसका अपना वजूद ,उसकी अपनी पहचान हो तभी तो स्त्री पुरुष असमानता की दीवारे टूटेंगी ।  

                एक और दूसरी कवियत्री लीना मल्होत्रा राव अर्ज़ करती हैंकि :-” आज मेरे पास मत आना/मैं प्रचंड वायु /आग तूफान में तब्दील हो रही हूं/निकल जाना चाहती हूं / आज दंडकारण्य में /कुछ नये पत्ते की तलाश में /जिससे सहला सकू अपनी देह /जो मेरे झंझावात में फंसकर/निरीह होकर उड़े मेरी ही गति से /मेरी इंद्रियों को थामे हुए/सातो घोड़े बेलगाम हो गए हैं/और मैं अनथक भागती हूं/अपने दुस्साहस के पहिए पर /किसी ऐसे पहाड़ से टकराने के लिए /जिसे दूर करके मैं अपने सौन्दर्य की नई परिभाषा गढ़ लूं/या जो थाम सके मुझे /ओ साधारण पुरुष/तू हट जाना /मेरे रास्ते मत आना ” 

                यकीनन आज की स्त्री अपने सौन्दर्य की नई परिभाषा गढ़ रही है ।पूर्ण दुस्साहस के साथ ।उसने अपने औरत होने का बख़ूबी परिचय भी दिया है ।अफसोसनाक यह कि भूमंडलीकरण ने एक नई औरत को जन्म तो दे दिया पर नये मर्द को जन्म नहीँ दे पाया जो इसशक्ति सम्पन्न औरत के साथ नये तरह के नर-नारी सम्बंधों का सिलसिला शुरु करसकता है ।मनोवैज्ञानिक अरुणा बूटा का निष्कर्ष था कि पुरुष सफल औरतो को सशंकित होकर देखते हैं।वे सांस्कृतिक संकट के शिकार हैं।पुरुष एक खूबसूरत गुड़िया चाहता है जो हर निर्णय में उस पर निर्भर करे ।वह दिखाना चाहता है कि बागडोर उसी के हाथ में है ।   

                  मुझे याद आती है अन्ना मल्होत्रा की अपनी कहानी ,जो भारत की पहली आई ए  एस हैजब वे लिखित परीक्षा के बाद इन्टरव्यू पैनल के सामने पेश हुई तो साक्षात्कार लेने वालों ने उन्हें आई ए एस  बनने के खिलाफ समझाने की काफी कोशिश की  उनका कहना था कि महिला होने के नाते वे यह जिम्मेदारी  नहीं उठा पायेंगी ।अन्ना नह़ी मानी और अपने कैडर में नियुक्ति के लिए मद्रास में तत्कालीन  मुख्यमंत्री राजा जी के सामनेपेश हुई ।राष्ट्रीय आन्दोलन के इस जननायक ने उनसे साफ कहा कि वे महिलाओ के सार्वजनिक क्षेत्र में आने के खिलाफ हैं ।अन्ना ने ज़िद की तब राजा जी को झुकना पड़ा उस ज़माने में एक नियम और था शादी होते ही महिलाओं को उच्च पदों से त्यागपत्र देना पड़ता था ।बाद में यह नियम बदला  

                   समाज और परिवार इस नई औरत को कुछ इस तरह दबाव में लाता रहा है कि वह विवाह करने और सन्तानोत्पत्ति के बादस्वय घर परिवार के लिए अपना कैरियर छोड़ वापस चली जाऐ ।इंदिरा नुई की सफलताये हर महिला को लुभाती हैं लेकिन कितने लोग जानते हैं कि उन्हें रोज रात में अपने बच्चों को सुलाने के बाद ही बिस्तर नसीब हो पाता था ।इन पारंपरिक जिम्मेदारियों को वह कब तक अकेले ढोती रहेगी ? आज के बाज़ार के पास नर-नारी के इस सदियों से चले आ रहे श्रमविभाजन को तोड़ने का ना कोई विचार है और ना ही कोई औजार है ।   

