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*सर्प की सृष्टि, सत्ता और साइंस* 

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     (मेडिटेशन ट्रेनर, डिवाइन आर्गेज्म क्रिएटर डॉ. विकास मानवश्री से हुए संवाद पर आधारित प्रतिसंवेदन)

       ~अनामिका, प्रयागराज

वैष्णव और शैव दोनों ही मतों में सर्प को अत्यधिक प्रतिष्ठा है। विष्णु का शेषनाग से संबंध है तो शिव ने सर्प को धारण कर रखा है। न केवल यह बल्कि विष को केवल शंकर ने ही सहन किया।

     इससे सर्प या विष की सत्ता का प्राकट्य होता है। अंतरिक्ष की प्रत्येक सत्ता सर्पगति से संचालित है। हर कण चाहे वह सूक्ष्म हो, चाहे स्थूल अपने नाभिक के चहुंओर दीर्घवृत्त में भ्रमण करता है और भ्रमण करते समय अपने कक्षा पथ में सर्पिल गति से यात्रा करता है। ग्रहों का कक्षा पथ में Oscillation सर्प गति का ही प्रच्छन्न नाम है। समस्त मंदाकिनियों में या अंतरिक्ष सत्ताओं में केवल सर्प गति मिलेगी। सम्पूर्ण वृत्त कहीं भी नहीं है। इन्द्र और वृत्र का आख्यान वेदों में अत्यधिक मुखर रूप में सामने आया है।

     ऋग्वेद में वृत्र युद्ध और वृत्र वध एक प्रमुख घटना है। महर्षि दधीचि की अस्थियों से बने वज्र से वृत्र वध का कथानक महर्षि के त्याग की पराकाष्ठा है। वैदिक कवि वृत्र को सर्पाकार अर्थात् कुण्डली मारकर पड़ा हुआ मानते हैं। फलतः वृत्र, अपाद और अहस्त माने गए हैं (बिना हाथ पैर के) और द्यावा पृथ्वी को ढककर पड़े हुए हैं। इन्द्र इसका सिर काट डालते हैं।

    अ॒पाद॑ह॒स्तो अ॑पृतन्य॒दिन्द्र॒मास्य॒ वज्र॒मधि॒ सानौ॑ जघान। 

वृष्णो॒ वध्रिः॑ प्रति॒मानं॒ बुभू॑षन्पुरु॒त्रा वृ॒त्रो अ॑शय॒द्व्य॑स्तः॥

【अ॒पात्। अ॒ह॒स्तः। अ॒पृ॒त॒न्य॒त्। इन्द्र॑म्। आ। अ॒स्य॒। वज्र॑म्। अधि॑। सानौ॑। ज॒घा॒न॒। वृष्णः॑। वध्रिः॑। प्र॒ति॒ऽमान॑म्। बुभू॑षन्। पु॒रु॒ऽत्रा। वृ॒त्रः। अ॒श॒य॒त्। विऽअ॑स्तः॥】

     यह कथानक बिल्कुल ऐसा ही है जैसे कि राहु सिर के रूप में काट डाला गया था। सर्प गति या सर्प का अस्तित्व सम्पूर्ण वैदिक कथाओं या पौराणिक कथाओं में अपने शक्तिशाली स्वरूप में उपस्थित है।

      मैं तो इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि सृष्टि के अस्तित्व का सर्प या सर्प गति से कोई न कोई अंतर्निहित संबंध है और इस गूढ़ अर्थ को समझे बिना कोई भी दृष्य जगत को नहीं समझ सकता।

      मेरा यह मानना है कि जिस दिन दीर्घवृत्त सम्पूर्ण वृत्त में बदल जाएंगे वह महाप्रलय का दिन होगा। उस दिन समस्त सृष्टि महास्फीति को समाप्त करके, महासंकुचन या शून्यत्व की ओर अग्रसर होगी।

