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*वैदिक दर्शन : प्रतिमापूजन मीमांसा*

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          डॉ. विकास मानव

   12.12.2023 को अमावस्या थी. मृतकों के लिए कुछ करने का खास दिन. एक सज्जन साथी के मृतक परिजन के पिण्डदान के सिलसिले में उनके साथ पेहवा (कुरुक्षेत्र) गया था. मेले का भी बाप : इतनी भीड़ की पूछिए मत. बड़ी देर में नंबर आया.

  ऑप्सन सेलेक्ट करने के लिए तीर्थ पुरोहित ने रेट बताया :

मृतक की दियाबाती का : 3000/-

मृतक की आत्मा की शांति का : 5000/-

प्रेतयोनि में जाने से रोकने या वहाँ से मुक्त करने का : 7000/-

शीघ्र नरयोनि में भेजने का : 10,000/-

देवयोनि में भेजने का : 20,000/-

मोक्ष दिलाने का : 70,000/-

  अब आप बताओ : मूर्तिपूजा का दर्शन क्या इसीलिए अस्तित्व में लाया गया था? सर्वत्र संव्याप्त नियामक सत्ता यानी भगवान की क्या जरूरत? कर्मफल विधान का क्या मतलब?

   ये आदिमयुग भी नहीं है. शिक्षा का युग है, विकास का युग है, विज्ञान का युग है. आप तो कहते हो, धर्म में आस्था नहीं रही, यह नास्तिकों का युग है. ख़ैर….!

  विद्यार्थी जीवन में तंत्र संबंधी शोध-साधनाओं में अनुष्ठानिक तौर पर जो किया, सो किया. अब मुझे मूर्तिपूजा की आवश्यकता नहीं. लेकिन मूर्तिपूजा अर्थहीन ही है, ऐसा नहीं है. जन्मने के समय हर इंसान जानवर ही होता है. इंसान उसे बनना पड़ता है. वह जानवर से इंसान बनता है. इसी तरह मूर्ति अमूर्त तक ले जाने में समर्थ है. मूर्ति बेशक़ जड़ है, लेकिन जड़ में भी सर्वव्यापी चेतन है. यह चेतनता का जागरण दे सकता है. देता भी हैं. बस बुतपूजा में बुत ही नहीं बन जाया जाये. मूर्ति विसर्जित हो जाये, अमूर्त प्रकट हो जाये : यहां तक का सफ़र तय करना जरूरी होता है.

कोई पत्थर की मूर्ति पूजता है। कोई कागज की पोथी पूजता है। कोई काष्ठ की आकृति पूजता है। कोई पत्थर का खण्ड चूमता है। कोई छायाचित्र पूजता है। कोई हाइमांस की मूर्ति पूजता है। किन्तु पूजते सभी हैं प्रतिमा। कोई-कोई आग की प्रतिमा ज्वाला के रूप में पूजते हैं। ज्योति जलाना, ज्योति को नमस्कार करना, प्रज्ज्वलित आग में हवन करना, अरिन प्रतिमा का पूजन है। पौराणिक सनातनी तो सब को पूजते हैं-पशु गाय, वृक्ष अश्वत्थ, तुलसी आदि, नदी गंगा यमुना नर्मदा आदि, पहाड़ गोवर्धन कामदगिरि आदि, सरोवर गंगासागर, भूत पृथ्वी जल आदि, यह सूर्य चन्द्र आदि, संबंधी पिता माता गुरु आदि। सब कुछ विष्णु है, सब विष्णु का है, सबमें विष्णु है, सब कुछ विष्णु में है।

    अतः मूर्तिपूजा प्रशस्त पथ है। जिसमें जड़ का भाव है, उसके लिये प्रतिमा जड़ है। जिसमें चेतन का भाव है, उसके लिये वह चेतन है। यह ध्रुव सत्य है। संसार भाव प्रधान है। भगवान् भाव वश्य है। उसकानाम ही भाव है। ‘भाव’ विष्णुसहस्रनाम।

      ऐसा कौन व्यक्ति है, प्राणी है जो अपनी पूजा नहीं करता ? सभी पेट-पूजा (भोजन) करते हैं। सभी अपने शरीर का ध्यान रखते हैं, सजाते संवारते हैं। यह स्वमूर्ति पूजा है। यह स्वमूर्ति सप्तधातु निर्मित है। वात पित्त कफ इसके दोष हैं। यह शरीर विकारों है। जब कि पत्थर का शरीर वा प्रस्तर प्रतिमा त्रिदोष हीन है, अविकारी है, मूलमूत्रादि से असंपृक्त है। ऐसी प्रतिमा (प्रस्तर मूर्ति को क्यों न पूजें?

