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विजय बहादुर राय का जाना संसोपा कालीन सोशलिस्ट नेताओं के आखिरी पीढ़ी का चला जाना है 

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जयप्रकाश नारायण

विजय बहादुर राय (भाई साहब) का जाना संसोपा कालीन सोशलिस्ट नेताओं के आखिरी पीढ़ी का चला जाना है। लोकबंधु राज नारायण की समाजवादी दृढ़ता लोकतांत्रिक संघर्ष और सत्ता के साथ सड़क संसद और न्यायालय में मुठभेड़ के क्रम में हजारों की तादत में युवा पीढ़ी को आकर्षित किया था। उस पीढ़ी की आजमगढ की आखिरी कड़ी विजय बहादुर राय का 15 जनवरी को उनके आजमगढ़ आवास पर निधन हो गया।

एक हफ्ते पहले मस्तिष्काघात के चलते उन्हें एक निजी नर्सिंग होम में एडमिट कराया गया था। 14 जनवरी रविवार की शाम को अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद उन्हें उनके आवास पर ले जाया गया था। जहां उन्होंने मुझसे आखिरी बार यही कहा था कि भाई साहब आप कुछ बोल क्यों नहीं रहे हैं। मैंने कहा कि मैं आज आपको सुनना चाहता हूं। ऐसा लग रहा था कि उस समय उनके चेतन और अचेतन मनोजगत में तीखा संघर्ष चल रहा था। जब भी थोड़ी स्मृति लौटती वह भारत में घटित हो रही राजनीतिक घटनाओं चर्चा शुरू कर दे रहे थे।

स्व. विजय बहादुर राय का जन्म आजमगढ़ के सगड़ी तहसील के एक बड़े जमींदार परिवार में 40 के दशक के शुरू में हुआ था। कालेज की शिक्षा के दौरान ही उनका समाजवादी विचारों से जुड़ाव हुआ और वे समाजवादी युवजन सभा से जुड़ गए। बाद के दिनों में डॉ राम मनोहर लोहिया के करिश्माई नेतृत्व और हिंदी इलाके में समाजवादी विचारों के बढ़ते प्रभाव के क्रम में विजय बहादुर जी संसोपा में शामिल हो गए और पूर्वी उत्तर प्रदेश के दृढ़ समाजवादी व्यक्तित्व लोकबंधु राज नारायण के करीबी हो गए और उनके साथ जीवन पर्यंत बने रहे। जबकि राज नारायण जी द्वारा तैयार किए गए अनेकों नेता कार्यकर्ता सत्ता की लालच में उनके बुरे वक्त में साथ छोड़कर अन्य दलों में जा मिले थे।

मेरा संपर्क 80 के दशक के मध्य में विजय बहादुर जी के साथ लखनऊ में हुआ था। जब कॉमरेड इंद्रसेन सिंह ने मुझे आजमगढ़ के पूर्व विधायक पद्माकर लाल के आवास पर उनसे मिलवाया था। उस समय मैं आईपीएफ का प्रदेश सचिव हुआ करता था। 1984 के बाद राज नारायण का राजनीतिक ग्राफ नीचे की तरफ जा रहा था। उनके अपने सहयोगी एक-एक कर उनका साथ छोड़कर जाने लगे थे। जिसमें जनेश्वर मिश्र, सत्यदेव त्रिपाठी, बृजभूषण तिवारी सहित कई महत्वपूर्ण नाम थे। लेकिन विजय बहादुर राय ने कभी भी राजनारायण से अपना संबंध विच्छेद नहीं किया और गहराई से उनके प्रति आस्था बनाए रखें। 84 के बाद सहयोगियों के साथ छोड़ने से निराश राज नारायण ने पुरानी सोशलिस्ट पार्टी खड़ा करने की कोशिश की। उस समय सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष राम आधार पांडे थे। यही समय था जब मेरे संबंध सोशलिस्ट नेताओं कार्यकर्ताओं और विपक्षी नेताओं के साथ बनने लगे थे।

