सुभाष गाताडे
ग्राहम स्टेंस, जो ऑस्ट्रेलिया से भारत पहुंचे ईसाई पादरी थे और ओडिशा के बेहद पिछड़े आदिवासी बहुल इलाकों में गरीबों एवं कुष्ठरोगियों की सेवा में संलग्न थे, उन्हें और उनकी दो संतानों फिलिप और टिमोथी को कथित तौर पर हिंदुत्ववादी जमातों से जुड़े मानवद्रोहियों ने 22 जनवरी 1999 को जिंदा जलाया था.
22 जनवरी की तारीख की बीती तारीख को इस घटना की पच्चीसवीं सालगिरह थी.
राम मंदिर आयोजन की चकाचौंध में किसी ने इस बर्बर हत्या और उसके निहितार्थों को याद करना भी मुनासिब नहीं समझा, जबकि हम पाते हैं कि इस बर्बर हत्याकांड में वह तमाम संकेत मिलते हैं, जिन्हें 21वीं सदी की बहुसंख्यकवादी राजनीति में भरपूर प्रयोग में लाया गया.
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दक्षिणपंथी सियासत की एक आम कमजोरी हमेशा नज़र आती है. वह समूची इंसानियत के सामने अपने आइकॉन (icons) को प्रोजेक्ट करने से कतराती है, भले ही उनकी महानता के बारे में उसकी अपनी समझ हो. वह जानती है कि उसके आइकॉन को बाकी जनता का बड़ा हिस्सा सख्त नापसंद करता है.
अपनी इस कमजोरी को दूर करने के लिए वह एक आसान रास्ता तलाश लेती है- वह समाज में पहले से स्थापित आइकॉन को, जिनका नज़रिया बिल्कुल अलग रहा हो- यहां तक कि समय समय पर उन्होंने दक्षिणपंथी सियासत की मुखालिफत की हो- उनको अपनाने की, अपने में समाहित करने की कोशिश करती है.
इतना ही नहीं वह ऐसी तारीखों को भी, जिनकी शोषितों, उत्पीड़ितों और हाशिये पर पड़े लोगों की जिंदगी में खास अहमियत है, या ऐसे दिन जो उन्हें अपने अतीत के संघर्षो की याद दिलाते हैं- उन पर भी अपना कब्जा जमाने में, उन पर अपनी मुहर लगाने में संकोच नहीं करती. भारत की सरजमीं पर हिंदुत्व वर्चस्ववाद की जो परियोजना है- जो हमारे सेकुलर, सोशलिस्ट जनतांत्रिक, संप्रभु मुल्क को (जैसा कि हमारे संविधान की प्रस्तावना में परिचय दिया गया है), हिंदू राष्ट्र में तब्दील करना चाहती है, उसने गोया इस तरीके में महारत हासिल की है.
याद रहे कि यह तो हम सभी के सामने ही घटित हुआ है कि 6 दिसंबर, जिस दिन डॉ. आंबेडकर ने अंतिम सांस ली (1956), जिस दिन भारत के तमाम हिस्सों में रैलियों, सभाओं का आयोजन होता आया था, वह 6 दिसंबर का दिन हमारे देखते-देखते ही अब डॉ. आंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस के तौर पर कम बल्कि बाबरी मस्जिद विध्वंस दिवस के तौर पर अधिक याद किया जाने लगा है, जबकि हिंदुत्व वर्चस्ववादी मुहिम के आततायियों ने बेहद सुनियोजित और संगठित तरीके से 500 साल पुरानी एक मस्जिद का विध्वंस किया था.
कुछ साल पहले खुद मुल्क सर्वोच्च अदालत ने इस विध्वंस की घटना को ‘कानून का जबरदस्त उल्लंघन’ और ‘एक गंभीर अपराध’ बताया था (2019) और खुद यह साफ किया था कि इन आततायियों के यह दावे की किसी मंदिर को ध्वस्त करके मस्जिद बनी थी, इसके कोई प्रमाण नहीं मिले थे.
