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हममें आर्य कौन है?

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#रोमिला_थापर 

रोमिला थापर लिखती हैं; आर्य जाति के सिद्धांत का उदय यूरोपीय पूर्वाग्रहों से हुआ था जिसका प्रयोग भारतीय इतिहास की औपनिवेशिक व्याख्याओं के काल में(आठरहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान) प्रारंभिक भारतीय इतिहास को लिखने के लिए किया गया था।प्राचीन भारतीय विचारों में इसकी जड़ें नहीं मिलती फिर भी इसे स्वीकार किया जाता रहा है जो भारतीय ऐतिहासिक व्याख्या का एक स्वयंसिद्ध तथ्य बन गया है।

19 वीं शताब्दी में भारतविदों(इंडोलॉजिस्ट) ने तुलनात्मक भाषाशास्त्र का इस्तेमाल करते हुए एक साझी मूल भाषा, इंडो-यूरोपीय, को परस्पर संबंध भाषाओं के उस समूह का स्रोत बताया जिसमें संस्कृत, प्राचीन ईरानी, यूनानी,लैटिन, सेल्टिक और दूसरी यूरोपीय भाषाएं शामिल थीं। एक साझी भाषा पर पहुंचने के बाद इस भाषा को एक साझी जाति, अर्थात आर्य जाति की अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में देखने में उन्हें अधिक समय नहीं लगा।

1850 के आसपास गोबिन्यु ने आर्य जाति के विचार का विस्तार किया और इसकी पहचान यूरोपीय अभिजात वर्ग के रूप में की। गोबिन्यु का तर्क था कि गोरी जातियाँ ही प्रभावशाली थीं क्योंकि मुख्यतः दूसरों को अधीन बनाकर वे संस्कृति का निर्माण करने और उसे फैलाने के साधन का काम कर रही थीं। हिटलर के नात्सी विचारों पर इस मान्यता का व्यापक प्रभाव रहा, जिसके घातक परिणाम जगजाहिर हैं।

तुलनात्मक भाषाशास्त्रियों और प्राचीन साहित्य पर काम करने वालों ने ‘आर्य’शब्द को ‘जातीय’ अर्थ में लिया। मैक्स मुलर जैसे औपनिवेशिक इतिहासकारों ने इस विचार को आगे बढ़ाया कि आर्य जो कि श्रेष्ठ जाति थी उसने निम्न मानी जाने वाली देशज जातियों को पराजित कर भारत में बस गई। आगे चलकर मैक्स मुलर ने ही यह तर्क दिया कि जाति और भाषा तो अलग-अलग हैं, किसी भाषा समूह से संबंधित कर जातियों का निर्धारण सही नहीं। लेकिन तब तक तो भाषा से जाति का अलगाव करने का समय गुजर चुका था क्योंकि आर्य जाति का सिद्धांत प्राचीन भारतीय इतिहास की बहुत सी पुनर्रचनाओं की व्याख्या के रूप में स्थापित हो चुका था।

प्राचीन इतिहास की किताबें पढ़ने वाला प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि वेदों और बौद्ध ग्रँथों में आर्य शब्द एक सम्मानित और प्रतिष्ठित व्यक्ति के लिए हुआ है न कि किसी विशेष जातिय व्यक्ति या व्यक्ति समूह के लिए। 

ऐतिहासिक क्रम में आगे चलकर यह ‘आर्य’ शब्द उन लोगों के लिए प्रयुक्त होने लगा जो संस्कृत बोलते थे और वर्णव्यवस्था के नियमों का यथासंभव(शब्द पर गौर करें क्योंकि अपने सुविधानुसार वर्णव्यवस्था के नियमों की अवहेलना तथाकथित उच्च वर्णों में भी आम था) पालन करते थे। लेकिन 19 वीं शताब्दी में ऋग्वेद की जो व्याख्याएँ विकसित हुईं(विशेषकर औपनिवेशिक लेखकों द्वारा) उसमें दास के विपरीत अर्थ में, आर्य शब्द के उल्लेख की व्याख्या जातीय अलगाव के रूप में की गई।

जो लोग भारतीय संस्कृति के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया रखते थे उन्होंने समाज का चित्रण सुंदर ग्राम समुदायों के जीवन के रूप में किया है, जिनमें सौहाद्रता थी, लडा़कूपन का अभाव था। भारतीय आदर्श समुदायों के इस चित्रण का एक आंशिक कारण यह था कि यह ग्राम समुदाय उन ग्राम समुदायों के समान ही समझे जा रहे थे जहां से यूरोप के लोग आए थे। तत्कालीन भारतीय वर्तमान को यूरोप के शैशव काल की विशेषताओं की अभिव्यक्ति माना जाने लगा।