प्रतिमा के रूप में विश्व (परमेश्वर) उपास्य है। यह मन्त्र है :

  संवत्सरस्य प्रतिमां यां त्वा रात्र्युपास्महे। 

 सा न आयुष्मतीं प्रजां रायस्पोषेण सं सृज।।

~अथर्ववेद काण्ड [३, सूक्त १०, मंत्र ३]

    संवत्सरस्य प्रतिमाम् याम् त्वाम् रात्रि उपास्महे। 

सा नः आयुष्मतीम् प्रजाम् रायः पोषेण संसृज||

यहाँ रात्रि शब्द प्रतिमा का विशेषण है। अतः इसका अन्वय इस प्रकार है :

 संवत्सरस्य यां रात्रिप्रतिमां नः उपास्महे। 

 सा त्या आयुष्मती प्रजा रायस्पोषेण संसृज|| 

    १. संवत्सरस्य = संवत्सर षष्ठी एक वचन संवत् + सरः= संवत्सरः।

 संवत् (अव्यय) = सम् + क्यू (ध्वादि आत्मने वयते जाना हिलना-डुलना) + क्विप् य लोपः तुक् च।

 सरः = सृ (भ्वादि परस्मै सरति, जुहो .पर. सिसर्ति जाना, हिलना-डुलना) + अच्।

 संवत्सरः = संवसन्ति अतवोऽत्र- संवस् + सरन्। = सम् + वस् + सरन्।

      समस्त गतियों का वासस्थान ही संवत्सर है। यह विष्णु का पर्याय है। विष्णु सहस्रनाम श्लोक संख्या २३ एवं ५८ में संवत्सरः पद आया है। दो बार इस पद के आने से इसके दो अर्थ हैं। प्रथम से समस्त गतियों का संश्रय, द्वितीय से समस्त गतियों में समाहित। अर्थात् विष्णु वा विश्व। अतः संवत्सरस्य = विष्णोः, विश्वस्य। 

२. याम्यद् शब्द स्त्रीलिंग द्वितीया एकवचन। 

३. रात्रिप्रतिमाम् = रात्रि इव प्रतिमा उपमान कर्मधारय समास स्त्रीलिंग द्वितीया एकवचन।

 रात्रि = रा ( अदादि परस्मै राति देना) + त्रिप् ङीप् । प्रकाश का अभाव / अन्धकारमय / रहस्मय गूढ गहन / नीलवर्ण / घनश्याम (आकाशइव)।

 प्रतिमा = प्रति + मा (मापने) + अङ् + टाप्। आकृति।

   यहाँ प्रतिमा का तात्पर्य आकार विशेष/ चिन्ह विशेष से है। प्रतिमा वास्तविक प्रतीक होती है। इसे मूर्ति, शरीर भी कहते हैं। प्रतिमा का विशेषण रात्रि है। प्रतिमा विष्णु परमात्मा की है। रात्रि में गहनता, रहस्यमयता, गूढता प्रशान्तता होती है। रात्रि में प्रकाश (सूर्य) का अभाव रहता है। आकाश गाढनील गहन नील/घननील दिखायी पड़ता है। इस श्यामता में नक्षत्रों को श्वेत टिमटिमाहट होती है। रात्रि की समस्त विशेषताएँ विष्णु की ही हैं। प्रतिमा में इनका सन्निवेश होता है।