एक बार 1998 में लोकबंधु राज नारायण की दसवीं पुण्यतिथि पर आजमगढ़ में राज नारायण समग्र विचार संस्थान (जिसके सचिव विजय बहादुर राय थे) के द्वारा राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित हुआ था। इस सम्मेलन के मुख्य कर्ताधर्ता विजय बहादुर राय ही थे। यह संस्थान विजय बहादुर रायके प्रयास द्वारा खड़ा किया गया था। जिसके अध्यक्ष त्रिपुरा पूजन प्रताप सिंह “बच्चा बाबू” और सचिव विजय बहादुर राय थे। इसमें पूर्व विधायक विक्रमा राय, ओमकार अग्रवाल बस्ती के रहने वाले पूर्व प्रधानाचार्य उदयभान त्रिपाठी, बलिया के विजेंद्र मिश्र, पूर्व विधायक शिव प्रसाद सहित अनेक प्रतिष्ठित लोग सदस्य थे। भिन्न विचारों के होने के बावजूद मुझे उस सम्मेलन के प्रचार प्रसार और स्मारिका निकालने की जिम्मेदारी दी गई। जिसे मैने विजय बहादुर राय के साथ निहायत व्यक्तिगत संबंधों के कारण उठा ली।

इस सम्मेलन में पूर्व लोकसभा अध्यक्ष रवि राय, मधुकर दिघे, रेवती रमण सिंह, गिरीश पांडे, बृजभूषण तिवारी, माता प्रसाद पांडे, उदयभान तिवारी, बृजेंद्र मिश्र, मध्य प्रदेश के कल्याण जैन सहित दो दर्जन से ज्यादा पुराने सोशलिस्ट नेता शामिल हुए थे। अध्यक्षता बच्चा बाबू ने की थी और संचालन विजय बहादुर राय ने किया था। विक्रमा राय इस सम्मेलन के आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका में थे और लगभग सारे टेक्निकल कम इन लोगों के दबाव में मुझे करना पड़ा था। जिसमें एक प्रस्ताव भी आया था कि हमें वैकल्पिक सोशलिस्ट राजनीति खड़ा करना चाहिए।

इस सम्मेलन में केंद्रीय मंत्री कल्पनाथ राय आये थे और उन्होंने मंच से यह ऐलान किया कि मैं जब नेताजी का साथ छोड़ने की तैयारी में था। तो मैं उनके पास गया और उनके चरणों को पड़कर मैंने कहा था कि अब मैं और परिवार सहित कष्ट नहीं सहन कर सकता। मेरे बच्चे भूखों मर रहे हैं। मेरी हालत बहुत दयनीय है। ऐसी स्थिति में अब मेरे लिए आपके साथ रहना संभव नहीं है। घर फूंक राजनीति करने की क्षमता मेरे पास नहीं बची है। उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से कई सोशलिस्ट नेताओं पर आरोप लगाया कि जब वह नेताजी का साथ छोड़ रहे थे तो उनके अंदर इतना नैतिक साहस नहीं था कि जाकर कह पाते कि मैं आपके साथ नहीं रह पाऊंगा। इसलिए मुझे आप माफ कर दें। शायद यह कटाक्ष उस समय जनेश्वर मिश्र की तरफ था। हालांकि जनेश्वर मिश्र के साथ विजय बहादुर राय के घनिष्ठ संबंध थे और वे सम्मेलन में आने वाले थे।

विजय बहादुर राय के आदर्श राज नाराणय के साथ आजमगढ़ के गांधी कहे जाने वाले बाबू विश्राम रहे थे। ये दोनों नेता पूर्वांचल में समाजवादी आंदोलन के संत और योद्धा भी कहे जाते हैं। 60 के दशक से ही वे समाजवादी आंदोलन के साथ काम करने लगे। उनकी कर्म भूमि आजमगढ़ ही रही। तत्कालीन संसोपा के साथ जुड़कर उन्होंने अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू की।

बड़े जमींदार घर के होने के बावजूद उन्होंने अपने भविष्य और जिंदगी की कोई चिंता किए बिना समाजवादी आंदोलन के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। स्वर्गीय रामनरेश यादव जब 70 के दशक की शुरुआत में संसोपा के जिला अध्यक्ष थे तो विजय बहादुर राय उनके साथ जिला मंत्री थे। बाद के दिनों में संसोपा के टूटने के बाद ये दोनों राजनारायण के साथ ही रहे। चरण सिंह की भारतीय क्रांति दल, राज नारायण की संसोपा और डॉक्टर फरीदी की मुस्लिम मजलिस को मिलकर भारतीय लोकदल नामक पार्टी बनी तो उसके भी महत्वपूर्ण पदाधिकारी बनाए गए।