इस प्रकार प्राचीन भारत का इतिहास मानव एवं संस्कृति के उद्भव के संबंध में यूरोपीय विचारधारा को प्रचारित करने का एक माध्यम बन गया। यहां तक की गैर-यूरोपीय समाजों की संस्कृति भी यूरोप में जारी बहसों द्वारा निर्धारित हुई थी। इनका मूल मकसद था- एक उपनिवेश की संस्कृति की पुनर्रचना और प्राथमिक प्रतिमानों के संदर्भ में अपने प्रतिरूप को देखना। ये औपनिवेशिक शक्ति के लिए नियंत्रण स्थापित करने के तरीके थे। यही कारण है कि लॉर्ड कर्जन ने ऐसी विद्वता और ज्ञान को ‘साम्राज्य की आवश्यक सामग्री’ कहके उसे प्रोत्साहन देने की बात कही थी।

 प्रोफेसर Purushottam Agrawal जी ने अपनी पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की’ में दूसरे अध्याय ‘देशज आधुनिकता और भक्ति का लोकवृत्त’ के “जाति, वर्णाश्रम और नस्ल” वाले भाग में इसे बहुत अच्छे से बताया है। उन्होंने लिखा है; बंगाल-सेंसस(1891) के सुपरवाइजर रिज्ले की हाइपोथीसिस यह थी कि जिन्होंने अपनी “आर्यन” नस्ली शुद्धता बनाए रखी है, वे ही जातियाँ पारम्परिक रूप से उच्च मानी जाती रही हैं। अकेले रिज्ले ही नहीं औपनिवेशिक सत्ता और ज्ञानकाण्ड से जुड़े अधिकाँश लोगों ने अपने चित्त के नस्लवाद को भारतीय परम्परा पर थोप दिया, और “ऑफिशियल” ब्राह्मणों ने इस थोपन का जमकर समर्थन किया। जबकि ब्रिटिश अधिकारी क्रुक ने अपने सर्वेक्षण के आधार पर बताया कि जाति “फंक्शन” पर आधारित व्यवस्था है, रक्त-शुद्धि पर नहीं; कर्मकाण्ड तत्व जाति में अवश्य है, लेकिन नस्लपरक नहीं। कर्मकाण्डपरक तत्त्व प्रकार्यपरक(फंक्शनल) तत्व के महत्व को कम नहीं कर देता। अग्रवाल सर के शब्दों में:”जाति किसी रिलीजन की नहीं, सामाजिक ढाँचे की संस्था है, वर्णाश्रम केवल एक सैद्धांतिक ढाँचा है, वास्तविकता का वर्णन नहीं।

क्रुक, नेसफ़ील्ड, इबटसन आदि प्रशासक, अध्येता वास्तविक चाल-चलगत के आधार पर बात कर रहे थे लेकिन औपनिवेशिक शासन ने नस्लवाद और ब्राह्मणवाद के संयोग से उत्पन्न “रिज्लेवाद”को मान्यता दी। 1899 में रिज्ले को 1901 में होने वाली सेंसस का कमिश्नर नियुक्त कर दिया गया और 1901 में ‘डायरेक्टर ऑफ एथनाग्राफी फ़ॉर इंडिया’। सेक्रेटरी ऑफ स्टेट ने ‘रिज्लेवाद’  पर मोहर लगा दी, यानी यह मान लिया कि भारत के देशी जीवन का सारा फ्रेमवर्क नस्लाधारित था जैसा कि रिज्ले ने बताया है।

“अकथ कहानी प्रेम की” पुस्तक का एक और उद्धवरण पढ़ें: रिज्ले के नस्ल सिद्धान्त का ‘भारत पर आर्यों के आक्रमण सिद्धान्त’ से चोली-दामन का साथ था, और रिज्ले जैसों के ब्राह्मण सहयोगी इसका लाभ उठाकर अपने आप को अपने ही देशवासियों से उच्च, सांस्कृतिक रूप से श्रेष्ठ भी सिद्ध कर रहे थे। 