      विष्णु की प्रत्येक प्रतिमा नीले रंग की होती है, शान्त होती है। विष्णु के जितने चित्र बनाये जाते हैं, वे भी नीले रंग के होते हैं। विष्णु के अवतार राम वा कृष्ण की प्रतिमाएँ भी नीले रंग की होती हैं। नीलारंग गंभीरता का द्योतक है। आकाश नीला है। समुद्र नीला है। गहरी नदियों, सरोवरों का जल भी नीला होता है। नीला, श्याम, कृष्ण परस्पर पर्याय हैं। इस मंत्र में रात्रि = नील/घननील/ श्याम / घनश्याम / कृष्ण/ राम/सुन्दर/आकर्षक। नीलोत्पलश्यामं विष्णुं उपास्महे ऽहं।

 ४. त्वा = युष्मद् द्वितीया एकवचन सर्वलिंग = त्वाम्। 

५. उपास्महे = उप + आस (अदादि आत्मने आस्ते बैठना, स्थित होना, विद्यमान रहना, निरन्तर रहना) + तिङ् वर्तमान ।उप = समीपार्थक उपसर्ग उप + आस् उपास् लट् लकार उत्तम पुरुष बहुवचन आत्मनेपद में उपास्महे होता है। उपाम् अनुष्ठाने, समीपवेशने, उपासनायाम् वा सेवायाम्। 

६. सा = यद् स्त्रीलिंग प्रथमा एकवचन। यहाँ पर सा पद रात्रि प्रतिमा (नील मूर्ति) का स्थानापन्न वाचक है। 

७. नः = अस्मद् सर्वलिंग द्वितीया चतुर्थी पष्ठी बहुवचन। अस्मान् हम सबको, अस्मभ्यम् हम सब के लिये, अस्माकम् हम सब का/ की।

८. आयुष्मतीम् = आयुष्मत् शब्द स्त्रिलिंग डीप् । आयुस् + मतुप् + ङीप्। विशेषण।

 आयुस् = आ + इ (गतौ अदादि परस्मै एति) + उस्। जीवन / जीवन अवधि।

९. प्रजाम् = प्र + जन् + ड + टाप्। स्त्रीलिंग एक वचन द्वितीया। 

यहाँ प्रजा का अर्थ प्रसृजन, प्रसूति, जनन, उत्पादन, सन्तति, अपत्य, लोग, मनुष्य, कुटुम्ब।

१०. रायः =  रै शब्द धन वाचक पुंलिंग प्रथमा, द्वितीया विभक्ति बहुवचन। धनों को, सम्पत्ति को, सम्पूर्ण ऐश्वर्य को।

११. पोषेण- पुष् (भ्वादि पोषति, दिवादि पुष्यति, क्र्यादि पुष्णाति पोषण करना, सहारा देना, बढ़ने देना, बढ़ाना, विकसित करना, प्राप्त करना, अधिकार में रखना, उपभोग करना, बतलाना, दिखलाना, धारण करना, समृद्ध होना, उन्नति करना, प्रशंसा वा स्तुति करना, भरणपोषण करना, देखभाल करना, सम्हालना) + घञ्। तृतीया एकवचन पुंलिंग। रयूगतौ भ्वादि आ. रयते से रयस् तथा रै शब्द बना है।

     दोनों का अर्थ धन है। धन चलता फिरता रहता है। सम्पत्ति सतत किसी के पास नहीं रहती। लक्ष्मी चञ्चला है। श्री चपला है। ऐश्वर्य कभी टिकता नहीं। सतत गतिशील रहने से धन सम्पत्ति ऐश्वर्य श्री लक्ष्मी को रयस् वा रै नाम दिया गया है। जो व्यक्ति, स्थान एवं समय से न बँध कर इन सब से परे हैं, वह रै/रयस् वा धन है। रय् + अच् = रयः [रयस्] | रय का अर्थ है- धारा, प्रवाह, वेग, चाल, गति, उत्साह, बल। जिसमें धारा है, जो प्रवाहयुक्त है, वेगवान् है, सचल है, गतिशील है, उत्साही है, बलशाली है, शक्तिमन्त है, वही राय/राय/रायम् है। इस प्रकार रायस +पोष= रायस्पोष। रायस्पोषेण अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त पोषण से / श्री युक्त स्तुति से / समृद्धिमय अधिकार से / देवी सम्पत्ति के द्वारा / ज्ञान भक्ति धन के द्वारा ऐसा अर्थ हुआ। 

