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इतिहास के लंबे वृत्त में कौनसे राम प्रभावी होंगे?

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हर्ष मंदर


12 वीं सदी के कवि, दार्शनिक बसावा ने लिखा था:

अमीर

शिव के लिए बनाएंगे एक मंदिर।

मैं,

एक गरीब आदमी,

क्या कर सकता हूँ?

मेरे पैर खंभे हैं,

शरीर एक मंदिर,

सिर सोने का गुंबद…

सदियों बाद, रबिन्द्रनाथ टैगोर ने एक और मंदिर के बारे में लिखा। एक राजा के बनाए मंदिर के बारे में, यह मंदिर “आसमान को चीरता है” और “एक आभूषण युक्त तख्त पर आभूषणों से सजी मूर्ति” इसमें है।

लेकिन एक साधु मंदिर को ठुकराता है और सड़क के किनारे एक पेड़ के नीचे भगवान के लिए गाता है। भीड़ उसके आसपास जमा हो जाती है। मंदिर खाली हो जाता है।

राजा खफा होता है। साधु उसे उस समय की याद दिलाता है जब आग ने उनके 20 हजार प्रजाजनों को बेघर और बेसहारा बना दिया। वह राजा के दरवाजे पर मदद की गुहार लगाने आए। लेकिन अपनी जनता को घर देने के बजाय, राजा ने एक देवता के लिए सोने से सजा घर बनाना सही समझा।

साधु राजा से कहता है,

“उस मंदिर में भगवान नहीं है, तुमने अपने को स्थापित किया है, भगवान को नहीं 

और भगवान घोषणा करता है

मेरा शाश्वत घर अनगिनत दीपों

से सजा है

नीले, अनंत आकाश में:

इसकी हमेशा मजबूत रहने वाली बुनियादें हैं

सत्य, शांति, करुणा, प्यार…

***

22 जनवरी को, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत की उपस्थिति में, पांच वर्षीय बच्चे के रूप में राम की काले पत्थर में एक 51 इंच की प्रतिमा अयोध्या में आंशिक तौर पर बने राम मंदिर में स्थापित की जाएगी और उसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाएगी। यह मंदिर बनाया जा रहा है जहां एक प्राचीन मस्जिद थी जो 1992 में एक उत्तेजित भीड़ ने गिरा दी थी।

28 हेक्टेयर में फैले परिसर में 3 हेक्टेयर में यह मंदिर लाल बलुआ पत्थर, संगमरमर और ग्रेनाइट से बनाया जा रहा है। इसकी अनुमानित लागत 217 मिलियन डॉलर है, इसके 42 दरवाजों में 100 किलो सोना जड़ा जाएगा। सरयू नदी के किनारे बसी तीर्थनागरी के कायाकल्प पर 3.85 बिलियन डॉलर खर्च होगा। 

प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि उनके पास अपनी खुशी व्यक्त करने के लिए “शब्द नहीं” हैं, कि भगवान ने प्राण प्रतिष्ठा समारोह में सभी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करने के लिए उन्हें चुना है। वह सभी भारतीयों से अपने घरों पर प्राण प्रतिष्ठा के दिन दिए जलाने का आह्वान करते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह लोगों ने 14 साल के बनवास के बाद राम के सीता के साथ लौटने पर अमावस की रात जलाए थे।

कार्यकर्ता देश भर में शहरों और गांवों में घर घर जाकर अनुरोध कर रहे हैं कि जिस दिन अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा हो, अपने घर के पास किसी मंदिर में जाकर पूजा-अर्चना करें, भजन गायें, शंख बजायें और मंदिर की घंटियाँ बजाकर इस ऐतिहासिक अवसर का जश्न मनाएं। हर कहीं बाजार भगवा झंडों से अटे पड़े हैं। मोटर सायकलों पर भगवा गमछों और झंडों से लैस युवाओं के काफिले महामार्गों पर राम के लिए जुनूनी और आक्रामक नारे लगाते घूम रहे हैं। 

***

मुझे भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के शब्द याद आ रहे हैं जब आजादी के तुरंत बाद सौराष्ट्र सरकार ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए 5 लाख रुपए आबंटित किए थे।