     अव्यक्त का व्यक्त होना उस परम सत्ता को जब प्रकट होना होता है तो वह माया की सृष्टि करती है। सांख्य दर्शन में भी जब सत, तम और रज में विक्षोभ होता है तो सृष्टि का प्रकट होना बताया गया है। इसी भांति वेदांत दर्शन में भी जब लौकिक सृष्टि करनी होती है या माया को जन्म लेना होता है तब सृष्टि का आविर्भाव होता है। ईश्वर ऐसा क्यों करते हैं इसका कारण आज तक कोई भी दार्शनिक नहीं खोज पाया है।

      मेरा मानना है कि जब भी ईश्वर को सृष्टि की रचना करनी होती है तो वह कक्षा पथों के वृत्त को दीर्घ वृत्त में बदल देते हैं और इस तरह से लौकिक सृष्टि का प्रारम्भ होता है और वह रूप लेने लगती है। जब दीर्घ वृत्त की सृष्टि होती है तो कुछ सत्ताएं अपने नाभिक के चहुंओर दीर्घवृत्त में परिक्रमा करने लगती हैं। यह गति है जिससे विश्व संचालित होता है।

     यह गति में अंतर है जिसके कारण दो पिण्ड घटनाओं को जन्म देते हैं। यह गति के अंतर के निरन्तर विक्षोभ हैं जो स्पंदन या जीवन या जीवन चक्रों को जन्म देते हैं। कदाचित यही योनिभेद का कारण बनते हैं।

     अस्तु, राहु या सर्प सर्पिल गति के कारक हैं और प्रकृति को नियंत्रित करके रखते हैं। हम सभी जानते हैं कि राहु और केतु में सूर्य और चन्द्रमा को ग्रहण लगा देने की शक्ति है और केवल राहु-केतु ही हैं जो सूर्य को भी ग्रहण लगा सकते हैं। राहु की नैसर्गिक शक्ति ज्योतिष ग्रंथों में सूर्य से भी ज्यादा मानी गई है।

     अतः वास्तु मण्डल में जहां-जहां भी नाग देवता के उल्लेख आए हैं, वहां-वहां हमें राहु की शक्ति का भी दर्शन करना चाहिए और सर्प का संबंध वैष्णव और शैव दोनों मतों से लेकर उसे अतिशक्तिशाली परिणाम देने वाला मानना चाहिए।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग ने अपने उपन्यास ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम में यह व्यक्त किया है कि हर घटना का फ्यूचर कोन (future cone) होता है।

      हिन्दी में कोन को शंकु कहते हैं। मान लीजिए बाहर धूप निकल रही है तो अंदर मकान में रोशनी फैल जाती है, ऐसा क्यों होता है ? ऐसा इसलिए होता है कि चाहे वह प्रकाश कण हो या किसी घटना का केन्द्र बिन्दु, घटना के खगोलीय बिन्दु से घटना की तरंगों का क्षैतिज विकास होता है।

    वह ऊपर अंतरिक्ष की ओर बढ़ते हुए परिधि विस्तार के साथ अनन्त आकार लेने लगता है।

     ए बिन्दु से शुरु हुआ फ्यूचर कोन बहुत महत्वपूर्ण बिन्दु है। स्टीफन हॉकिंग ने बाद में माना कि हर फ्यूचर कोन (Future Cone) का पास्ट कोन (Past Cone) भी होता है। अर्थात् हर घटना का भविष्य ही नहीं बल्कि पिछला इतिहास भी होता है।

     समय के पैमाने पर इसे हम तरह-तरह से जान सकते हैं परन्तु ज्योतिष की बात करेंगे तो यह संधि स्थल जन्म का क्षण हो सकता है जिसके एक ओर अगला जीवन होता है तो दूसरी ओर पिछला जीवन होता है। स्मृतियों के प्रवाहित होने का यह महत्वपूर्ण काल बिन्दु है। न्यूटन की विचारधारा के स्टीफन हॉकिंग की इस स्वीकारोक्ति से उपनिषद के उस सूत्र की पुष्टि होती है जिससे जन्म और पुनर्जन्म तथा सृष्टि की उत्पत्ति तथा उसके बाद किसी महाप्रलय जैसी घटना के बाद सृष्टि का अव्यक्त होना सिद्ध होता है।

