कनक तिवारी
ललित सुरजन की बीमारी की सुनी खबर पर अस्पताल फोन लगाया था। ललित ने पूरे होशोहवाश और उद्दाम के साथ कहा था ‘आप निश्चिंत रहिए। मैं इसे पराजित कर लौटूंगा‘ और उसके बाद हुआ भी यही। काल ने फिर छल किया। पूरे जिस्म का दिमाग ही तो नियंता है। उसी पर सोते वक्त हमला कर दिया। ललित का मस्तिष्क हथियार बना उसके सचेतन हाथ में होता, तो मौत हार जाती। मौत तब ही जीतती है जब बेईमानी करती है।
मेरे लिए दुर्योग हो गया कि ललित के जीवन के अंतिम दो तीन दिनों में मैं पूरी तौर पर संपर्कविहीन रहा। कवर्धा के निकट चिल्पी में परिवार सहित वन भ्रमण के कारण कभी कभार ही किसी से फोन संपर्क हो पाता। अचानक फेसबुक पर बुरी खबर मिली, तो उस पर भरोसा करते मैंने अपनी संवेदना जाहिर कर दी। तुरन्त अनुज मित्र विनोद साव का संदेश मिला कि अभी जीवन सांस चल रही है। संघर्ष जारी है। मैंने फौरन अपनी खबर विलोपित की। तीन दिसंबर को सुबह वापसी के समय ही पता लग पाया कि कल रात ललित की सांस थम गई। उसके धुक धुक करते रहने पर हम सबका भरोसा भी टिमटिमाता तो रहा था। आखिर सब बुझ गया। एक जीवन, पारस्परिक जीवंत रिश्ता और अपनी उम्मीदों पर आत्मविश्वास! कोई चला जाए तो सैकड़ों हजारों को उससे अपने अपने संबंध कैलेण्डर की पर्तों के उखड़ गए दिनों में डूबकर याद आने लगते हैं। ललित के लिए भी टीस ही हमारे खाते आई। हम खुद को समझाते रहेंगे कि काश ऐसा नहीं होना था! गिरी से गिरी हालत में दस साल का वक्त तो ललित को मिलना था जिससे कुछ और कर पाते। पचास वर्षों से ज़्यादा का पारस्परिक अंतरंगता का रिश्ता रहा। कई मौकों पर अकेले बैठकर हमने न जाने कितनी गुफ्तगू की।
पत्रकारिक प्रतिबद्धताओं की अभिव्यक्ति की आज़ादियों, प्रतिबंधों और भूमिकाओं को लेकर भी हम अधिकतर एक राय और हमराह होते थे। मैं कुछ ज़्यादा निखालिस हिन्दुस्तानी बना रहता था। इस इलाके में भी यूरो-अमेरिकी या साम्यवादी मुल्कों की जिरहगाथाओं से न तो मुझे लगाव था और न ही उनसे सीखने की ललक रही। इस लिहाज से ललित का लगातार आधुनिक ओर समकालीन होते रहना, बहुत सी संसूचनाओं को जिरहबख्तर की तरह अपनी तर्क देह पर लादे रहना मुझे उनमें समय के आयाम में चरैवेति कहता एक सक्रिय यायावर अचंभित भी करता रहता था।
ललित और मैं लगातार सहमति में नहीं रहे। हम असहमत भी नहीं हो पाते थे। विचित्र द्वन्द्व था। हमारे चारों ओर वैचारिक मुद्दों को लेकर अदृश्य परिधि का पहरा था। अंदर कई उपवृत्त थे, जहां हमारी अलग अलग टेरिटरी थी। ललित वामपंथी, बल्कि कम्युनिस्ट, नेहरूवादी और संवैधानिक समझ की नस्ल के सेक्युलरिस्ट थे। मैं गांधी विचारों से प्रभावित नेहरू की प्रशंसा करता दोनों के विचारफलकों के बीच के स्पेस में जद्दोजहद करता, डूबता उतराता ललित को आश्वस्त करता। कभी वे ठहाका लगाकर मुझे पराजित करने का विजयी दर्प अपनी मुस्कान पर छितरा देते। साहित्य में मध्य या उससे थोड़ा सा दक्षिणपंथ की ओर दिखाई पड़ते कई बड़े लेखकों से उनका परहेज तत्काल विह्वल होकर मुखर हो उठता था। उस आदमी में यही खासियत थी कि वह अपने पूर्वग्रह, प्रेम और प्रतिबद्धताओं के आरोह अवरोह के हिंडोलों पर चकरघिन्नी की तरह घूमने को भी अपने शैशव के मासूम चेहरे की बानगी में बतियाने की ताब रखता था। मैं तो कई बातों को हजम कर लेता हूं। आदतन बहुत वाचाल होने के बावजूद कई बार जाहिर होने से सकुचाता भी हूं।
