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मूर्ति शिल्प:जैसी जान यूरोप के कारीगर डालते थे वह अद्भुत

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रमाशंकर सिंह

पूर्व मंत्री, मध्यप्रदेश शासन

भारत में प्राप्त बलुआ पत्थर , काला या सफ़ेद संगमरमर , ग्रैनाइट आदि पर मूर्तिशिल्प की कला प्राचीन काल से ही विकसित थी पर यथार्थवादी शिल्पी उतने महीन बारीक और बेहतर काम में दक्ष नहीं थे जितने कि यूरोप के कलाकार थे।  

हमारे यहॉं बड़े आकार के मूर्ति शिल्प भी बनते थे लेकिन जैसी जान यूरोप के कारीगर डालते थे वह अद्भुत थी। इसीलिये सफ़ेद संगमरमर में वहॉं जैसा बना वैसा कहीं नहीं जबकि पहाड़ों को ऊपर से काटते हुये सैंकड़ों फ़ीट नीचे तक जाकर एक अच्छी खुदाई व कारीगरी  का पूरा मंदिर समूह बना देना भी भारतीय शिल्पियों की अप्रतिम कल्पना और कारीगरी का कमाल होता था। 

फ़िलहाल यूरोप की सैंकड़ों मूर्तियों में से कुछ को देखिये जिन्हें मूर्तिशिल्प के इतिहास में जगह दी गई है। 

विभिन्न माध्यमों में अमूर्त शिल्प कला भी जैसी यूरोप में विकसित हुईं वैसी और उस स्तर की तो भारत में कुछ ही और बहुत कम ही कलाकार कर पाते हैं ! 

आप , समाज या सरकार को इससे कोई मतलब है ? 

पश्चिम में ललित कलाओं के अंतरगुम्फन से ही श्रेष्ठता उपजी है। 

जब हमारे यहॉं के कथित लेखक बुद्धिजीवी को भी अपने लेखकीय दंभ से फ़ुरसत नहीं तो सामान्य व्यक्ति की आलोचना क्यों की जाये ? 

भारतीय सामान्य दोयम दर्जे का कवि या लेखक समझता है कि वह सबसे ऊपर है तब भी जबकि निकृष्ट और टीपाटापी कर कूड़ा भी छपवाये  तो भी !

रमाशंकर सिंह

पूर्व मंत्री, मध्यप्रदेश शासन

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