इस परिघटना को भी हम लोगों ने ही देखा कि गांधी और डॉ. आंबेडकर, जो क्रमशः हमारे उपनिवेशवाद विरोधी और सामाजिक मुक्ति आंदोलनों के महान नेताओं में शुमार किए जाते हैं, जिनके प्रति हिंदुत्ववादी संगठनों की कतार में हमेशा ही हिकारत की भावना नज़र आती रही है, (यहां तक कि उन्हीं विचारों से प्रेरित किसी सिरफिरे ने ही गांधी की हत्या की थी) वे किस तरह रफ्ता-रफ्ता इन संगठनों की प्रातः स्मरणीयों की सूची में शामिल कर लिए गए. किस तरह उनके संरक्षक संगठन, जो अपने आप को सांस्कृतिक संगठन कहलाता है, ने उन्हें यह दर्जा दिया है.
इतना ही नहीं उस कोशिश से भी हम लगभग एक दशक से वाकिफ रहे हैं, जिसके तहत अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन (25 दिसंबर) को गुड गवर्नेंस डे मनाने का सिलसिला शुरू किया गया (2014 से) और इस तरह बेहद होशियारी के साथ ईसा मसीह के जन्मदिन को लेकर चलने वाले उत्सवों से ध्यान हटाने की या उनसे आकर्षण कम करने की कोशिश की जाती रही है.
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ऐसी तारीखें, जिन पर हिंदुत्व अपना दांवा ठोंक सकता है, जिन्हें वह अपने ‘पराक्रम और अपने विजय’ की निशानी के तौर पर पेश कर सकता है, उसमें एक और तारीख़ जुड़ गई जब अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन के लिए 22 जनवरी की तारीख तय की गई. जाहिर-सी बात है सत्ताधारी तंत्र को इस बात का कतई अनुमान नहीं रहा होगा- या मुमकिन है कि उन्होंने सब सोच-समझकर ही यह कदम उठाया हो- कि इस तारीख के चुनाव से एक जबरदस्त विवाद खड़ा होगा, यहां तक कि हिंदू धर्म के अग्रणी समझे जाने वाले शंकराचार्य भी, विभिन्न किस्म के सवाल खड़े करेंगे.
इस आयोजन को 22 जनवरी को करने के बजाय रामनवमी को क्यों नहीं आयोजित किया जा रहा है – जिसे राम के जन्मदिन के तौर पर लोग मनाते हैं – जैसे जरूरी सवाल खड़ा करेंगे, यहां तक कि इसके पीछे लोकसभा के आसन्न चुनावों का एजेंडा देखेंगे.
वैसे इस आयोजन के स्वरूप को लेकर राजनीतिक दायरों में भी काफी सवाल उठे.
कांग्रेस पार्टी की तरफ से यह स्पष्ट किया गया कि सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना पर अपना फैसला सुनाते हुए (2019) मंदिर निर्माण का जिम्मा सरकार को नहीं बल्कि मंदिर ट्रस्ट को दिया था, जबकि 22 जनवरी का आयोजन एक प्रधानमंत्री मोदी के इर्द गिर्द केंद्रित एक ‘राजनीतिक कार्यक्रम बना है’. इंडिया गठबंधन में शामिल कई पार्टियों ने भी इस कार्यक्रम से अपनी दूरी बनाए रखी.
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याद रहे कि इस तारीख़ के चयन ने मुल्क के हालिया इतिहास के उस स्याह दिन पर भी निगाह गई, जिसने केंद्र में उन दिनों सत्तासीन तत्कालीन भाजपा हुकूमत को भी दुनिया में काफी शर्मिंदगी झेलनी पड़ी थी जब ख़बर आई कि ऑस्ट्रेलिया से बहुत पहले भारत पहुंचे (1964) ईसाई पादरी ग्राहम स्टेंस, जो अपनी पत्नी ग्लैडीज के साथ मिलकर ओडिशा के पिछड़े, आदिवासी बहुल इलाकों में गरीबों एवं कुष्ठरोगियों की सेवा में मुब्तिला थे, उन्हें अपनी दो संतानों के साथ आततायियों ने जिंदा जला दिया था, जब वह अपनी वैन में सो रहे थे.