हिन्दी में स्नातकोत्तर कक्षा में ललित के भर्ती होने के बाद कुछ दिन मैंने उन विद्याार्थियों को पश्चिमी आलोचनाशास्त्र पढ़ाया भी था। फिर कई कार्यक्रमों में एक दूसरे को हमने बुलाया। अन्य आयोजनों में शिरकत की। नतशिर होकर तथास्तु की शैली में वार्तालाप करने में भी ललित का जो परहेज कायम रहा, उसकी अनुगूंज के कारण मुझमें छत्तीसगढ़ में मेरे बचे खुचे दिनों के लिए वार्तालापरहित खोखला अहसास अवसाद भर गया है। जब उनकी एंजियोप्लास्टी हुई थी। भिलाई के मित्र रवि श्रीवास्तव और शायद अशोक सिंघई ने मुझे हड़बडाहट में फोन किया था। मैंने तत्काल संपर्क किया तो जवाब मिला कि जिस आदमी का खुद भारीभरकम हार्ट आपरेशन हुआ है वह एंजियोप्लास्टी की खबर ले रहा है! और ठठाकर हंस पड़े। मैं ‘देशबंधु‘ में लगातार हर सप्ताह छपना चाहता था, तो अपने संपादकीय अनुशासन का हवाला देते ललित ने लिखा था कि एक अखबार है जो अपने बारे में कहता है कि वह भारत का सबसे तेजी से बढ़ता अखबार है। अब कनक तिवारी भी कहते हैं कि मैं भारत का सबसे तेजी से बढ़ता लेखक हूं। देशबंधु की अपनी सीमाएं हैं। यहां मैं कैसे खपाऊं!
मायाराम सुरजन (बाबूजी) के असामयिक निधन के पहले ही मैं भोपाल में मध्यप्रदेश लघु उद्योग निगम का अध्यक्ष हो चुका था। बुरी खबर मिलते ही मैं उनके घर जल्द से जल्द पहुंचा था। तब तक कुछ ही लोग आ पाये थे। सबकी ओर मुखातिब ललित बेहद गंभीर चेहरा लिए कहीं भटकाव के जंगलों में गुम से गए थे। जब मैं पहुंचा तो हमारे बीच का रिश्ता धौंकनी की तरह उन्मत्त हुआ कि अश्रुपूरित आंखें लिए ललित ने मुझे अपनी पूरी ताकत के साथ बाहों में भर लिया। जवाब में यही मैंने भी किया। तय नहीं हो रहा था कि दोनों के दिलों की धड़कनें आपस में आलिंगनबद्ध होकर इतनी तेज धमक में बतिया रही हैं, तो बाकी देह की भूमिका का अर्थ ही क्या बचा? कुछ याद नहीं, किसी व्यक्ति ने हमें अलग किया। वे कुछ क्षण थे जब दोनों को लगा था कि हम दोनों ने एक दूसरे से ज्यादा अपने आपको पा लिया है। हम दोनों के बीच द्वन्द्व होने पर भी अब मनभेद नहीं होगा।
भोपाल में लघु उद्योग निगम और हाउसिंग बोर्ड का चेयरमैन रहते मैंने ‘देशबंधु‘ के विज्ञापनों में इजाफा किया। दफ्तरी नस्ल की आपत्ति आई कि विज्ञापन नीति में प्रसार संख्या का आधार तय है। मैंने टीप लिखी कि अभिव्यक्ति की आज़ादी के फलक को लेकर प्रसार संख्या नहीं गुणवत्ता का आधार तय करने का अध्यक्ष का अधिकार है। उस पर कुछ न कुछ खिटपिट होती रहती थी लेकिन ‘देशबंधु‘ की बानगी में कुछ न कुछ ऐसे तेवर होते थे जिनका समानांतर तब ढ़ूंढा जाता, जब वे और कहीं होते। बाबूजी के असामयिक निधन से बहुत दुख होने के बाद मैंने जबलपुर में हाउसिंग बोर्ड की कटंगा काॅलोनी का नामकरण मायाराम सुरजन नगर रखा। ललित ने कहा था, बल्कि लिखा होगा, कि क्या यह कर्ज चुकाना माना जाए? तो मैंने कहा नहीं अब मैं तुम्हारी पीढ़ी को कर्जदार बना रहा हूं। सहमत नहीं हो तो चलो, दोनों बाबूजी से पूछ लेते हैं।