     ऐसा प्रतीत होता है कि पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने कहीं न कहीं से वैदिक ऋचाओं से प्रेरणा ली होगी।

*ईश्वर, माया और सर्प :*

       यह आश्चर्यजनक लगता है कि भगवान विष्णु की शैय्या शेषनाग से बनी है और भगवान शिव ने सर्प धारण किये हुए हैं। भारत में मध्यकालीन इतिहास के समय तक शैव और वैष्णव धाराओं में घोर विरोध चल रहा था। दोनों मतावलंबियों में घोर विरोध था। पूजा पद्धतियों में भारी अन्तर था, परन्तु दोनों के ही स्वरूप में सर्प की उपस्थिति एक आश्चर्यजनक साम्य रहा है। तुलसीदास ने इन दोनों मतों में सामन्जस्य के लिए राम के मुँह से कहलवाया :

“शिव द्रोही मम दास कहावा, सो नर मोहि सपनेहुँ नहिं भावा।” 

   राम ने भगवान शिव के साथ एकात्म स्थापित करते हुए विष्णु और शिव में अभेद बताया है। अर्थात् दोनों के बीच में कोई भेद नहीं है। इसीलिए दोनों के स्वरूप में सर्प उपस्थित है।

     सर्प को समझने के लिए हमको भारतीय दर्शन के उस गूढ़ रहस्य में जाना होगा, जहाँ सर्प कोई सामान्य सत्ता नहीं है। शून्य से जगत के प्राकट्य में सर्प गति की विशेष भूमिका है, यह हमें समझना होगा।

     प्राचीन भारत में नाग वंश – खगोल शास्त्र और पौराणिक अवधारणाएँ एक समय था, जब पूरे भारत वर्ष में नाग राज्य या राजवंश स्थापित थे। अनन्त (शेष), वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पिङ्गला, ये पाँचों कुल भारत में छाये हुए थे। सूर्यवंशी और चंद्रवशियों के अतिरिक्त नागवंश ने भी कम प्रतिष्ठा नहीं पाई है। हिमालय के दक्षिणी भाग में सम्पूर्ण हिमालय के समानान्तर नाग राजवंशों ने बहुत लम्बी अवधि तक शासन किया है।

      महाभारत काल में वे नागकुल भारत भर में फैले हुए थे। महाभारत के आदिपर्व में इनका उल्लेख मिलता है। कथासरित्सागर ग्रंथ में नागलोक और वहाँ के सौन्दर्य का वर्णन मिलता है। नागलोक की राजधानी भोगवतीपुरी मानी गई है। नाग कन्याओं को अत्यंत सुन्दर माना गया है। महर्षि कश्यप और उनकी 13 पत्नियों में से एक कदू से सपर्षों की उत्पत्ति हुई है। कश्यप से ही देवता और असुर उत्पन्न हुए हैं। अतः नाग इनके सौतेले भाई हुए।

     शेषनाग को नागों का प्रथम राजा माना जाता है। उन्हीं को अनन्त नाम से जाना जाता है। गीता में भगवान कृष्ण घोषणा करते हैं कि “मैं नागों में अनन्त हूँ”। माना जाता है कि ये मूलतः कश्मीर में थे और अनन्त नाग इनकी स्थापित राजधानी रही। वासुकि का वास कैलाश पर्वत के आसपास का था और तक्षक ने तक्षशिला बसाई थी।

अर्थववेद में कुछ नागों के नाम का उल्लेख मिलता है। ये नाग हैं श्वित्र, स्वज, पृदाक, कल्माष, ग्रीव और तिरिराजजी नागों में चित कोबरा (पृश्चि), काला फणियर (करैत), घास के रंग का (उपतृण्य), पीला (ब्रम), असिता रंगरहित (अलीक), दासी, दुहित, असति, तगात, अमोक और तवस्तु आदि। एक समय आया था जब इस समस्त भारत उपमहाद्वीप पर नागों का शासन था।

    रावण की स्त्रियों के सौन्दर्य के सन्दर्भ में तुलसीदास ने नागकुमारी का उल्लेख इस प्रकार से किया- 