लाजिम है कि यह सवाल भी उठा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि बेहद सफाई के साथ मुल्क के हुक्मरानों ने इस आपराधिक घटना, जिसमें हिंदुत्व वर्चस्ववादी तंजीमों की सहभागिता साफ थी, की 25 वीं सालगिरह, जिसे कोई भी शांतिप्रिय मुल्क याद करना चाहता, आत्ममंथन करना चाहता, उसे चुपचाप भुला देने का इंतज़ाम किया.
विडंबना यही है कि उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद ग्राहम स्टेंस का किस्सा नए सिरेसे बहस मुबाहिसे का मुद्दा बना.
याद रहे कि वह एक और काली रात थी, जब ओडिशा के बेहद पिछड़े मनोहरपुर इलाके में आदिवासियों के बीच लंबे समय से काम कर रहे ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चे उसी रात बेहद थक-हारकर अपने वैन में ही सोए थे, उन्हें दारा सिंह नाम आततायी की अगुआई में, जो औपचारिक तौर पर किसी गोरक्षा दल से जुड़ा था, उसने तथा उसके गिरोह के लोगों ने वैन में आग लगा कर मार डाला था.
प्रत्यक्षदर्शियों का यह भी कहना था कि जब आग लगने के बाद जब इन पीड़ितों ने किसी तरह बाहर निकलने की कोशिश की तो अपने साथ लाए लकड़ी के डंडों से उन्हें अंदर ढकेला गया था. इन आततायियों का दावा था कि ग्राहम स्टेंस आदिवासियों के धर्मांतरण में लगे थे.
इस घटना की पड़ताल में इन अपराधियों के हिंदुत्ववादी संगठनों से संबंधों की बात भी सामने आई थी.
और दुनिया भर में इस हत्याकांड की जबरदस्त भर्त्सना हुई. यहां तक कि तत्कालीन राष्ट्र्रपति केआर नारायणन ने इस घटना की कड़ी भर्त्सना की और उसे ‘हमारी लंबे समय से चली आ रही सहिष्णुता और सद्भावना का मखौल बताया. उनका यह भी कहना था कि ‘दुनिया की स्याह घटनाओं की सूची में इसे शुमार किया जाएगा.’ (A monumental aberration of time-tested tolerance and harmony. The killings belong to the world’s inventory of black deeds.)
गौरतलब है कि राष्ट्र्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया पहले से ही ईसाइयों पर हमले की बढ़ती घटनाओं के बारे में लिख रहा था. वर्ष 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई में एक मिलीजुली सरकार केंद्र में बनने के बाद ऐसी घटनाएं बढ़ी थी.
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दरअसल तत्कालीन भाजपा संघ नेताओं को यह बात और खली थी कि दारा सिंह जैसे हत्यारे के बढ़ते महिमामंडन की ख़बरें- यहां तक कि इलाके में उसके बचाव के लिए ‘दारा सेना’ जैसे संगठनों का निर्माण हुआ था, उसने मीडिया में वाजपेयी शासन के तहत धार्मिक अल्पसंख्यकों की बढ़ती दुर्दशा की बात होने लगी थी.