राज नारायण के संपर्क में पिछड़ों दलितों के साथ सवर्ण परिवारों से एक ऐसी पीढ़ी आई जो संपन्न घरों से थी। डॉक्टर लोहिया द्वारा तैयार किए गए समाजवादी सिद्धांतों और नारों से प्रभावित नवजवानों की पीढ़ी खासतौर से विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में भारी तादात में सोशलिस्ट विचारों से प्रभावित हुई थी। आजादी के बाद हो रहे बदलाव तथा कांग्रेस के साथ लोहिया द्वारा किए जा रहे राजनीतिक मुठभेड़ों के क्रम में युवा पीढ़ी समाजवादी आदर्श से प्रभावित हुई। हिंदी क्षेत्र में समाजवादी विचारों के आधार पर बदलाव चाहने वाले विश्वविद्यालयों से लेकर साहित्यिक-सांस्कृतिक और पत्रकारिता जगत दो खेमा बन गया था। एक लोहिया के समाजवादी विचारों से जुड़ा था और दूसरा वामपंथी विचारों के साथ रहा।

लोहिया के करिश्माई व्यक्तित्व द्वारा गढ़े गये सिद्धांतों जैसे हिंदी बनाम अंग्रेजी (रानी बनाम पटरानी) चीन भारत युद्ध केंद्रित राष्ट्रवाद से और लोकतांत्रिक प्रतिरोध की सिविल नाफरमानी कार्यशैली ने नौजवानों की पीढ़ी को प्रभावित किया था। लोहिया द्वारा दिए गए कई सूत्र और उठाई गई बहसों ने उत्तर भारत के राजनीति में हलचल पैदा कर दी थी। तीन आना बनाम तेरह आना, साढ़े तीन एकड़ तक लगान माफी, अंग्रेजी हटाओ हिंदी लाओ के भारतीय भाषा सिद्धांत तथा उग्र राष्ट्रवाद के साथ पौराणिक मिथकीय सांस्कृतिक मूल्यों के (इस संदर्भ में रामायण मेले का आयोजन और उर्मिला, राधा और द्रौपदी जैसे पत्रों का चयन) समायोजन ने आमतौर पर उच्च घराने के नौजवानों को सोशलिस्ट पार्टी में खींच लिया और वह पूरावक्ती कार्यकर्ता बन गए। विजय बहादुर राय भी उन नौजवानों में से एक थे। इनके संबंध जनेश्वर मिश्र से लेकर रमाशंकर कौशिक, कल्याण जैन, रेवती रमण सिंह, प्रभु नारायण सिंह, मंगल देव विशारद, रामधन राम, बिहार के रामनंदन मिश्रा, कर्पूरी ठाकुर, लखनऊ के भगवती सिंह सहित उत्तर भारत के लगभग सभी समाजवादी नेताओं के साथ थे।

आमतौर पर राज नारायण के साथ रहने के कारण मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडिस, कल्पनाथ राय आदि के साथ संबंध था। जो इन नेताओं के साथ जीवन पर्यन्त बना रहा। बड़े समाजवादी नेताओं के साथ उठने बैठने का मौका उन्हें मिला था और सब के बारे में उनके अपने अलग-अलग संस्मरण थे। बाद के दिनों में मुलायम सिंह द्वारा बनाई गई समाजवादी पार्टी के साथ सहानुभूति रखते थे। अनेक मत विरोधों के बावजूद आजमगढ़ में जब भी समाजवादी पार्टी का कोई उम्मीदवार चुनाव के मैदान में आता था विजय बहादुर राय पूरी ताकत के सथ उसके समर्थन में जुट जाते थे।

हमेशा से उनका आवास समाजवादी कार्यकर्ताओं का घर हुआ करता था। पत्नी के असमय निधन के कारण उनके ऊपर पांच बेटियों और एक लड़के की जिम्मेदारी आ गई। जिस कारण वह पहले की तरह सक्रिय राजनीति में नहीं रहे। लेकिन राजनीतिक जगत के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े रहे।