“देव जच्छ गंधर्ब नर किंनर नाग कुमारि।  

   जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुन्दर बर नारि।।”

शास्त्रों में प्रसिद्ध, पवित्र नागों के नाम :

अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम्।

 शंखपालं धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा।।

 एतानि नव नामानि नागानां च महात्मनाम्।

 सायंकाले पठेन्नित्यं प्रातःकाले विशेषतः।।

 तस्य विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्।

     कटु से उत्पन्न सर्प एक समय बहुत अधिक हो गये थे। सम्भवतः जनमेजय से सम्बन्धित कथा का जन्म इसीलिए हुआ। जनमेजय कुरुवंश के एक राजा थे। अभिमन्यु और उनकी पत्नी उत्तरा से परीक्षित का जन्म हुआ। श्रृंगी ऋषि के शाप के कारण सर्पराज तक्षक ने राजा परीक्षित को डस लिया और उनके पुत्र जनमेजय ने सर्पवंश के समूल नाश का संकल्प लिया। तब उन्होंने सर्पयज्ञ का आयोजन किया और बहुत सारे सर्पों का विनाश किया। नागों की आदिमाता का शाप भी नागों के विनाश का कारण बना।

    सर्पगति :

ब्रह्माण्ड की प्रत्येक सत्ता में सर्पगति देखने को मिल जाती है। इलेक्ट्रॉन से लेकर बड़ी से बड़ी मंदाकिनी तक अपनी-अपनी कक्षा में सर्पगति से गमन करते हैं। इस गति में ब्रह्माण्ड का प्रत्येक कण अपनी भ्रमण कक्षा में दाँये और बाँये इस तरह से गति करता है, जिस तरह से कि सर्प करता है। सम्भवतः सृष्टि की प्रत्येक इकाई अपने कक्षापथ में संतुलन बनाये रखने के लिए ऐसा करती है।

     एक परिकल्पना है कि पदार्थ के कण यदि ऐसा नहीं करें तो कक्षापथ सम्पूर्ण वृत्त में बदल जायेंगे और कक्षाएँ दीर्घ वृत्ताकार नहीं रहेंगी। गुरुत्वाकर्षण बलों के कारण वृत्त दीर्घवृत्त में बदल जाते हैं और सृष्टि के प्रकट होने में यह एक महत्त्वपूर्ण कारक हो जाता है।

    गति ही सत्य है :

   यदि गति नहीं हो तो सृष्टि का प्राकट्य ही नहीं हो। सम्भवतः ईश्वर और गति के बीच में अन्य कोई सत्ता नहीं है। इसीलिए सृष्टि की उत्पत्ति में गति की भूमिका बहुत अधिक है। सम्भवतः इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए मनुष्य की अंतिम यात्रा के लिए यह महावाक्य गढ़ा गया ‘राम नाम सत्य है, सत्य बोलो गत्य है’। आमभाषा में भी मृतक के लिए कहा जाता है कि उसकी गति हो गई’।

    गतियों में भी सर्पगति विशेष है। सृष्टि का प्रत्येक कण व समस्त खगोलीय पिण्ड अपनी-अपनी कक्षाओं में सर्पगति (Oscillation) से भ्रमण करते हैं।

       ब्रह्मा की मानसी सृष्टि :

 जब सब कुछ शून्य रूप में था, सृष्टि का प्राकट्य नहीं हुआ था तो यह ब्रह्मा की इच्छा थी कि सृष्टि मूर्त रूप ले। ब्रह्मा ने अपनी मानसिक शक्तियों से जगत को प्रकट करना शुरू किया। जिस महाविस्फोट (Big Bang) की कल्पना आधुनिक वैज्ञानिक करते हैं, वह तब तक सम्भव नहीं था, जब तक कि अत्यंत उच्च ताप और दाब की कोई सत्ता उस परम शून्य को विखण्डित न कर दे या महाविस्तार के पथ पर अग्रसर न कर दे।