विश्लेषकों ने चंद सप्ताह पहले प्रधानमंत्राी वाजपेयी के उस वक्तव्य का भी उल्लेख किया था जिसमें वह ‘आदिवासियों के ईसाई धर्म में धर्मांतरण के बारे में राष्ट्र्रीय बहस की मांग’ करते दिखे थे. याद रहे उनके इस बयान की पृष्ठभूमि गुजरात के डांग नामक आदिवासी बहुल जिले में चर्च पर हो रहे बढ़ते हमलों की ख़बरें थी जिसमें उल्लेख किया गया था कि हिंदुत्ववादी कार्यकर्ताओं ने ‘सूरत के पास के जंगलों में लकड़ी और बाम्बे से बने आदिवासियों के तीन दर्जन से भी अधिक चर्चों को को जला डाला था.’ और जब इस बात पर हंगामा बढ़ा तब प्रधानमंत्राी वाजपेयी डांग के दौरे पर गए थे.
ग्राहम स्टेंस हत्याकांड में अदालत ने यही फैसला किया कि हत्यारे दारा सिंह को उम्रकैद की सज़ा हो, मगर उसने हिंदुत्व वर्चस्ववादी संगठनों की इलाके में बढ़ती सक्रियताएं और जिसके चलते वहां उत्पन्न नफरत और धर्मांधता के माहौल का जिक्र नहीं किया, न उसने दारा सिंह के सांगठनिक रिश्तों का जिक्र किया.
दरअसल इस अदालती फैसले का सबसे विवादास्पद हिस्सा था- जिसे जनाक्रोश के चलते अदालत को हटाना पड़ा- उसमें ग्राहम स्टेंस के बारे में कुछ विवादास्पद वक्तव्य दिए गए थे, जो एक तरह से इस हत्याकांड को वैधता प्रदान करते दिख रहे थे.
सर्वोच्च न्यायालय का कहना था:
‘इस मामले, जिसमें ग्राहम स्टेंस और उसके दो बच्चों की हत्या हुई, वहां मकसद ग्राहम स्टेंस को उनकी धार्मिक गतिविधियों को लेकर सबक सिखाना था, जहां वह गरीब आदिवासियों को ईसाई बना रहे थे.’
(In the case on hand, though Graham Staines and his two minor sons were burnt to death while they were sleeping inside a station wagon at Manoharpur, the intention was to teach a lesson to Graham Staines about his religious activities, namely, converting poor tribals to Christianity.)
जैसा कि स्पष्ट किया गया कि इन टिप्पणियों को अदालत को हटाना पड़ा.
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इस बर्बर घटना की 25वीं सालगिरह बीत गई है. समाचारों के मुताबिक, ग्राहम स्टेंस की पत्नी ग्लैडीज इलाके में कुष्ठ रोगियों के एक अस्पताल का निर्माण हो जाने के बाद ऑस्ट्रेलिया लौट गई हैं, उनकी बेटी, जो एकमात्र जिंदा बची थी, वहां एक डॉक्टर के तौर पर कार्यरत है. जैसा कि विदित है कि ग्लैडीज ने स्टेंस के हत्यारों को ‘माफ कर दिया है, जो नफरत के अलावा कोई दूसरी जुबां नहीं जानते हैं.’
लेकिन यह कहानी का अंत नही है और न ही होना चाहिए.
आज जब माहौल ऐसा बनाया जा रहा है ताकि हम अपनी यादों से भी वंचित हों, हम अपनी ‘स्मृतियों को भी उन्हें सौंप दें,’ तब यह बेहद जरूरी हो जाता है कि हम अपनी स्मृतियों पर पहरा मजबूत करें और भूले नहीं कि ग्राहम स्टेंस की हत्या एक तरह से हिंदुत्व वर्चस्ववाद की आगे की बढ़ती यात्रा में एक मील का पत्थर थी, जिसने समूचे उपमहाद्वीप में नफरत और धर्मांधता की लहर पैदा की.
आप गौर से देखें और पाएंगे कि किस तरह उसमें हमें अपने आसन्न हिंसक भविष्य की झलक मिलती है.
