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यह आख़िर कैसा लोकतंत्र, कैसी राजनीति तो कैसा धर्म ?

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निर्मल रानी

श्री राम जन्मभूमि मंदिर,अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा समारोह 22 जनवरी को होना प्रस्तावित है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व उसके सहयोगी संगठन तथा भारतीय जनता पार्टी व उसकी केंद्र व राज्य की सरकारें इस आयोजन को न केवल राष्ट्रीय अपितु अभूतपूर्व व भव्य बनाने के लिये दिन रात काम कर रही हैं। इस आयोजन में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर केंद्र सरकार द्वारा बनाये गये 15 सदस्यीय ट्रस्ट, विशेषकर इस ट्रस्ट के भी निर्णय लेने की क्षमता रखने वाले कुछ गिने चुने मंदिर ट्रस्ट के सदस्य सक्रिय हैं या फिर स्वयं प्रधानमंत्री व उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री कार्यालय इस आयोजन की सीधी निगरानी कर रहा है।

इस आयोजन में अरबों रुपये ख़र्च होने का अनुमान है। उधर धार्मिक अनुष्ठान कहे जाने वाले इस पूरे आयोजन में हमारे देश के चार प्रमुख शंकराचार्यों इस ऐतिहासिक व धार्मिक आयोजन पर अपनी असहमति दर्ज कराते हुये इसमें शामिल न होने का निर्णय लिया है। वैसे तो ओडिशा के पुरी में गोवर्धन मठ के शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती,गुजरात में द्वारकाधाम में शारदा मठ के शंकराचार्य सदानंद सरस्वती,उत्तराखंड के बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्मठ,के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद तथा दक्षिण भारत के रामेश्वरम् में श्रृंगेरी मठ,के शंकराचार्य जगद्गुरु भारती तीर्थ सभी शंकराचार्यों ने सार्वजनिक तौर पर अपनी अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते हुये इसके कई अलग अलग कारण बताये हैं।

परन्तु इनमें सबसे महत्वपूर्ण व विस्तृत साक्षात्कार बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्मठ,के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद द्वारा सुप्रतिष्ठित पत्रकार करण थापर को दिया गया।
क़ाबिले ग़ौर है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व उसके सहयोगी संगठन व भारतीय जनता पार्टी राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन के दौरान प्रायः कुंभ मेलों के दौरान या अन्य अवसरों पर देश के साधु संतों द्वारा आयोजित विशाल धर्म संसद को अपने मंदिर आंदोलन का न केवल अगुआकार बल्कि मंदिर निर्माण व आंदोलन सम्बन्धी सभी निर्णय लेने वाला संगठन बताती थी।मंदिर आंदोलन के दौरान अक्सर यह सुनाई देता था कि मंदिर या आंदोलन सम्बन्धी फ़ैसले संत समाज ही करेगा।

परन्तु नरेंद्र मोदी के 2014 में सत्ता में आने के बाद तो गोया भाजपा व संघ ही न केवल देश बल्कि धर्म सम्बन्धी भी निर्णय अपनी इच्छा व राजनैतिक नफ़े नुक़्सान के अनुसार लेने लगा। यहाँ तक कि चारों शंकराचार्यों के अनुसार संतों से हिन्दू धर्म के सबसे प्रमुख आराध्य भगवान राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा सम्बन्धी किसी भी तरह की परिचर्चा करना तक मुनासिब नहीं समझा गया ? और जब इन्हीं शंकराचार्यों ने प्राण प्रतिष्ठा के मुहूर्त के समय को लेकर और अधूरे मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा किये जाने को लेकर तमाम सवाल खड़े किये तो पेशेवर ट्रोलर्स व दरबारी मीडिया द्वारा इन्हीं सम्मानित शंकराचार्यों पर तरह तरह के लांछन लगाये जाने लगे ? यहाँ तक कि भगवान राम को लेकर संतों के सम्प्रदाय तक पर बहस छेड़ दी गयी? उनकी कारगुज़ारियों पर सवाल खड़े होने लगे ? उन्हें कांग्रेसी बताया जाने लगा ? यहां तक कि चारों पीठों के वास्तविक शंकराचार्यों के जवाब में फ़र्ज़ी शंकराचार्य व पीठाधीश्वर तक बयानबाज़ी के लिये उतार दिए गये ? किसी के पास शंकराचार्यों के इस सवाल का जवाब नहीं कि अधूरे मंदिर में मूर्ति स्थापना और प्राण प्रतिष्ठा कैसे हो सकती है ? शंकराचार्यों के अनुसार केवल मंदिर का गर्भगृह तैय्यार होने मात्र पर ही मूर्ति स्थापना व प्राण प्रतिष्ठा बिल्कुल नहीं की जा सकती।