उन्होंने कहा था, “यह मुझे पूरी तरह अनुचित लग रहा है कि कोई सरकार इस तरह का कार्य करे और मैंने सरकार को इस बारे में लिखा है। किसी भी समय, यह अवांछित ही होता, लेकिन वर्तमान समय में जब चारों ओर भुखमरी है और हम हर तरह की राष्ट्रीय आर्थिकता और मितव्ययिता की नसीहत दे रहे हैं, सरकार की तरफ से ऐसा खर्च मेरे लिए चौंकाने वाला है। हमने शिक्षा, स्वास्थ्य और कई लाभकारी सेवाओं पर खर्च बंद किया है क्योंकि हम यह खर्च बर्दाश्त नहीं कर सकते। और यहां एक राज्य सरकार है जो एक बड़ी रकम एक मंदिर की स्थापना समारोह पर खर्च करना चाहती है।”

सोमनाथ मंदिर प्रभास पाटन सौराष्ट्र के तटीय इलाके में है। इसे मोहम्मद गजनी ने 1026 में और उसके बाद कई बार लूटा था। आजादी के बाद, उप प्रधान मंत्री सरदार पटेल ने इस मंदिर के पुनर्निर्माण का आदेश दिया था। 1950 में उनकी मौत के बाद, यह कार्य वरिष्ठ काँग्रेस नेता केएम मुंशी ने राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद के आशीर्वाद से पूरा किया।

लेकिन, जवाहरलाल नेहरू ने एक धार्मिक परियोजना में धर्मनिरपेक्ष राज्य की संलिप्तता, एक धार्मिक स्थल के पुनर्निर्माण में राज्य की फन्डिंग और मंदिर के उद्घाटन के समय 1951 में राष्ट्रपति समेत कई वरिष्ठ अधिकारियों की उपस्थिति  का विरोध किया। उन्होंने ऐसे कार्य का समर्थन नहीं किया जिससे लगता हो कि राज्य ने संवैधानिक सिद्धांतों के विरुद्ध एक धर्म के प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया।

केएम मुंशी ने जो सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का कार्य हाथ में लिए, उसे नेहरू ने “हिन्दू नवजागरणवाद” का प्रयास करार दिया। उन्होंने राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद से भी अपनी असहमति विनम्रता से जताई और कहा, “मुझे मानना होगा कि मुझे आपका सोमनाथ मंदिर के भव्य उद्घाटन से जुड़ना अच्छा नहीं लगा। यह केवल एक मंदिर जाने जैसा नहीं है, जो निश्चित रूप से आप या कोई भी कर सकता है, अपितु एक ऐसे महत्वपूर्ण समारोह में शामिल होना है, दुर्भाग्य से जिसके कुछ निहितार्थ हैं।”

लेकिन, दशकों बाद, प्रधानमंत्री मोदी नेहरू के इस आग्रह पर कि किसी धर्मनिरपेक्ष राज्य को मंदिर निर्माण कार्य से खुद को दूर रखना चाहिए, को लेकर काफी कटु  थे। उन्होंने कहा, “बहादुर लोगों की यह भूमि उन्हें माफ नहीं करेगी जिन्होंने सोमनाथ मंदिर के खिलाफ कार्य किया।” 

***

अयोध्या में जहां 460 वर्ष तक एक मस्जिद थी, राम मंदिर का निर्माण आरएसएस और बीजेपी के एजेंडे में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370, जो एकमात्र मुस्लिम बहुल प्रदेश जम्मू-कश्मीर को सुरक्षा देती थी, को हटाने और समान नागरिक संहिता स्थापित करना शामिल था। यही कारण है कि बाबरी मस्जिद की जगह राम की प्रतिमा की स्थापना आरएसएस-बीजेपी के लिए जीत का पल है।

लेकिन, जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है, यह केवल जमीन के एक छोटे टुकड़े, जिसका आकार उत्तर प्रदेश के एक छोटे शहर में दो फुटबाल मैदानों जितना है, के लिए नहीं था। यह एक प्राचीन मस्जिद, जिसे गिरा दिया गया है और भव्य मंदिर के बीच प्रतिस्पर्धा का भी नहीं था। यह देश कैसा है और भविष्य में कैसा होगा, यह किसका देश है और अलग पहचान व विश्वास के लोग किन शर्तों पर इस विशाल देश में साथ रह पाएंगे इसके बारे में विवाद था।