मैं ‘देशबंधु‘ के साहस का लगातार कायल रहा हूं। 19 नवंबर 1977 को भारत में ‘देशबंधु‘ अकेला अखबार था जिसने इंदिरा गांधी के पक्ष में मेरा लेख आपातकाल संबंधी कई किताबों की आलोचना करने के कारण छापा था। वह जन्मदिन इंदिरा गांधी के जीवन का सबसे श्रीहीन जन्मदिन था। ‘देशबंधु‘ अपने नवोन्मेशी मौलिक प्रयोगों का साहसिक उद्यम रहा है। एक बार ललित ने तय किया कि ‘देशबंधु‘ में जो समाचार सबसे बेहतर लगा हो, वह पाठक बताए। संपादक को पसंद आया तो पाठक को एक साल तक ‘देशबंधु‘ मुफ्त मिलेगा। मैंने प्रतियोगिता में हिस्सा लिया। एक छपे समाचार का केवल मुखड़ा भेजा। वह था ‘‘बृजलाल वर्मा भ्रष्टाचार दूर करेंगें!‘‘ जाहिर है ललित ने फोन कर मुझे बताया कि साल भर देशबंधु मुफ्त में पढ़िए।
ए.जी. नूरानी ने अटल बिहारी वाजपेयी को लेकर आज़ादी के आंदोलन संबंधी बहुत तीखा लेख लिखा था। उस घटना को लेकर लोकसभा में काफी हंगामा हो चुका था। उस पूरे पाठ का लेख मेरा छपा क्योंकि संपादक के कहने से मैंने उसे पाठकीय सुलभ जिज्ञासा और भाषा के अनुकूल लिखने की संपादकीय पसंदगी का ध्यान रखा था। किस्से कई हैं। अब मेरे हिस्से में किस्से ही तो बचे। कहने में गुरेज नहीं है कि नया छोटा प्रदेश हो जाने से छत्तीसगढ़ में ऐसे बहुत कम ठौर ठिकाने हैं जहां किसी सरकारी या सियासी रोबदाब की परवाह किए बिना संस्कृति, साहित्य, कला, पत्रकारिता, शिक्षा, स्वास्थ्य, आदिवासी समस्याओं और कुशल संस्थागत प्रबंधन जैसे किसी भी विषय को लेकर कोई सार्थक तसल्लीबद्ध कुछ हासिल करने वाली बहस का कोई और अड्डा विकसित हो सके। होगा भी तो हम लोग अब वृक्ष की पीढ़ी के हैं, पौधों की तरह नहीं। भले ही पौधों के सामने हमको झुकना पड़ता है।
व्यक्ति ललित का महत्व रेखांकित हो चुका है। दरअसल छत्तीसगढ़ के भूगोल में ललित सुरजन वक्त के एक खास दौर में अपनी ‘एक मेवो द्वितीयो नास्ति‘ की सामाजिक भूमिका के लिए ज़्यादा याद रखे जाएंगे। उनकी तुलना में कोई भी बुद्धिजीवी हमारे इलाके में दर्जनों संस्थाओं से सक्रिय रूप से संबद्ध नहीं रहा है। रायपुर सहित छत्तीसगढ़ में हो सकने वाली किसी भी सांस्कृतिक परिघटना के प्रवक्ता, प्रतीक, प्रस्तोता, सूत्रधार या प्रतिभागी के रूप में ललित एक अनिवार्य उपस्थिति थे। वही शीराजा बिखर गया है। कोई विकल्प बचा ही नहीं, इस अर्थ में कि सबको जोड़कर रखने और हमराह बनाने के लिए सामाजिक समझ, साथीपन और संस्थागत सहयोग की ज़रूरत होती है। वक्त ने यह सब ललित के ही जिम्मे किया था, खुद उनकी फितरत के भी कारण। यादें कितनी भी घनी हों, धूमिल होती जाती हैं क्योंकि व्यक्ति खुद वक्त के आयाम में धीरे धीरे विस्मृत हो जाने वाली इकाई का भी नाम है। इस अर्थ में दूर दूर तक दिखाई नहीं देता कि ललित सुरजन का कोई विकल्प हम खोज पाए हैं। यह एक ऐसी क्षति हो गई जिसे भुला देना आसान नहीं है। मुझे तो व्यक्तिगत स्तर पर ललित से लगातार सहमत, असहमत रहने का द्वन्द्व जीवन की धड़कनों में सुनाई पड़ता रहेगा।