     यह Cosmic Inflation तब तक सम्भव नहीं था, जब तक कि यह किसी अनन्त व उच्च गति से प्रारम्भ न हो। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि प्रथम ब्रह्माण्ड स्फीति एक सैकण्ड के एक खरबवें हिस्से में ही सम्पन्न हो गई थी। परन्तु हमारे सौर मण्डल के प्रकट होने की स्थिति के लिए प्रथम गति का बहुत धीमा होना आवश्यक है।

     उदाहरण के लिए हमारे सौर मण्डल के अन्तर्गत प्रकट होने वाली किसी भी सत्ता के लिए (ग्रह-उपग्रह इत्यादि) उसका प्रकाश गति से नीचे की गति में आना आवश्यक था। हिग्स बोसोन कणों वाले परीक्षण में यही सिद्ध हुआ कि यदि उच्च गति वाले दो कण आपस में टकरायें और उनकी गति धीमी हो जाए तभी वे दृश्य जगत में प्रकट हो सकते हैं। उनकी गति का स्वरूप भी बदल जायेगा। यदि गति धीमी होती चली जाए तो परमाणु संयोजन प्रारम्भ होकर वह अणुओं की उत्पत्ति करने लगेंगे और बहुत सारे अणु मिलकर अन्य स्थूल पदार्थों या जीवों को रूप देने लगेंगे।

हर ब्रह्माण्ड में प्रकाश गति भिन्न :

      गर्ग संहिता में वर्णन है कि हमारे ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा, विष्णु, महेश जब भगवान कृष्ण के आदिधाम गोलोक में पहुँचे तो प्रवेश पूर्व ही भगवान की सखी शतचन्द्रानना ने उन्हें बता दिया :

    “यहाँ तो गिरजा नदी में करोड़ों ब्रह्माण्ड इधर-उधर लुढ़के पड़े हैं, आप लोग किस ब्रह्माण्ड से आये हो।”

 इस कथानक से कुछ बातें सिद्ध होती हैं :

1. हमारा ब्रह्माण्ड अकेला नहीं है।

2. अन्य असंख्य ब्रह्माण्ड हमसे छोटे-बड़े हो सकते हैं।

 3. उन सब पर ईश्वर का नियंत्रण है।

 4. प्रत्येक ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा, विष्णु, महेश अलग-अलग हो सकते हैं।

     इस दार्शनिक चिंतन में एक तथ्य समाविष्ट है कि हमारे सूर्य के विशिष्ट आकार और तापक्रम के कारण उससे उत्सर्जित सूर्य किरणों की गति 2,99,792 किमी. प्रति सैकण्ड है। ये पृथ्वी तक 499 सैकण्ड में पहुँचती हैं। इस समय को गति का एक ‘Astronomical Unit’ माना गया है। परन्तु प्रत्येक नक्षत्र तथा वह प्रत्येक ब्रह्माण्ड जिसके आकार और कांतिमान में हमारे सूर्य की अपेक्षा बहुत बड़ा अन्तर है, उनके द्वारा उत्सर्जित प्रकाश गति में हमारे सूर्य द्वारा उत्सर्जित प्रकाश गति से अन्तर हो सकता है।

    अतः उस गति के धीमे होने और सृष्टि के उत्पन्न होने या ब्रह्माण्ड स्फीति में समयान्तर हो सकता है।

      सका अर्थ यह भी निकलता है कि ऐसे नक्षत्र और ग्रहों में जीव उत्पत्ति में करोड़ों वर्षों का समयान्तर हो सकता है। अनन्त सृष्टि में कहीं पर अभी तक जीव जगत उत्पन्न होकर समाप्त हो चुका होगा तथा अन्य कई ब्रह्माण्डों में जीव जगत प्रारम्भ होने ही वाला होगा।