1998 के सम्मेलन के बाद मेरा उनसे राजनीतिक वाद विवाद और संवाद गहरा होता गया। जिसका असर यह हुआ कि हम दोनों एक साथ ही दिखने लगे थे। बाद में वह बेटियों की शादी के बाद अकेले हो गए तो मुझे उनके साथ करीब एक दशक तक रहने का मौका मिला। इस दौर में कई बड़ी घटनाएं भारतीय राजनीति में हुई थी। बाटला हाउस नरसंहार के बाद आजमगढ़ में प्रशासन और सरकार ने आतंक कायम कर रखा था। इसके विरोध में पांचवें ही दिनकचहरी पर भाकपा माले व इंकलाबी नौजवान सभा ने प्रतिरोध सभा आयोजित करने का निर्णय लिया तो कई प्रमुख नेता सहमत होते हुए भी मंच तक नहीं आए।

इस नरसंहार पर पुलिस किसी को बोलने तक की इजाजत नहीं दे रही थी। लेकिन जब आतंक को धता बताते हुए कलेक्ट्री कचहरी पर सभा आयोजित की गई। तो विजय बहादुर राय आकर वहां बैठ गए। उस सभा के बाद पुलिसिया आतंक खत्म हो गया। बाद में संदीप पांडे के नेतृत्व में सभा को पुलिस ने रोक दिया था। हालांकि कई व्यक्तियों और संगठनों ने बाद के दिनों में इस घटना का राजनीतिक फायदा उठाया। बाटला हाउस नरसंहार के विरोध में आइसा और माले की तरफ से दिल्ली में आंदोलन चलाया जा रहा था। आजमगढ़ में भी हमने नरसंहार के विरोध में नेहरू हाल में एक सम्मेलन आयोजित किया। जिसमें माले महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता नंदिता हक्सर, कविता कृष्णन लखनऊ की महिला नेत्री ताहिरा हसन सहित अनेक बुद्धिजीवी और सामाजिक राजनीतिक तथा मानवाधिकार कार्यकर्ता शामिल हुए थे। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता विजय बहादुर राय ने की ‌थी। उस समय आजमगढ़ के विपक्षी दलों के नेताओं ने उनके ऊपर इस आयोजन में शामिल होने के कारण बहुत कटाक्ष किए थे।

हम लोग जब भी राज्य दमन के खिलाफ आंदोलन चलाते थे तो चलने में अक्षम होने के बावजूद भी वह उन कार्यक्रमों में अवश्य पहुंचते थे। प्रो. एमएस कलवुर्गी की हत्या हो या गौरी लंकेश और एखलाख की माब लिंचिंग या जेएनयू पर सरकार प्रायोजित हमले के समय हुऐ प्रतिरोध संघर्षों में वे हम लोगों के साथ खड़े रहे।

बाद के दिनों में जब जेएनयू पर हमला हुआ और कन्हैया कुमार, उमर खालिद आदि को देशद्रोही कहकर संघी गिरोह ने पूरे देश में अभियान चलाया तो आजमगढ़ में हम लोगों ने उसके विरोध में सभाएं और प्रतिवाद कार्यक्रम आयोजित किये तो वे हर समय मंच पर विराजमान हो गए थे। वरिष्ठ समाजवादी होने के कारण आजमगढ़ के भूमिहार समाज के संगठनों से भी वह जुड़े थे। जेएनयू की घटना के समय उनके नाम से एक बयान जारी किया गया था कि “स्वामी सहजानंद के उत्तराधिकारी और उनके विचारों के अनुयाई कभी भी देशद्रोही नहीं हो सकते। देशद्रोहियों की तो एक जमात है जिनकी औलादों को पूरा देश जानता है।” इस बात को लेकर भूमिहार जाति के अभिजात लोगों के साथ उनका तीखा टकराव हो गया। उनके कई घनिष्ठ मित्र उनसे नाराज हो गए और उन्होंने उनसे अपने संबंध तोड़ लिये। लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। ये छिपे भाजपाई जातिवादी लोग उन्हे माले का समर्थक कहने लगे थे। इस बात का वह कभी भी प्रतिवाद नहीं करते थे।

