-ओमप्रकाश मेहता
त्रैता युग में देश की राजधानी अयोध्या इन दिनों अपने भगवान राम के मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा को लेकर सुर्खियों में है, इस मंदिर के प्रसंग के कारण पूरा भारत ‘राम’ के रंग में रंगा नजर आ रहा है, हर देशवासी के जुबान पर इसीलिए केवल और केवल ‘राम’ का नाम है, अब इस माहौल में हर बुद्धिजीवी के दिल-दिमाग से एक ही सवाल उठ रहा है कि इस प्रसंग को धार्मिक या आध्यात्मिक कहा जाए या राजनीतिक? क्योंकि आध्यात्म के साथ राजनीति भी इस घटनाक्रम से जुड़ी साफ नजर आ रही है और राजनीति का इससे तालमेल भी किसी से छुपा नहीं है
, इसके साथ ही यह भी पूछा जा रहा है कि अयोध्या के नवनिर्मित राम मंदिर में भगवान राम की प्राण प्रतिष्ठा महज पचपन दिन बाद (सत्रह अप्रैल) को आने वाले रामनवमी (राम जन्मदिवस) अभी ही क्यों की जा रही है, क्या इस पवित्र धार्मिक कार्य को रामनवमी को सम्पन्न नहीं किया जा सकता था? किंतु वास्तव में इस प्रश्न का मूल उत्तर यह है कि रामनवमी तक देश में लोकसभा चुनावों की आचार संहिता लागू हो जाती और सत्तारूढ़ दल को उसका राजनीतिक लाभ नहीं मिल पाता, इसलिए इस आध्यात्मिक कार्य के लिए बाईस जनवरी के दिन का चयन किया गया,
वैसे इसी प्रश्न के संदर्भ में सवालकर्ता यह भी तर्क प्रस्तुत कर रहे है कि अयोध्या में जिस राम मंदिर में भगवान राम की प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन किया जा रहा है, वह अभी पूरा बन भी नहीं पाया है, इस अधूरे निर्माणाधीन मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा की जा रही है, जबकि रामनवमी तक इस मंदिर का निर्माण कार्य भी पूरा हो जाता, फिर प्राण प्रतिष्ठा की इतनी जल्दी क्या थी? तो इसका प्रच्छन्न सवाल यही है कि तब तक चुनावी आचार संहिता लागू हो जाती और सत्तारूढ़ दल को इसका राजनीतिक लाभ नहीं मिल पाता, क्योंकि इस मांगलिक को में प्रधानमंत्री की सक्रीयता उतनी नहीं रह पाती जितनी आज है।
देश पर राज कर रही भारतीय जनता पार्टी के दिग्गजों की इसी सोच का यह प्राण प्रतिष्ठा परिणाम है। वैसे भी यदि राजनीतिक दृष्टि से पिछले चुनाव व उनके परिणामों पर गौर किया जाए तो 2014 का चुनाव मोदी की लहर पूर्ववर्ती सरकार की राजनीतिक असफलताओं पर निर्णय देने वाला चुनाव था, जिसमें मोदी की जीत हुई थी, इसी का थोड़ा-बहुत असर 2019 के चुनावों के परिणामों पर भी रहा, किंतु अब 2024 की जो राजनीतिक अग्निपरीक्षा (चुनाव) का मौका आने वाला है उसे लेकर स्वयं भारतीय जनता पार्टी की सोच है कि मोदी जी की चमक में उत्तरोत्तर कमी आती गई है और अब इस चमक में वह जादू या आकर्षण नही रहा, जो 2024 के चुनावी महासागर में भाजपा की नैया को पार लगा दे, इसी कारण सत्तारूढ़ दल द्वारा चुनाव के पूर्व राम मंदिर जैसे ‘टोटके’ किए जा रहे है, जिससे कम से कम हिन्दू वोट भाजपा की झोली में ही रहे, कहीं बाहर न जाऐ और इसी सोच के कारण मुख्य प्रतिपक्षी दल कांग्रेस में भी घबराहट और बैचेनी का माहौल है और इसीलिए उसकी तीक्ष्ण नजर अब गैर हिन्दू मतदाताओं पर है और उन्हें अपने पक्ष में करने के उपायों पर गंभीर चिंतन शुरू हो गया है,
इस ‘राममय’ माहौल के कारण पूरे देश की बात तो दूर अकेले मध्यप्रदेश में ही कांग्रेस के लिए लोकसभा चुनाव में 86 लाख वोटों का अंतर पाटना मुश्किल हो जाएगा, जब एक अकेले प्रदेश में यह स्थिति है तो पूरे देश में क्या होगी? यही आज कांग्रेस की सबसे बड़ी चिंता है। पिछले पांच चुनावों से भाजपा का जनाधार दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। इसलिए अब कांग्रेस की सोच का आकर्षण धर्मगुरू शंकराचार्य बनते जा रहे है, जिन्होंने इस राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा प्रसंग से अपने आपसे दूर रखकर इस आयोजन को ‘राजनीतिक’ आयोजन का दर्जा दिया, इसके साथ ही मुस्लिमों, ईसाईयों तथा अन्य धर्मगुरूओं से भी इस संदर्भ में कांग्रेस सम्पर्क करने का प्रयास कर रही है, जिससे वे अपना समर्थन दे दें।
इस प्रकार जिस तरह देश यह पूछ रहा है कि प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन रामनवमी की उपेक्षा कर 22 जनवरी को ही क्यों? इसी तरह और भी कई सवाल इस प्रसंग में प्रकाश में लाने के प्रयास किए जा रहे है।
अब जिस तरह देश की हर घटना-दुर्घटना राजनीतिक पट्टी में लिपटी नजर आती है, इसी प्रकार यह राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा की घटना को भी राजनीतिक जामा पहना दिया गया है, अब इससे किसे कितना राजनीतिक लाभ मिल पाएगा या निराशा हाथ लगेगी? यह भविष्य के गर्भ में हैं…. जय श्रीराम!