भारत की एक धारणा थी- जिसके लिए महात्मा गांधी ने अपने प्राणों की आहुति दी और जो बाबासाहेब अंबेडकर ने संविधान में लिखी। यह ऐसा भारत था जो हर पहलू से हर धर्म और पहचान के लोगों का था। विचार था कि भारत के मुस्लिम नागरिक भी अपनी जन्मभूमि और चुनी जमीन पर वही और समान दावा कर सकेंगे जैसे भारत के हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध और पारसी व ईसाई भी। यह आश्वस्ति थी कि विश्वासों, धर्मों और भावनाओं का कोई पदानुक्रम नहीं होगा। किसी एक समूह के लोगों को शक्तिशाली और बहुमत वाले धर्म के लोगों के दावों के संदर्भ में अपने दावे छोड़ने नहीं होंगे।

इस विचार के विरुद्ध भारत के बारे में दूसरी एक कल्पना है, बीजेपी, आरएसएस और हिन्दू महासभा की। यह ऐसे राष्ट्र का विचार है जो उनके (उच्च जातीय) हिन्दू लोगों का होगा। इसमें सिख, जैन और बौद्ध पहचान के लोग भी शामिल हैं क्योंकि उनके धर्म भारतीय भूमि से ही निकले हैं। लेकिन इस्लाम और ईसाइयत “विदेशी” पराए धर्म हैं। भारत के लिए इस वैकल्पिक विचार में उनके अनुयाइयों को भारत में रहने की “अनुमति” (उच्च जातीय) हिन्दू बहुसंख्यक देंगे लेकिन सिर्फ इस शर्त पर कि वह अपने विश्वास, भावनाएं बहुमत वाले धर्म और संस्कृति के अधीन रखें।

बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर के निर्माण के लिए समूचा अभियान दावा करता है कि वह सभी हिंदुओं के प्रतिनिधि के रूप में बोल रहे हैं। लेकिन, विश्व हिन्दू परिषद, एक उग्र हिन्दुत्व संगठन जो मुख्य वादी था, और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा कई हिंदुओं की भावनाओं का प्रतिनिधिव तो करते होंगे, सभी हिंदुओं का तो किसी भी कोण से नहीं।

यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय के जिस निर्णय से हिन्दू पक्ष को जमीन आबंटित की गई, स्पष्ट करता है कि ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि 16 वीं शताब्दी में राम मंदिर गिराकर मस्जिद बनाई गई थी। लेकिन जैसा कि मैंने उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद भी पूछा था, क्या यह कभी स्थापित किया जा सकता था कि जहां मस्जिद बनी थी, वहां कभी मंदिर था?

क्या कोई ऐसे पुख्ता कानूनी और संवैधानिक आधार हैं कि 21 वीं सदी में इतिहास की संभावित गलतियों को ठीक किया जा सके जैसा कि लाल कृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में बाबरी मस्जिद की जमीन पर राम मंदिर निर्माण के समूचे आंदोलन की मंशा थी? और अगर ऐसा है, तो कौन तय करेगा कि यह कहां खत्म होगा? क्या यह इतिहास दुरुस्त करने की कवायद अन्य विवादित पूजास्थलों तक भी जाएगी? और यह भी कि हम इतिहास में कितना पीछे जाएंगे?

इतिहास के 500 वर्षों पर ही क्यों रुका जाए? 1000, 15000 या 2000 उससे भी अधिक पीछे क्यों न जाया जाए? ऐतिहासिक दस्तावेज़ हैं जो स्थापित करते हैं कि भारत का काफी हिस्सा नौवीं सदी तक बौद्ध था और यह कि बौद्धवाद को ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व ने कुचल कर भारत में लगभग समाप्त कर दिया था। बौद्ध स्तूप तोड़कर कई मंदिर बनाए गए थे।

तो, जहां हिन्दू मंदिर हैं, हम उनके स्थान पर बौद्ध धर्मस्थलों के पुनर्निर्माण की मांग करें? और भारत के कई आदिवासी समुदाय के पूजास्थलों का क्या जिनके स्थान पर हिन्दू धर्मस्थल बनाए गए? कौन तय करेगा कि हम इतिहास में कितना पीछे जाएँ, और क्यों हम ठीक करने के लिए कुछ इतिहासों को चुनें और अन्य इतिहासों को नहीं? इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि हमारे संविधान में और कानून में क्या है जो इन चयनों को सही ठहराता है?

