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*साहित्य : अजब-ग़ज़ब अनुवाद और अर्थ*

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       ~ पुष्पा गुप्ता 

 ‘डॉट बॉल’ का अनुवाद क्या होगा? 

एकदिवसीय मैचों में आजकल डॉट बॉल की गणना सबसे महत्वपूर्ण हो गई है- डॉट बॉल, यानी वह गेंद जिस पर रन न बना हो। मुझसे पूछा गया होता तो मैं सुझाव देता- ख़ाली गेंद।

     लेकिन सुनील गावसकर ने डॉट बॉल को बिंदी गेंद करार दिया। अब अगर गावसकर चार बार बिंदी गेंद का इस्तेमाल कर लें तो अजीब सा लगने वाला अनुवाद सहज लगने लगेगा।

क्रिकेट के ‘आउट’ शब्द का अनुवाद हम नहीं खोज पाए। लेकिन ‘नॉट आउट’ के लिए हिंदी में ‘नाबाद’ शब्द चल पड़ा। अब दिवंगत हो चुके वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ नाबाद शब्द से बहुत नाराज़ होते थे- पूछते थे कि आख़िर इस शब्द का मतलब क्या है।

      लेकिन नाबाद अब तक नाबाद है। कभी किसी ने चलाया होगा तो चल पड़ा।

      हर शब्द इस तरह नहीं चल पाता। आमिर खान ने फिल्म ‘लगान’ में ‘रन’ के लिए दौड़ शब्द का इस्तेमाल किया है- ‘फलां टीम ने इतनी दौड़ बनाई।’ शुक्र है, यह अनुवाद चला नहीं।

 अनुवाद या शब्द निर्माण की प्रक्रिया को गहराई से देखते हुए यह समझ में आता है कि शब्द में अर्थ बाद में आते हैं- वह स्मृति से अर्थ ग्रहण करते हैं और फिर वे अर्थ स्थायी हो जाते हैं।

       भारत सरकार ‘विकलांग’ के लिए ‘दिव्यांग’ शब्द का इस्तेमाल करती है। यह बिल्कुल मोदी काल की देन है। शायद इसके पीछे यह तर्क है कि विकलांग को कमतर न दिखाया जाए।

      यह उचित और मानवीय तर्क है, लेकिन उसे दिव्यांग बताना कहीं उसकी आंगिक विकलता का आभामंडन जैसा लगता है। मैं यह शब्द नापसंद करता हूं।

    मगर क्या पता, जिस तेज़ी से इस शब्द का प्रचलन बढ़ा है, आने वाले दिनों में यही स्वाभाविक लगने लगे।

आज भी खरे हैं तालाब’ और ‘राजस्थान की रजत बूंदें’ या ‘साफ़ माथे का समाज’ जैसी अनुपम कृतियां देने वाले अनुपम मिश्रा शब्दों को लेकर बेहद संवेदनशील थे।

      वे ‘संन्यास’ शब्द के दुरुपयोग से ख़ासे परेशान होते थे। उनका कहना था कि किसी क्रिकेटर या फिल्म स्टार ने अगर क्रिकेट खेलना या अभिनय करना छोड़ दिया तो इसे ‘संन्यास’ कहना संन्यास की वास्तविकता का मज़ाक बनाना है।

      इसी तरह वे उदारीकरण शब्द पर भी एतराज़ करते थे। उनकी राय में यह बाज़ार की निरंकुशता को बढ़ावा है जिसे हम ‘उदारीकरण’ जैसा शब्द देकर ढंकते हैं।

      हम सब उदारीकरण के वास्तविक आशय अब समझने लगे हैं। यानी शब्द एक हद तक सच छुपा पाते हैं, स्थितियां उनके वास्तविक अर्थ प्रकट कर देती हैं।

कई शब्दों के अर्थ चुपचाप समय और संदर्भ के साथ बदल भी जाते हैं। ‘उपदेश देना’ कभी और कहीं बहुत सकारात्मक काम रहा होगा, लेकिन आज कोई कहे कि आप उपदेश दे रहे हैं तो शायद मैं खुश नहीं होऊंगा।

     मगर शब्दों को असली अर्थ उनके इस्तेमाल से मिलता है। ‘वह कुछ ज़्यादा विद्वान बन गया है’- इस वाक्य में विद्वान का अर्थ वह नहीं है जो शब्दकोश बताते हैं।

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