ये हत्याएं एक तरह से वह पूर्वपीठिका थी, जैसी घटनाएं 21वीं सदी की शुरुआत में हमारे इंतजार में खड़ी थी. कई सारी परिघटनाएं जिनके बीज हमें इस हत्याकांड में मिलते हैं, वह न आगे चलकर विकसित होती गई, बल्कि उनका अधिकाधिक सामान्यीकरण भी देखने को मिला. फिर चाहे हत्यारों के महिमामंडन का मसला हो या ऐसे मानवद्रोही कारनामों को राजनीति के आकाओं द्वारा वाजिब ठहराने की कोशिश हो या न्यायपालिका का धर्मनिरपेक्षता के प्रति समझौतापरस्त रुख हो, जो हत्यारों के ‘गुस्से’ की बात को वाजिब ठहरा रही थी.
यहां तक कि इस घटना में फेक न्यूज का भी प्रयोग दिखता है, जिसके आधार पर आततायियों ने भीड़ को एकत्रित किया था.
इस घटना के महज तीन साल बाद ही हम गुजरात के नरसंहार को देखते हैं (2002) जिसमें एक हजार से अधिक निरपराध लोग मारे गए और जिसमें राज्य प्रशासन और उसके कर्णधारों की भूमिका पर भी सवाल उठे. दुलीना, झज्जर सूबा हरियाणा में दलितों के पीट-पीटकर मारे जाने की घटना भी इन्हीं दिनों की है, जब मरी गाय की खाल उतारने वाले दलितों को गोहत्या के जुर्म में जनता ने ही पीट-पीटकर मार डाला था, खुद पुलिस स्टेशन के सामने, जब कई अधिकारी प्रत्यक्षदर्शी थे और शेष समाज इन हत्यारों के समर्थन मे खड़ा था.
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जैसा कि हम शुरुआत में जिक्र कर चुके हैं कि दुनियाभर के दक्षिणपंथी आप के आइकॉन और खास तारीखों पर कब्जा करने में महारत हासिल किए हैं और अपने मानवद्रोही एजेडा को आगे बढ़ाते रहते हैं.
9/11 वह तारीख जिसे इंसानियत चिली जैसे लातिन अमेरिकी मुल्क में सीआईए द्वारा समर्थित तख्तापलट की घटना और समाजवादी विचारों के साल्वाडोर एलेंदे की हत्या तथा हजारों लोगों को मारे जाने की तारीख के तौर पर याद रखती आई है, अब 9/11 को अमेरिका में हुए इस्लामिस्ट आतंकवादी हमलों के रूप में अधिक याद करती है.
हमें अपने आइकॉन पर और अपनी तारीखों- जो हमें प्रेरणा देती हों, जो मानवद्रोही ताकतों के कारनामों को याद दिलाती रहती हों, ताकि हम न्याय और समानता की अपनी लड़ाई से कभी डिगे नहीं- पर लगातार पहरा देते रहना होगा.
अगर वे भविष्य में वे विजय की मुद्रा में 22 जनवरी को उनकी सदारत में हुए राजनीतिक प्रोग्राम की याद दिलाना चाहें तो हमें बताना होगा कि किस तरह उनका विश्व नज़रिया जो नफरत और असमावेश पर टिका है, उसने किस तरह दुनिया भर के मासूमों की जिंदगी के साथ खिलवाड़ किया है.
उन्हें बताना होगा कि उनके तमाम इरादों के बावजूद एक दूसरा भारत अभी भी जिंदा है, उसने हार नहीं मानी है. उन्हें बताना होगा कि उनके विजय की इस घड़ी में ऐसी आवाज़ें मद्धिम नहीं हुई हैं, जो कहती हों कि ‘उनके सपनों का भारत मर गया.’
उन्हें बताना होगा कि सरयू नदी के किनारे उन्होंने सरकारी खर्चे से जलाए लाखों दीयों की तुलना में ओडिशा के सुदूर गांवों में ग्राहम स्टेंस और उसकी संतानों की याद में जलाए गए चिराग़ की रोशनी अधिक तेज है और दूर तक जाएगी.
(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)