कई हिन्दू मानते हैं कि राम अयोध्या में जन्मे थे, लेकिन ऐसी विविधता भी है मान्यताओं में कि क्या उनके जन्म की अयोध्या वर्तमान अयोध्या में ही है? और आज के अयोध्या में भी कई स्थान हैं जहां निवासी दावा करते हैं कि राम वहीं जन्मे थे। क्या आधार थे कि सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ हिंदुओं के इसी विश्वास को मान्यता दी कि राम तोड़ी गई मस्जिद के स्तंभों के स्थान पर ही जन्मे थे और अन्य कई हिंदुओं के उस विश्वास को मान्यता नहीं दी कि राम कहीं और जन्मे थे?

***

ज्यादा चिंताजनक यह है कि राम मंदिर को बीजेपी-आरएसएस ही नहीं, बल्कि राजनीतिक वर्ग का बड़ा हिस्सा नैतिक, आध्यात्मिक और कानूनी वैधता दे रहे हैं। तीन आपराधिक कृत्य थे जिनका अंजाम मस्जिद के मंदिर परिवर्तन में हुआ। पहला आपराधिक कृत्य 1949 में मस्जिद में राम प्रतिमा को संदिग्ध और अवैध तरीके स लाया जाना,  जिससे मस्जिद में इबादत बाधित हुई।

दूसरा 1992 में उत्तेजित भीड़ द्वारा मस्जिद तोड़ना जिसे लाल कृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं का समर्थन प्राप्त था। इसे भारत के उप राष्ट्रपति केआर नारायणन ने महात्मा गांधी की हत्या के बाद देश का सबसे दूसरा दुखद दिवस करार दिया। आंदोलन और विध्वंस ने 1989 से 1993 तक देश भर में भयावह दंगे भड़काए, जिनमें हजारों जानें गईं और इसके जख्म दशकों तक नासूर बने रहे।

और तीसरा उन अदालती आदेशों का उल्लंघन था कि स्थल पर यथा स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होगा और तोड़ी गई मस्जिद के स्थान पर अस्थायी मंदिर मस्जिद  विध्वंस के 36 घंटे में बनाकर किया गया। निर्णय जिसके तहत राम मंदिर बनाने के लिए जमीन दी गई वास्तव में उनके लिए इनाम था, जिन्होंने तीन बार कानून तोड़ा, सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन किया और भारतीय संविधान की गारंटियों और इसके सभी धर्मों को समानता के संकल्प की उल्लंघना की। 

***

मैं इस मुश्किल समय में बार-बार महात्मा गांधी के उस अंतिम उपवास को याद करने लगता हूं, जो गांधीजी ने खुद कहा था कि वह उनका सबसे बड़ा उपवास था। इसके दो सप्ताह के बाद उन्हें मार दिया गया था।

इतिहासकार विनय लाल महात्मा गांधी के जीवन के अंतिम दिनों में भारत का ज़िक्र क्रोध, नफरत और सांप्रदायिक हिंसा की उबलती केतली के रूप में किया.. हिन्दू, मुस्लिम और सिखों ने खुद को जैसे अंतिम युद्ध में उलझा लिया था। दिल्ली हजारों शरणार्थियों से भर गया था, जो अब पाकिस्तान कहलाने वाले अपने देश के हिस्से में सांप्रदायिक हिंसा से अपना सबकुछ वहां छोड़कर यहां आए थे।

दिल्ली के शरणार्थी शिविर उन मुस्लिम निवासियों से भी भरे थे जिन्होंने हिंसा के कारण अपने घर छोड़े थे या जिन्हें घरों से निकाल दिया गया था। कई मस्जिदें और दरगाह अस्थायी “मंदिरों” में बदल दिए गए थे और वहां हिन्दू देवताओं की मूर्तियाँ लगाई गई थीं या शरणार्थियों के लिए आवास बनाए गए थे। 

गांधीजी इस सबसे बेहद दुखी थे। उनका मानना था कि कोई सच्चा धर्मस्थल दूसरे धर्म के पूजास्थल को नष्ट कर नहीं खड़ा किया जा सकता और इसलिए उन्होंने मांग की कि मस्जिदें और दरगाह हमारे मुस्लिम भाइयों और बहनों को सौंपी जाएं।

इसी आधार पर, मैं सोचता हूँ कि क्या उन्होंने अयोध्या में भव्य मंदिर को सच्चा धर्मस्थल माना होता क्योंकि इसे एक हिंसक भीड़ के मस्जिद तोड़ने के बाद बनाया गया है।     