१२. संसृज = सम् + सूज (तुदादि परस्मै सृजति दिवादि आत्मने सृज्यते) + तिङ्।

 संसृज मिलना, मिश्रण करना संयुक्त करना, संपृक्त करना संसृजति संसृज्यते। लोट् (अनुज्ञा) मध्यम पुरुष एक वचन| वर्तमाने|

     यहाँ प्रतिमा के समक्ष स्थित साधक विष्णु से सामह कहता है, निवेदन करता है कि युक्त कर मिला दे सम्बद्ध कर।

 मन्त्रार्थ :

संवत्सरस्य या रात्रिप्रतिमां न उपास्महे विष्णु की जिस घनश्याम मूर्ति को हम लोग पूजते हैं।

सा त्वा आयुष्पतीं प्रजा रायस्पोषेण संसृज वह तुम (हमें) आयु, अपत्य, धनैश्वर्य के अधिकार से संयुक्त कर।

 प्रतिमा स्त्रीवाचक है। सा और त्वा प्रतिमा के लिये प्रयुक्त हुआ है। प्रतिमा विष्णु की है। प्रतिमा के सम्मुख बैठ कर भक्त भगवान् को उसी प्रकार आज्ञा देता है जैसे अबोध निर्मल बालक अपने पिता को किसी वस्तु को पाने के लिये आग्रह पूर्वक आदेश देता है। ऐसा प्रेम/ भक्ति की अतिरेकता में होता है। प्रेम के पीछे परमात्मा चलता है। प्रेम की अतिशयता में / प्रेम की प्रगाढ़ता में अपने से बड़े को तू/तुम कहा जाता है, आप नहीं। यथा-‘ त्वमेकं शरण्यं, त्वमेकं वरेण्यं, त्वमेकं जगत् सक्षिरूपं नमामः ‘ तथा ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव। इसीलिये इस मंत्र में आज्ञायां लोट् क्रिया संसृज का प्रयोग हुआ है। केवल एक देव है। वह देव विष्णु है। अन्य जितने देव हैं, वे सभी विष्णु हैं। सभी प्रतिमाएँ विष्णु की हैं। विष्णु रात्रि के समान काले हैं। अज्ञेय हैं। काला रंग अज्ञेयता का प्रतीक माना जाता है।

    इसीलिये प्राचीन काल में/से देव प्रतिमा काले रंग के पत्थर से बनाये जाने की परम्परा रही है। वेद पुराणों में जितने भी ऋषि हैं, उन्हें भी कालाकलूटा चित्रित किया गया है। काला वा नीला का अर्थ गहन वा अज्ञेय है। 

अज्ञेय को कैसे जाना जा सकता है ? समर्पण के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। परमात्मा असीम है, अखण्ड है, अमेय है। जीव ससीम है, अंश है। सीमित से असीमित की माप नहीं की जा सकती। वहा को ब्रह्म ही जानता है। ब्रह्म को जानने के लिये ब्रह्म होना पड़ता है। ब्रह्म होने के लिये अपने को ब्रह्म में मिलाना पड़ता है। यह योग मार्ग कठिन है। सर्वसुलभ नहीं है।

     सर्वसाधारण वा प्रारंभिक साधक के लिये प्रतिमापूजन का विधान किया गया है। यह स्वाभाविक और सरल है। कण-कण में व्यापी भगवान् प्रतिमा में भला क्यों नहीं होगा ? इसे मान लेने से लाभ ही लाभ है। न मानने से यद्यपि हानि नहीं है, लाभ बिल्कुल नहीं है। प्रतिमा परमात्मा नहीं है, यह सत्य है। प्रतिमा में परमात्मा का भाव होना श्रद्धा है। इस श्रद्धा से कल्याण होता है।

 गीता कहती है-‘श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्।’ ज्ञान के लिये श्रद्धा आवश्यक जो नहीं है, उसे वह माना जाय। भक्ति का यह सूत्र है, लाभ का यह मार्ग है। महर्षि बाल्मीकि लिखते है :

   रामं दशरथं विद्धि मां विद्धि जनकात्मजाम्। 

अयोध्यां अटवीं विद्वि गच्छ तात यथासुखम्॥

(अयोध्या काण्ड सर्ग ४०, श्लोक ९)