आक्रमण सिद्धांत और जाति के नस्ल सिद्धांत के परस्पर सम्बंध को बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने बहुत साफ तौर से समझा था। 1946 में प्रकाशित अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘शूद्र कौन थे?’ में उन्होंने साफ कहा, “यह दावा कि आर्य बाहर से आए और भारत पर आक्रमण किया और यह कल्पना की दास या दस्यु भारत के मूल निवासी थे, एकदम गलत है।”(अधिक जानकारी के लिए पढ़ें,

शुद्र कौन? लेखक-डॉ. बी. आर. अम्बेडकर, अनुवादक- एन. आर. सागर, कन्चन प्रकाशन, शहदरा दिल्ली, संस्करण 2003,पृष्ठ सँख्या 52-53। सम्यक प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यही पुस्तक पृष्ठ सँख्या 86-88।

 ब्राह्मण-विरोध का दावा करने वाले आजकल के कुछ लोगों द्वारा जाति-प्रथा को नस्लाधारित सिद्ध करने के प्रयत्न भी बाबा साहब को शायद आश्चर्यजनक ही लगते।

रोमिला थापर लिखती हैं; जब भारतीय राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने कुछ औपनिवेशिक स्थापनाओं/प्रतिमानों पर प्रश्न चिन्ह लगाने शुरू किए तब आर्य जाति का सिद्धांत इन प्रतिमानों में शामिल नहीं था। हालांकि यह तर्क दिया जा सकता है की राष्ट्रवादी भारतीय इतिहासकारों में से अधिकतर ब्राह्मण, क्षत्रिय और कायस्थ जैसे उच्च जातियों और मध्यम वर्ग के लोग थे इसलिए आर्य जाति का सिद्धांत उन्हें जँच गया। क्योंकि इस सिद्धांत ने उनकी सामाजिक श्रेष्ठता का समर्थन किया था। एक उदाहरण है; केशव चंद्रसेन के अनुसार अंग्रेजों का भारत आना बिछड़े हुए संबंधियों के मिलन का प्रतीक था।

यहां तक की जो लोग अतीत की उच्च जाति व्याख्याओं के विरुद्ध थे उन्होंने भी इस सिद्धांत को स्वीकार कर लिया क्योंकि इसका प्रयोग करना उनके लिए फायदेमंद था। गैर-ब्राह्मण आंदोलनो के सदस्यों ने यह दावा किया कि निम्न जातियों के लोग ही भारत के मूल निवासी हैं और आर्यो के उच्चजातीय वंशज विदेशी हैं। एक बार फिर यह मान लिया गया कि एक विशेष भाषा को बोलने वाले दूसरी भाषा बोलने वालों से भिन्न प्रजाति के थे। विद्वानों द्वारा भाषा के साथ जाति के किसी समीकरण से इनकार किए जाने के बावजूद यह समीकरण भारतीय इतिहास के बारे में यूरोपीय एवं भारतीय विचारों, दोनों में दृढ़तापूर्वक आज भी अपनी जड़ें जमाए हुए है।

इस विषय पर और भी ऐतिहासिक तथ्य और विमर्श हैं, अगले किसी लेख में उन्हें सिलसिलेवार रखने की कोशिश करूँगा।

प्राचीन भारत के इतिहास पर काम करने वालों में रोमिला थापर का नाम बड़ा महत्वपूर्ण है। रोमिला थापर का लेखन कार्य मुख्यतः प्राचीन भारत के इतिहास पर केन्द्रित रहा है। उन्होंने भारत के प्राचीन इतिहास को एक नयी दृष्टि से देखा है और प्राच्यवादी निरंकुशता,आर्य प्रजाति और अशोक की अहिंसा संबंधी स्थापित मान्यताओं का खंडन करते हुए हम जैसे रिसर्चरों को बढ़िया कैनवास उपलब्ध कराया है, सम्राट अशोक के काल पर उन्होंने विस्तार से लिखा है,इसपे इनकी स्वतंत्र पुस्तक है;अशोक और मौर्य साम्राज्य का पतन एवं मौर्य समाज का पुनरावलोकन। उनके कार्य सामाजिक इतिहास के क्षेत्र में अधिक रहे हैं, आगे चलकर उन्होंने संस्कृति, समाज एवं इतिहास के बीच की कड़ियों का पता लगाया। उन्होंने इसका भी अन्वेषण किया कि इतिहास कैसे बनते और प्रस्तुत किये जाते हैं। अपने लेखन से उन्होंने सचेत किया है कि राजनीतिक लाभ के लिए इतिहास की गलत व्याख्या न की जाय। प्रायः इन सब बातों के लिए आये दिन उनकी आलोचना भी की जाती है।

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