नागों को लेकर पौराणिक कथन दक्ष प्रजापति की पुत्री कटू का विवाह कश्यप से हुआ और उससे 1000 नाग पुत्र हुए। दूसरी तरफ दूसरी पत्नी विनता से भी अण्डों के रूप में दो पुत्र हुए। विनता अधीर हो गई क्योंकि कद्दू की सन्तानें जन्म ले चुकी थी। उसने अपने द्वारा प्रसवित दो अण्डों में से एक अण्डे का विच्छेद कर दिया। उस बालक का ऊपरी शरीर तो विकसित हो चुका था परन्तु नीचे के अंग नहीं बन पाये थे। उस बालक ने क्रोध में माता को शाप दिया कि तुमने कच्चे अण्डे को तोड़ दिया है इसीलिए पाँच सौ वर्षों तक अपनी सौत की दासी बनकर रहना पड़ेगा। अगर दूसरे अण्डे को पूर्ण विकसित होने दिया गया तो वह तेजस्वी बनेगा और शाप से उद्धार करेगा।

     कद्रू और विनता में सदा विरोध रहता था। यह तब पराकाष्ठा पर पहुँचा जब समुद्र मंथन से उत्पन्न उच्चैः श्रवा अश्व को लेकर मतभेद उत्पन्न हुआ। कद्दू का तर्क था कि अश्व की पूँछ काली है, जबकि विनता का मानना था कि अश्व की पूँछ सफेद है। माता की आज्ञा से कद्दू के सर्प पुत्र अश्व की पूँछ से लिपट गये और वह काली दिखने लगी। विनता को दासत्व स्वीकार करना पड़ा।

     विनता का प्रथम पुत्र तो अरुण था जो सूर्य के रथ का सारथी बना। परन्तु दूसरा पुत्र गरुड़ था जो विष्णु का वाहन बना। इसी गरुड़ ने दासता मुक्ति की शर्त के अनुरूप कद्रू पुत्रों को अमृत लाकर दिया और माता को दासता से मुक्ति दिलाई। यह अमृत घट बाद में इन्द्र ने चुरा लिया।

एक अन्य कथानक में सूर्यवंशी परीक्षित को श्रृंगी ऋषि के शापवश जब तक्षक ने डसा तो उसके पुत्र ने नागों का विनाश प्रारम्भ कर दिया। इस बारे में पुनः माता कद्दू का नाम आता है। एक बार जब नागों ने माता कद्रू की आज्ञा नहीं मानी तो माता ने उन्हें सर्प यज्ञ में भस्म होने का शाप दिया। इस शाप की पालना तब हुई जब परीक्षित को तक्षक द्वारा इसे जाने के बाद राजा जनमेजय ने सर्प यज्ञ आयोजित किया और नागों को भस्म करना शुरू किया।

     एक तरफ अभिमन्यु के पौत्र जनमेजय ने सर्पयज्ञ किया था, तो दूसरी तरफ भगवान कृष्ण ने भी कालिय नाग का दमन किया था। इससे पूर्व माता कद्दू के द्वारा सौत विनता के प्रति व्यवहार से रुष्ट होकर शेषनाग पाताल लोक चले गये थे। 

      पुराण कथा से क्या अभिप्रेत है ? कश्यप और उनकी तेरह पत्नियों से उत्पन्न संतानों ने कभी न कभी सम्पूर्ण पृथ्वी पर शासन किया है। देव, दानव, असुर, सर्प  इत्यादि ने सभी ने।

     इतिहासकारों का एक वर्ग यह मानता है कि एक समय नागवंश अत्यधिक विकसित हो चुके थे और आर्यों को यह बात पसन्द नहीं आ रही थी। जो जाति आर्यों का शासन नहीं मानती थी उसका दमन आर्यों ने कर दिया। इसीलिए नाग वंशों का विनाश हुआ। परन्तु भारतीय पौराणिक कथन के अनुसार नागों का शासन उन जनपदों में भी था जहाँ आर्यों का कोई प्रत्यक्ष लक्ष्य या उद्देश्य नहीं था। सम्भवतः एक ऐसा युग आया है जब नाग पृथ्वी पर बहुत अधिक हो गये थे और प्रकृति ने अपने आप नागों को इसी भाँति नष्ट होने की परिस्थितियाँ बना दी, जिस प्रकार कभी डायनासौर नष्ट हो गये थे।