      सुमित्रा अपने पुत्र लक्ष्मण को वन जाते समय उपदेश देती है-बेटा! तुम श्रीराम को अपना पिता दशरथ समझो, जनक नन्दिगी सीता को अपनी माता (मुझे) समझो और वन को अयोध्या जानो। अब सुख पूर्वक प्रस्थान करो। इसी प्रकार, प्रतिमा देव नहीं है, इसे देवता मानो विष्णु की प्रतिमा पिता माता भाता सुहृद, नहीं है। फिर भी इसे पिता मानो, माता मानो, भाता मानो, सुहृद मित्र मानो इसमें लाभ है। 

 मूर्ति हँसती है, रोती है, बोलती है, खाती हैं, पीती है। श्रद्धावान् इसे देखता है। श्री रामकृष्ण परमहंस काली की मूर्ति को पूरा भोजन खिला देते थे। श्री बल्लभाचार्य कृष्ण की मूर्ति को दूध का कटोरा भर कर पिलाते थे। मौरा कृष्ण को मूर्ति से बात करती थी। गौरांग महाप्रभु चैतन्य जगन्नाथ की मूर्ति में संदेह समागये थे। जन्मान्ध सूरदास कृष्ण की मूर्ति के चेतन स्वरूप को देख कर उनकी लीलाओं का गान करते थे। महान् अनिष्ट होने वाला होता है तो मूर्तियाँ रोती भी हैं। यह सब दूषित बुद्धि की पहुँच से परे है। शुद्धबुद्धि वाला इसे समझता है।

     परमात्मा को मूर्ति में देखना प्रारंभिक कक्षा है। इसके आगे भगवान् को हृदय में स्थित देखना दूसरी माध्यमिक कक्षा है।

वैदिक श्रुति कहती है :

  एको वशी निष्क्रियाणां बहूनामेकं

 बीजं बहुधा यः करोति।

 तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरा;

 तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्॥

  ~श्वेश्वतरोपनिषद् (६।१२)

     यः एकः बहूनाम् निष्क्रियाणाम् वशी, एकम् बीजम् बहुधा करोति तम् आत्मस्थम् ये धीराः अनुपश्यन्ति, तेषाम् शाश्वतम् सुखम्, इतरेषाम् न। अर्थात् जो अकेला ही बहुत से निष्क्रिय जीवों का शासक है, एक बीज रूप प्रकृति को अनेक रूपों में परिणत कर देता है, उस अपने भीतर (हृदय में) स्थित परमात्मा को जो धीर पुरुष निरन्तर देखा करते हैं, उन्हीं को शाश्वत सुख (आनन्द) प्राप्त होता है, दूसरे लोगों को नहीं।

 हमारे शरीर के भीतर एक परमात्मा विराजमान है। इसलिये यह शरीर मूर्ति है। कुण्डली में लग्न शरीर का द्योतक है। लग्न को मूर्ति नाम दिया गया है। जो परमात्मा उस मूर्ति (ब्रह्म प्रतिमा) में है, वही परमेश्वर इस मूर्ति (स्वदेह्/हृदय) में है। भीतर की मूर्ति हृदय है। सभी मूर्तियाँ एक-सी हैं, पूज्य हैं। इन मूर्तियों में परमेश्वर के होने का भाव आ जाय तो मनुष्य का कल्याण हो जाय। 

      परमात्मा अणु-अणु में है। हर अणु पूज्य। हर प्राणी मूर्ति पूजक है।

      राम ने बालू की शिव प्रतिमा (लिंग) बना कर उसकी पूजा की और वे लंकापति रावण को जीतने में सफल हुए। एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा बना कर उसी को गुरु मान करे शस्त्रास्त्र संचालन में दक्षता प्राप्त किया। प्रस्तरस्तम्भ को फाड़ कर नृसिंह भगवान् प्रकट हुए। तब से पत्थर की मूर्तियाँ बना कर पूजी जाने लगी। यह सब बिल्कुल अवैदिक नहीं है।

वेद कहता है :

ऋषीणां प्रस्तरोऽसि नमोस्तु देवाय प्रस्तराय।

   ~अथर्ववेद =१६।१।६)

यह वेद विहित सत्य लोकविहित है. यह सर्वविदित है।

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