बाटला हाउस की घटनाओं को लेकर प्रेस कांफ्रेंस के लिए कहीं जगह नहीं मिल रही थी तो उन्होंने अपना घर हम लोगों के लिए खोल दिया और वहां से हम लोगों ने भावी कार्यक्रम का ऐलान किया था। जमींदार परिवार से आने के कारण उनका रहन-सहन थोड़ा कुलीन समाज का था। लेकिन धीरे-धीरे मेरे साथ घनिष्ठता के कारण वहां गांव के गरीब मजदूर, दलित यहां तक की मुसहर परिवारों के भी कार्यकर्ता आने लगे। उनके कमरे में हमारी मीटिंगें होने लगी। वे भी इन बैठकों में धीरे-धीरे शामिल होने लगे। जिससे उनके अंदर भी रूपांतरण हुआ और वह धीरे-धीरे किसान-मजदूर वर्ग के साथ वामपंथी आंदोलन के हमदर्द बनते गए। इसी क्रम में आजमगढ़ फिल्म फेस्टिवल की कमेटी के अध्यक्ष बनाए गए और उनके नेतृत्व में चार बार शानदार ढंग से फिल्म फेस्टिवल समारोह आयोजित हुआ था। अभी थोड़े दिन पहले उन्हें जन संस्कृति मंच आजमगढ़ का सम्मानित अध्यक्ष बनाया गया था।

कोरोना वायरस से प्रभावित होने और फिसल कर गिर जाने से उनके कमर की हड्डी टूट गई थी। ठीक होने के बाद उन्हें पहली बार लकवे का असर हुआ और चलना फिरना लगभग बंद हो गया। फिर भी अगर हम लोग सप्ताह में दो-तीन बार न जाए तो छटपटाने लगते थे। मैं भले ही फोन न करूं लेकिन दिन में दो बार अनिवार्य रूप से उनका फोन मेरे पास आता रहता था। पूरे देश में जहां-जहां उनके संपर्क थे फोन करके सबका हाल-चाल लेना भी उन्होंने जारी रखा‌ था। इंडिया गठबंधन बनने के बाद उसमें होने वाले रोज बा रोज के परिवर्तनों के बारे में वह हर समय अवगत रहना चाहते थे। इस दौर में आरएसएस बीजेपी के द्वारा भारत के लोकतंत्र पर हो रहे हमले से वे बेहद चिंतित थे और चाहते थे कि इस हमले का कोई ठोस संयुक्त प्रतिरोध पूरे देश में खड़ा हो।

इस बार सात जनवरी की रात में उन्हें भीषण पक्षाघात हुआ। इस बीमारी के आक्रमण से उनको बचाया नहीं जा सका। उनके निधन के बाद आजमगढ़ में हुई श्रद्धांजलि सभा से उनकी लोकप्रियता को हम समझ सकते हैं। प्रेस क्लब में आयोजित की गई श्रद्धांजलि सभा में तो करीब करीब सभी राजनीतिक पार्टियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उसमें हिस्सेदारी की। यही नहीं शहर के अनेक बुद्धिजीवी पत्रकार और प्रतिष्ठित नागरिक कार्यक्रम में शामिल होकर उन्हें अपनी श्रद्धांजलि दी। उनके व्यवहारिक जीवन की खासियत यह थी कि सभी आयु वर्ग के लोगों के साथ उनके मधुर संबंध हो जाते थे।

पत्रकार विजय यादव ने कहा कि उनके संबंध उनके पिताजी के साथ थे। उनके साथ भी घनिष्ठता थी और उनके बच्चों के साथ भी। वह सहज ढंग से घुल मिल जाते थे। यही नहीं सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं और मित्रों के हर सुख दुख की घड़ी में उनके साथ खड़े रहना उनके स्वभाव में था। ऐसे वक्त में उनके अंदर सहयोग करने की छटपटाहट दिखाई देती थी। वह सरल स्वभाव खुलामन पवित्र और शुद्ध विचारों वाले समाजवादी थे। उनके यहां छल प्रपंच और दोगलेपन के लिए कोई जगह नहीं थी। जैसा आज तथा कथित समाजवादी खेमें में दिखाई देता है। उन्होंने सही मायने में अपने जीवन में डॉक्टर लोहिया द्वारा कार्यकर्ताओं को दिए गए निर्देश का “सत्ता संतति संपत्ति के मोह से दूर रहो” का जीवन भर निर्वाह किया और इस सिद्धांत का पालन करते हुए सबके प्रिय सहज स्वाभाविक संरक्षक बन गये। ऐसे विरल समाजवादी का हिंदुत्व के खूंखार ऊभार के दौर में अभाव निश्चय ही लोकतंत्रिक समाज लंबे समय तक महसूस करेगा। मैं ऐसे संघर्षशील समाजवादी व्यक्तित्व को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। 

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