                अपनी महिला बास के अधीन काम करने वाले पुरुष अधिकारी भी आमतौर पर विशेष रूप से दमित मानसिकता के शिकार रहते है जो मौका पड़ते ही इस औरत के खिलाफ आक्रामक हो जाते हैं  एक ज़माने की विश्व सुंदरी युक्ता मुखी का दुख है कि वे अपनी जोड़ का जो भी पुरुष चुनती हैं,वह विवाह करने में हिचकिचाता है ।वे कई बार की भुक्त भोगी है।मशहूर ड्रेस डिज़ाइनर रितु बेरी का भी यही दर्द है वे मानती हैं कि पुरुष उनका सानिध्य प्राप्त कर कृतकृत्य होते रहते हैं लेकिन दीर्घकालीन सम्बंध बनाने का प्रश्न हवा में रहता है ।

                    ये हालात हैं,अधिकार और समृद्धि प्राप्त शक्ति सम्पन्न महिलाओं के ।तो मध्यम और निम्नस्तर की स्त्रियों की क्या स्थिति होगी ?इस विषय पर सोचना जरूरी है क्योंकि बाज़ारवाद ने महिलाओं के लिए अवसरों की धूम मचा दी है।हर व्यवसाय में स्त्री की जरूरत है ।हर विज्ञापन में स्त्री की मांग है ।हर लुभावनी जगह स्त्री के लिए बड़ी उदारतापूर्वक बाज़ार मुहैया करा रहा है।यह स्त्री देह के भरपूर दोहन का दौर है ।मंहगाई  के इस दौर में स्त्री का भरपूर शोषण परिवार भी ऐसी ही उदारता से कर रहा है ।जरूरत बन गई है औरत । 

                   सारी परम्पराओं का कचूमर बाज़ार ने  निकाल दिया और सब की मौन स्वीकृति भी उसने मंहगाई के डर से सहजता से ले ली ।बाहर निकली इस औरत के हालात किसी से छुपे नहीं हैं।वह  दफ्तरों  , कारखानों ,सड़कों और घर में भी सुरक्षित नहीं रही ।सामूहिक यौन हिंसा के खतरे के साथ  बास की मनमर्जी का भी खतरा उस पर राबर बना हुआ है ।विरोध उनकी नौकरी छीन सकता है ।भय से बाहर निकली औरत अबघर भी वापस नहीं जा सकती क्योंकि वह घर की जरुरत भी है ।इतना ही नहीं वह परिवार ,समाज और पड़ोस में संशय की नज़र का दर्द झेलती है ।   

                        आशय यह कि घर से बाहर कार्यरत औरत चाहे वह उच्च पदस्थ हो या आम कामकाजी उसे अनगिनत परेशानियों से जूझना पड़ रहा है जिस पर ध्यान दिये बिनामहिला सशक्तिकरण  का उद्घोष बेमानी है ।उदारवादी आर्थिक नीतियों ने जहां स्त्रियों को सार्वजनिक जीवन में अधिक से अधिक उपस्थिति दर्ज कराने का अवसर मुहैया कराया है वहीं उसे उपभोक्ता वस्तु बनाने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है ।वर्तमान में अगर लड़के लड़कियों की मानसिक स्थिति का अध्ययन करें तो हम पाते हैं कि लड़कियों की सोच में आमूल-चूल  परिवर्तन आया है ।उसमें दादी नानी की उपस्थिति गायब है परंतु लड़के की सोच में दादा -नाना  बराबर मौजूद है ।सोच का यही अंतर बहुत सी समस्याओं की जड़ है । 

            यही वजह है संविधान में प्रदत्त समानता के अधिकार के बाद मथुरा कांड और निर्भया कांड के बावजूद मिलने वाले अन्य अधिकारों और बड़ी सुविधाओं के बावजूद आज भी औरत के वजूद को सामाजिक स्वीकार्यता नहीं।       

               अब जरूरत यह है कि स्त्रियों के अनुकूल माहौल निर्मित करने, समाज की प्रगतिशील ताकतें और सरकार मिलकर इस पुरातन सोच से छुटकारा दिलाने का कोई ईमानदार अभियान चलायें क्योंकि आज की औरत किसी की नहीं ,अपनी औरत की कहने का हौसला रखती है साथ -साथ आग और तूफान में तब्दील हो रही है ।

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