      यदि नागवंश उन मानव सम्राटों के कुल मान लिये जायें, जिन्होंने नागों के नाम पर अपने कुल स्थापित कर लिये थे, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार रामायण काल में वानर और रोछ आदि कुल थे तो तत्कालीन सत्ता संघर्ष में बहुत वर्षों तक सत्ता भोग चुके उन नागकुलों का विनाश हो गया जो सक्षम नहीं रह गये थे और सूर्यवंशी या यदुवंशी राजकुलों के द्वारा परास्त कर दिये गये। सूर्यवंशी जनमेजय ने अधिकांश सर्प नष्ट कर दिये तो यदुवंशी भगवान श्री कृष्ण ने अतिशक्तिशाली कालिय नाग (कालिय नागवंश) को पराजित कर अधीन कर लिया था। इतिहासकार मथुरा को नाग राजवंशों की राजधानी मानते रहे।

खगोल शास्त्र :

मानव ने अपने बहुत सारे प्रतीक चिन्ह मंदाकिनियों, नक्षत्रों, ग्रहों, पृथ्वी पर उपस्थित जीवों और वनस्पतियों से लिये हैं। परन्तु इन सब प्रेरणाओं के मूल में कोई न कोई खगोलीय या प्राकृतिक साक्ष्य हैं। अनन्त अंतरिक्ष में जो कुछ भी दृश्य या अदृश्य है उसकी अनुकृति पृथ्वी पर किसी न किसी रूप में उपलब्ध है।

      हमारे मानव शरीर में भी अंतरिक्ष पिण्डों का अनुपात, या ग्रहों का अनुपात उसी रूप में उपस्थित है। हर वह अंतरिक्ष पिण्ड जिसे हम जानते हैं या नहीं जानते, किसी न किसी रूप में उसी अनुपात में प्रत्येक जीव में उपस्थित है। इसीलिए गति के नियमों का पालन भी उसी रूप में सूक्ष्म रूप में उपस्थित है जो कि अनन्त अंतरिक्ष में पाया जाता है।

      सर्पगति, वर्तुल गति या अंतरिक्ष पिण्डों का कक्षा में दोलन (Oscillation) – यदि अंतरिक्ष पिण्डों पर या उनसे उत्सर्जित ऊर्जाकण, अन्य कण या तरंगें किसी बल से सन्नद्ध हैं तो वे सीधी रेखा में गमन नहीं करेंगे और गति के निश्चित प्रारूप में गमन करेंगे।

  आइंस्टीन के जिस नियम की पुष्टि हुई है, उसके पीछे उनकी यह धारणा थी कि अन्ततः गुरुत्वाकर्षण बल है, जिसके कारण समस्त अंतरिक्ष एक-दूसरे से बंधा हुआ है तथा गुरुत्वाकर्षण बल की भी तरंगें होती हैं। अब यह पुष्ट हो चुका है कि प्रकाश कणों की वाहक भी गुरुत्वाकर्षण तरंगे हैं।

     वैज्ञानिकों का एक वर्ग यह मान रहा है कि चाहे बहुत बड़े आकार की मंदाकिनियाँ हों और चाहे कोई शॉर्ट वेव, सब किसी बल से संचालित हैं। स्टीफन हॉकिंग का मानना है कि दो कृष्ण विवरों के अन्तर्युद्ध में तरंगों में जो स्फीति आई है और उससे असंख्य तरंगें प्रति सैकण्ड उत्पन्न हुई हैं, वे प्रत्येक अन्तरिक्ष पिण्ड की वाहक हैं। इस कारण से अंतरिक्ष पिण्ड निर्विकार नहीं रहे हैं और इसीलिए वे अव्यक्त से व्यक्त हो गये हैं।

     ईश्वर के द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति का यही रहस्य है। अलौकिक से लौकिक प्रकटन का यही रहस्य है। निर्विकार से विकार की उत्पत्ति यही है।

     जैसे ही अलौकिक, लौकिक रूप में व्यक्त होता है और अपनी गति के प्रारूप को प्राप्त करता है, वह सर्प गति को प्राप्त होता है। इस जगत में जो कुछ भी है, गति से संचालित है और जीवन यदि दृष्टिगत है तो उसके मूल में सर्पगति है।

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