17 जनवरी को मौलाना अबुल कलम आजाद ने उपवास तोड़ने के लिए गांधीजी की शर्तें जमा हुए लोगों के विशाल समूह के सामने रखीं। इनमें, “स्वेच्छा से शहर में आवासीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल की जा रहीं या मंदिरों में परिवर्तित की गईं  सभी मस्जिदें खाली की जाएं” के साथ अन्य मांगें थीं कि दंगों से पहले जिन इलाकों में मुस्लिम रहते थे, उन इलाकों में मुस्लिमों को आने दिया जाए, ट्रेनों में यात्रा के समय उनकी सुरक्षा सुनिश्चित की जाए, उन्हें दिल्ली में अपने पुराने घरों में लौटने दिया जाए और मुस्लिमों का आर्थिक बहिष्कार न हो। 

दूसरे दिन सौ से ज्यादा संगठनों, जिनमें आरएसएस और हिन्दू महासभा शामिल थे, के प्रतिनिधि राजेन्द्र प्रसाद के घर मिले और इस मसौदे पर हस्ताक्षर किए, “हम ऐलान करना चाहते हैं कि यह हमारी दिली इच्छा है कि हिन्दू, मुस्लिम और सिख और अन्य समुदायों के लोग एक बार फिर दिल्ली में भाइयों की तरह और पूर्ण  सद्भावना के माहौल  में रहें और हम प्रतिज्ञा लेते हैं कि हम मुस्लिमों की संपत्तियों और जीवन की रक्षा करेंगे और दिल्ली में हुई घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होंगी।”

उनकी अन्य प्रतिज्ञाओं में, “हम मुस्लिमों के दिल्ली लौटने पर ऐतराज नहीं करेंगे, जो यहाँ से गए हैं और वापस आना चाहते हैं और मुस्लिम अपने कारोबार पहले की तरह कर सकेंगे” शामिल थी।

और सबसे महत्वपूर्ण यह भी : “मस्जिदें जो इस समय हिंदुओं और सिखों के कब्जे में हैं लौटाई जाएंगी।”

यह गांधीजी की हत्या से बारह दिन पहले की बात है।

***

महान कवि तुलसीदास ने 16 वीं शताब्दी में वाल्मीकि की संस्कृत में सुनाई राम की कहानी अवधि में सुनाई, जो आम लोगों की भाषा थी। उनकी रामचरित मानस विश्व साहित्य की महान गाथाओं में से एक है। 

लेकिन चूंकि उन्होंने इसे संस्कृत में न लिखकर कामकाजी लोगों की भाषा में लिखा, ब्राह्मण खफा हो गए। उनके हमलों के प्रतिसाद के रूप में, तुलसीदास ने एक दोहा रचा, जो निम्नलिखित शब्दों से शुरू होता है :

मांगी के खाइबो, मसीत में सोइबो (खाना मांगकर खाऊंगा और मस्जिद में सो लूँगा)।

यह महत्वपूर्ण है कि उनके समय में मस्जिद ऐसी जगह थी जहां सभी धर्मों के बेघर और बेसहारा लोग आश्रय ले सकते थे। इतिहास पुष्टि करता है कि तुलसीदास ने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा वाराणसी और अयोध्या में बिताया। यह भी पुष्टि होती  है कि बाबरी मस्जिद जब बनी थी तुलसीदास किशोरावस्था में थे।

मैं कल्पना करना चाहूँगा कि तुलसीदास, राम की कहानी कहने वाली गाथा के लेखक पर जब कामकाजी लोगों की भाषा में राम कथा लिखने पर हमले हुए होंगे, वास्तव में वह बाबरी मस्जिद में सोये होंगे।

***

यह समय है जब हर भारतीय राम के बारे में अपने तरीके से सोचने पर मजबूर है।

मुझे आश्चर्य होता है :

इतिहास के लंबे वृत्त में कौनसे राम प्रभावी होंगे?

राम जिनका नाम गांधीजी के होंठों पर उस समय था जब नाथूराम गोडसे ने उन्हें मारा था?

या फिर वह राम जिनके नाम पर नाथूराम गोडसे ने गांधीजी को मारा था?

(हर्ष मंदर का लेख, अनुवाद- महेश राजपूत।)

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