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कितने खरे चुनावी वादे…. पिछले चुनावी वादे कितने पूरे हुए

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विधानसभा चुनावों के दौरान वादों की फेहरिस्त काफी लंबी हो चली है। 12वीं पास को स्कूटी, केजी से पीजी तक फ्री शिक्षा, न्यूनतम समर्थन मूल्य 2,700 या 2,900 रुपये क्विंटल के अलावा बोनस की भी अतिरिक्त व्यवस्था की जाएगी। लेकिन केंद्र सरकार द्वारा पिछले दस साल में किए गए चुनावी वादे कहां तक पूरे हो पाए? नरेंद्र मोदी जैसे प्रभावी नेता और पूर्ण बहुमत की सरकार के बावजूद दस साल का हिसाब-किताब लगाना जरूरी है। आंकड़ों के खेल से देश को भ्रमित करना भले जारी रहे, पर कोरोना के रूप में वैश्विक महामारी हो या आर्थिक मंदी का दौर, पूर्वोत्तर राज्यों में घरेलू स्तर पर बढ़ती हिंसा हो, पड़ोसी राज्यों के साथ बढ़ता सीमा विवाद या कूटनीतिक रिश्ते, देश में बेरोजगारी की बढ़ती समस्या हो या किसानों की बढ़ती आत्महत्या-मोदी सरकार हर मोर्चे पर विफल ही दिखी है। आज भी देश को कृषि, रोजगार, अर्थव्यवस्था, अंतरराष्ट्रीय संबंध और आंतरिक सामाजिक-असामंजस्य की समस्याओं से दो-चार होना पड़ रहा है।

वर्ष 2004-05 में कृषि, वानिकी और मछली पकड़ना सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 21 प्रतिशत था। पिछले 18 साल में यह घटकर करीब 16 फीसदी रह गया है। लेकिन खेतों में कार्यबल की संख्या में उस हिसाब से गिरावट नहीं आई है। कृषि देश में करीब 55 प्रतिशत कार्यबल को रोजगार देती है। इस क्षेत्र में अनुमानित 26 करोड़ लोग काम कर रहे हैं। यानी करीब 55-57 प्रतिशत आबादी की कृषि पर निर्भरता है, जो नरेंद्र मोदी सरकार के दौरान लंबे समय से संकट में है। मोदी सरकार के तमाम दावों के बावजूद किसानों को उनकी खेती से लाभकारी मूल्य तो दूर, पारिश्रमिक भी नहीं मिल पा रहा। जी-20 समिट के दौरान किए गए कृषि व्यापार समझौते से किसानों की परेशानी और बढ़ गई है, क्योंकि अमेरिका के साथ हुए व्यापार समझौते के अनुसार, सरकार ने कई कृषि उत्पादों और पोल्ट्री उत्पादों पर आयात शुल्क कम कर दिया है, जिससे खासकर जम्मू-कश्मीर और हिमाचल के सेब उत्पादकों पर संकट है।

देश के 16 करोड़ किसानों पर सभी प्रकार के बैंकों का करीब 21 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है-यानी प्रति किसान कर्ज 1.35 लाख रुपये है। कृषि क्षेत्र में लगे व्यक्तियों की श्रेणी में वर्ष 2021 में 10,881 लोगों ने आत्महत्या की। इनमें  5,318 किसान थे और 5,563 खेतिहर मजदूर। उसी साल देश में जिन 1,64,033 लोगों ने आत्महत्या की, उनमें से 42,004 दिहाड़ी मजदूर थे, जबकि 4,246 महिलाएं थीं। संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि भारत में अभी 23 करोड़ लोग गरीबी में जी रहे हैं, जिनमें से कुछ की हालत बेहद खराब है। रिपोर्ट के अनुसार, 2005-06 से 2015-16 तक देश में गरीबी से 27.5 करोड़ लोग बाहर आए, जबकि 2015-16 से 2019-21 तक 14 करोड़ लोग गरीबी से बाहर आए। संयुक्त राष्ट्र का आंकड़ा गांवों और शहरों में विकास की खाई को भी दिखाता है। गांवों में रहने वाले 21.2 प्रतिशत लोग गरीब हैं, जबकि शहरों में यह आंकड़ा 5.5 फीसदी है।

सालाना दो करोड़ नौकरियों के वादे और ‘अच्छे दिन’ के नारे ने 2014 और 2019 में नरेंद्र मोदी सरकार को सत्ता में ला दिया था। लेकिन सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकनॉमी (सीएमआईई) की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2016 की नोटबंदी और 2017 के जीएसटी रोलआउट के दुष्प्रभावों के कारण 2018 में करीब 1.1 करोड़ नौकरियां चली गईं। इंडिया स्पेंड के विश्लेषण के मुताबिक, रोजगार के बाजार में हर साल प्रवेश करने वाले 1.2 करोड़ लोगों में से केवल 47.5 लाख लोग ही श्रम बल में शामिल होते हैं। यूपीए सरकार के दशक में गैर-कृषि क्षेत्र में सालाना 75 लाख नौकरियों का सृजन हुआ; जबकि 2013-19 की अवधि में कोविड से पहले केवल 29 लाख गैर-कृषि नौकरियां सृजित हुईं (सरकारी पीएलएफएस डेटा के आधार पर)। 2004 से 2019 के बीच ग्रामीण/शहरी भारत में शिक्षित युवाओं की संख्या बढ़ी, और फिर आर्थिक और स्वास्थ्य कुप्रबंधन के कारण कोविड़ के दौरान और भी अधिक बेरोजगारी बढ़ी। वर्तमान सरकार में युवा बेरोजगारी दोगुनी से भी अधिक हो गई है। दूसरी ओर, वास्तविक वेतन वृद्धि भी तेजी से धीमी हो गई है।

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