ज्योतिर्मठ,के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद तो 22 जनवरी की तिथि का मुहूर्त निकालने को ही चुनौती देते हुये कहते हैं कि देश में जितने भी पंचांग प्रकाशित होते हैं जिनमें पूरे वर्ष के शुभ मुहूर्त का उल्लेख होता है उनमें किसी ने भी 22 जनवरी की तिथि को विशिष्ट मुहूर्त के रूप में प्रकाशित नहीं किया है। उन्होंने यह भी बताया की काशी के एक प्रतिष्ठित ज्योतिषी से यह कहा गया कि जनवरी माह में ही कोई शुभ मुहूर्त देखकर तिथि बतायें लिहाज़ा ज्योतिषी जी ने आज्ञा पालन किया।

अब सवाल यह है कि मंदिर भी अधूरा , शुभ मुहूर्त भी ऐसा नहीं जिसे कहा जाये कि यह पांच सदियों से प्रतीक्षारत भगवन राम के मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा का अति विशिष्ट मुहूर्त हो ? फिर आख़िर यह आयोजन पूर्णतः राजनैतिक आयोजन नहीं तो इसे क्या कहा जाये ? और जब शंकराचार्य जिन्हें बुलाया गया वे जा नहीं रहे और कुछ को बुलाया ही नहीं गया ,कोई कह रहे हम ताली बजाने के लिए नहीं जायेंगे , ऐसे में कांग्रेस,सोनिया गाँधी,खड़गे,अखिलेश या कम्युनिस्टों अथवा अन्य नेताओं के पीछे पड़ना या उन्हें राम विरोधी बताकर बिकाऊ मीडिया के हाथों उनके विरुद्ध मीडिया ट्रायल छेड़ना यह आख़िर कैसा लोकतंत्र कैसी राजनीति तो कैसा धर्म ?


भगवान राम के मंदिर का आयोजन वास्तव में ऐसा होना चाहिये कि न केवल सभी साधु संत बल्कि सभी धर्मों व समुदायों के लोग,सभी राजनैतिक व सामाजिक दलों के लोग भी ख़ुशी ख़ुशी इस पावन क्षण के साक्षी बनें उसके भागीदार बनें। बजाये इसके बहुमत के नशे में मदमस्त वर्तमान सत्ता ने इस ऐतिहासिक अवसर पर शंकराचार्यों तक को आदर सम्मान व अहमियत कुछ भी नहीं दिया। यदि राजनीति के चाणक्य इस बात पर ख़ुश होंगे कि इतिहास में यह लिखा जायेगा कि राम लला को कौन लाया था तो उसी इतिहास में साथ ही यह भी दर्ज होगा कि सत्ता के अहंकार व स्वार्थपूर्ण राजनैतिक परिस्थितियों में ही जब रामलला विराजमान हो रहे थे तो उनका भवन (मंदिर ) अधूरा था। और यह भी कि उनके आगमन के समय फ़िल्मी दुनिया के लोग,उद्योगपति,खिलाड़ी,नेता आदि तो उपस्थित थे परन्तु चारों शंकराचार्य विरोध स्वरूप अनुपस्थित थे। और यह भी कि अनेक राजनैतिक सामाजिक दलों ने इस आयोजन का बहिष्कार केवल इसलिए किया था कि इस धार्मिक आयोजन को पूरी तरह राजनैतिक आयोजन बना दिया गया था।

स्वयं शंकराचार्यों का अनुमान है कि अभी मंदिर को पूर्ण रूप से तैयार होने में एक वर्ष और लग सकता है। और यह भी कि भगवान राम की मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा के लिये रामनवमी से अच्छा दिन व मुहूर्त और कौन सा हो सकता है ? परन्तु शंकराचार्यों की किसी आपत्ति या सुझाव पर विचार करने वाला कोई नहीं। उसके बाद भी राम राज स्थापना के दावे हास्यास्पद नहीं तो और क्या? इस तरह की सत्तापरक व स्वार्थपूर्ण राजनीति भविष्य में धर्म,धर्माचार्यों,अध्यात्म व परम्पराओं को चुनौती भी दे सकती है।

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