चैतन्य भट्ट
पिछले दिनों दिल्ली, यूपी, बिहार, गुजरात समेत अन्य राज्यों में जनजीवन ट्रक और बस ड्राइवरों की अचानक हुई हड़ताल से थम सा गया। पेट्रोल,डीजल, दूध, खाद्यान्न समेत सारी आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई चरमराती दिखी और पब्लिक ट्रांसपोर्ट पूरी तरह ठप हो गया। लोग छोटी मोटी दूरियों का सफ़र करने में भी परेशान हो गए। शुक्र है कि परिस्थितियां त्राहि-त्राहि मचने के पहले ही संभल गईं । हड़ताल का कारण पिछले हफ्ते लागू नए आपराधिक न्याय विधेयक के प्रावधान रहे जिनके तहत लापरवाही या तेज स्पीड से गाड़ी चलाते दुर्घटना होने और पुलिस को बताए बिना फरार हो जाने पर ड्राइवर को 10 साल की सजा और 7 लाख जुर्माना हो सकता है। न भागने पर भी पांच साल की सजा हो सकती है। दोनों ही मामले गैर-जमानती भी हैं यानी थाने से जमानत नहीं मिलेगी। पुराने कानून के मुताबिक अधिकतम दो साल की सजा है और थाने से जमानत भी मिल जाती है।
हड़ताली ड्राइवरों का कहना है कि वह जानबूझकर हादसों को न्योता नहीं देते। ज्यादातर दुर्घटनाएं छोटी गाड़ी वालों की गलती से होती हैं मगर भीड़ उन पर टूट पड़ती है और मारपीट तो छोड़िए हत्या तक पर उतारू हो जाती है। ऐसे में अगर वो दुर्घटना के बाद रुके तो भीड़ उन्हें मार डालेगी और अगर नहीं रुकते हैं तो सरकार मार डालेगी। 10-15 हजार रुपये महिना कमाने वाले ड्राईवर सात लाख रुपये का जुर्माना कहां से देंगे। ऐसी दुर्घटनाओं से संबंधित खबरों का इतिहास टटोलें तो लगेगा की ड्राइवरों की बातों में सच्चाई है। दुर्घटना हुई नहीं कि छुटभैये नेता गुस्साई भीड़ का निजाम अपने हाथों में थाम लेते हैं और वाहनों को आग लगाने, ड्राइवर को अधमरा होने तक पीटने जैसी घटनाएं हो जाती हैं। सच कहें तो देश की आपूर्ति व्यवस्था की जीवन रेखा कहे जाने वाले लगभग 80 लाख ड्राइवरों की हालत दयनीय है। हफ्तों घर परिवार से दूर देश भर की खाक छानने वाले इन ड्राइवरों की मासिक आमदनी 25 हजार से भी कम है। सेवलाईफ फाउंडेशन का सर्वे बताता है कि आधे से अधिक ड्राइवर अन्य विकल्प न होने के कारण यह काम करने पर मजबूर हैं।
उनमें असंतोष के प्रमुख कारणों में पुलिस/आरटीओ की गुंडागर्दी, परिवार के साथ वक्त बिताने के बहुत कम मौके, ऐक्सिडेंट की आशंका में जिंदगी का खतरा और काम की कोई निश्चित समय-सीमा नहीं होना शामिल हैं। बहरहाल अखिल भारतीय परिवहन कांग्रेस (AIMTC) और गृह मंत्रालय के बीच लंबी बातचीत हुई और सरकार ने उन्हें आश्वासन दिया कि कानून अभी लागू नहीं हुआ है। नए प्रावधान लागू करने से पहले अखिल भारतीय परिवहन कांग्रेस से विचार विमर्श किया जाएगा। इस आश्वासन के बाद हड़ताल वापस हुई और जनता ने राहत की सांस ली। दबाव के आगे न झुकने की छवि वाली सरकार के दो ही दिनों में झुक जाने के राजनीतिक मायने भी निकाले गए। लोकसभा चुनाव के मद्देनजर सरकार ने समझौते का रास्ता ही ठीक समझा
। हड़ताल जारी रहने की स्थिति में उत्तर भारतीय राज्यों के नजरिए से महत्वपूर्ण 22 जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा की चर्चा नेपथ्य में जाने का खतरा था। आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बाधित होने से कीमतें बढ़ने और अर्थव्यवस्था को गंभीर रूप से प्रभावित होने की परिस्थितियां भी बन सकती थीं जो आसन्न लोकसभा चुनावों में पार्टी की विजय के लिए ख़तरनाक होतीं। इस बीच शाजापुर कलेक्टर का कारनामा भी चर्चा में रहा। साहब हड़ताल तोड़ने और व्यवस्था पुनर्स्थापित करने की महत्वपूर्ण कोशिश के लिए ड्राइवरों से बात करते करते अचानक तैश में आ गए और एक ड्राइवर को उसकी औकात याद दिला बैठे। चालक ने भी कह दिया : औकात ही तो नहीं है हमारी, वही बनाने की कोशिश तो कर रहे हैं। बात पते की थी। शासकीय परिभाषा में जनसेवक कहलाए जाने वाले कलेक्टर की बात निहायत शर्मनाक तो थी ही, गंभीर परिस्थितियों में रास्ता निकालने की उनकी मूलभूत शासकीय जिम्मेदारी के भी सर्वथा विपरीत थी। भला हो मुख्यमंत्री का कि घटना का तत्काल संज्ञान लिया और कलेक्ट्री के जलवे बिखेरने वाले साहब खेद प्रकट करने और लाइन अटैच हो कर कुर्सी तोड़ने पर मजबूर हो गए। अफसर सरकार चला रही राजनीतिक पार्टी का सार्वजनिक चेहरा होते हैं। इन्हीं से जनता सरकार को पहचानती है।
पिछले कुछ सालों से सरकारी नेतृत्व अफसरों के माध्यम से सीधे ही प्रशासन पर नियंत्रण की एक परंपरा के चलते उन पर निर्भर सा हो गया है। यही निर्भरता अफसरों को निरंकुश बना देती है। आजादी के बाद कितना भी परिवर्तन क्यों न हुआ हो, ब्रिटिश शासन द्वारा मूलतः राजा और प्रजा के सिद्धांत पर लागू उच्च प्रशासनिक व्यवस्था आज भी पुराने ढर्रे पर कायम है। उम्मीद है कि मुख्यमंत्री इस कदम को इसी एक घटना तक सीमित नहीं रखेंगे और निरंतर ऐसे कदम उठाएंगे जिससे पार्टी और सरकार की जनहितैषी नीति का वास्तविक चेहरा लोगों तक पहुंच सके। यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि पिछले हफ्ते ही पास कानूनों के प्रावधानों पर पुनर्विचार के उपरांत लागू किए जाने की घोषणा की परिस्थितियां बनी ही क्यों ?
कानून बनाने के पूर्व ही चर्चा जरूरी क्यों नहीं जरूरी समझी गई ? यही कुछ दो साल पहले अध्यादेश रूट से लाए गए कृषि कानूनों के साथ भी हुआ था। वसुधैव कुटुंबकम् की बात करने वाले हम यह क्यों भूल जाते हैं कि सामाजिक और राजनीतिक विचार विमर्श ही स्वस्थ प्रजातंत्र और प्रशासन की कुंजी है। नीति निर्धारण में जमीनी हकीकतों से अनजान अहंकारी अफसरों पर ही निर्भरता अच्छी नहीं है।