पुष्पा गुप्ता
भक्तचरितमानस के निर्बुद्धि काण्ड में वर्णित एक कथा कहती है : भक्त एक दिन महागुरू के आश्रम ‘मुसोहिट निकुंज’ पहुँचा और गुरूजी का घण्टा ज़ोर-ज़ोर से हिलाकर बजाने लगा।
महागुरू, जिन्हें लोग घण्टागुरू भी कहते थे, अपने साधना-कक्ष से बाहर आये और पूछा,”वत्स, क्या कष्ट है ?”
भक्त साष्टांग दंडवत करते हुए घण्टागुरू के चरणों में लोट गया। बोला, “हे राष्ट्रगौरव! हे मानव-श्रेष्ठ ! जीवन बहुत कष्ट में चल रहा है ! मंँहगाई, बेरोज़गारी के मारे जीवन दूभर हो गया है।
ऐसे में देश-सेवा में भी जी नहीं लगता। ऊपर से सेवा का कोई फल भी तो नहीं मिलता ! उधर लोग निर्बुद्धि और दिमाग़ से पैदल कहकर मज़ाक भी उड़ाते हैं.”
घण्टागुरू ने निमिष मात्र के लिए नेत्र-कपाट बन्द किये, फिर भृकुटि बंकिम करके रक्तिम नेत्रों से भक्त को देखते हुए बोले,”अरे नीच-पामर ! तू कैसा भक्त है. सेवा के बदले मेवा तुरंत चाहिए?.
छि: ! देखो, अभी कर्तव्य-पथ पर कितनी लम्बी यात्रा करनी है ! मुल्ले अभी भी पूरी तरह टाइट नहीं हुए हैं । भूल गये?
अयोध्या के बाद काशी-मथुरा का पवित्र-पावन लक्ष्य? अभी भी पड़ोसी म्लेच्छ देश का मानमर्दन नहीं हुआ? भूल गये अखण्ड भारत का मिशन ? बहुत तुच्छ, नीच और सांसारिकता के पंककुण्ड के कीट होते जा रहे हो.
वत्स ! कहीं किसी कुसंग में तो नहीं पड़ गये हो? अरे नराधम ! राष्ट्ररक्षा और धर्मरक्षा के लिए विकट बलिदान देने होंगे और तू है कि तुझसे थोड़ी मंँहगाई, थोड़ी बेरोज़गारी, कुछ अभाव, कुछ भूख और कुछ बीमारी तक नहीं झेली जाती.
तू राष्ट्र और धर्म के गौरव के लिए प्राण क्या देगा रे ! जा-जा, तुझसे न होगा.”
भक्त की भटकी आत्मा जाग उठी और कर्तव्य-पथ पर प्रयाण हेतु व्यग्र हो गयी।
भावविह्वल, कंपितगात भक्त घंटागुरू के समक्ष लोटकर उनके चरणों को चूमने लगा। फिर बोला, “हे मानव-श्रेष्ठ ! हे सर्वज्ञानी महाविभूति ! सांसारिक कष्टों ने मुझे किंचित पथ-विचलित कर दिया था।
पर आप हैं तो कुछ भी संभव है ! अब मैं कुछ भी न सोचूँगा ! केवल आपके निर्देशों का अनुपालन करूँगा चाहे मेरा विनाश हो जाये, चाहे लोग मुझे श्वान और गर्दभ ही क्यों न कहें.”
घण्टागुरू ने प्यार से शिष्य के सिर पर हाथ फेरा और बोले, “वत्स, तुम श्वान और गर्दभ नहीं, सिंह हो, व्याघ्र हो ! और घबराओ नहीं।
हम तुम्हें इसी जन्म में गर्व से जीवनयापन का मार्ग बतायेंगे । उधर लोटागुरू के कक्ष में जाओ और उनसे आवश्यक दिशा-निर्देश प्राप्त करो.”
भ्रममुक्त शिष्य लोटागुरू के कक्ष में जाकर उनके चरणों में लोट गया। लोटा गुरू ने बताया,”शिष्य श्रेष्ठ ! जनता आत्मा नहीं, वेश देखती है।
इसीलिए सार्वजनिक प्रदर्शन हेतु आश्रम कार्यालय से जाकर व्याघ्र और सिंह के मुखौटे प्राप्त कर लो। दूसरी बात, अपनी सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आत्मनिर्भर बनो। अभी अयोध्या में मंदिर के लिए जनता से धन संग्रह कर चुके। आगे यह कार्य काशी और मथुरा के लिए होगा।
राष्ट्र-सेवा के लिए तो सदा-सर्वदा होता ही रहेगा। संग्रहीत धन का नब्बे प्रतिशत आश्रम में देने के पश्चात शेष तुम निज हित में व्यय कर सकते हो। प्रति माह तुम्हें आश्रम में एक समारोह करके मुकुट और जयमाल से विभूषित किया जायेगा।
बस एक और शर्त है। तुम्हें अपना पृष्ठभाग हमेशा निरावृत्त रखना होगा, एक सिंह की तरह। प्रतिदिन आश्रम आकर अपने नग्न नितंब पर प्रसाद स्वरूप गुरुदेव की चरण-पादुका के पाँच प्रहार ग्रहण करने होंगे।
यदा-कदा जनता भी चरण या उपानह से तुम्हारी नितंब-सेवा करेगी। उसे भी तुम बिना किसी लज्जा-भाव के, पुरस्कार-स्वरूप अंगीकार करना ! फिर कुछ समय पश्चात् तुम्हारे पृष्ठभाग को भी एक सिंहासन प्रदान किया जायेगा, पुरस्कार-स्वरूप!”
शिष्य प्रसन्नचित्त वापस लौटा और निष्ठापूर्वक कर्तव्य-पालन में लग गया। उधर प्रति दिन के पाद-प्रहारों और पादुका-प्रहारों से उसका नितंब सूजता और फैलता चला गया।
एक दिन वह दुर्निवार उत्कण्ठा और प्रलोभन के वशीभूत वह असमय आश्रम में जा पहुँचा। रात्रि का समय था।.
घण्टागुरू और लोटागुरू उससमय मदिरापान कर रहे थे। मदिरापान करते हुए और उसके बाद दोनों विभूतियाँ तत्सम शब्दों वाली धर्मसम्मत संस्कृतनिष्ठ भाषा के स्थान पर तद्भव और देशज शब्द-बहुल भाषा का प्रयोग करती थीं।
भक्त ने पूछा,”गुरुदेव, निष्ठापूर्वक कर्तव्य-पालन करते मुझे एक सुदीर्घ कालखण्ड बीत गया। मुझे सिंहासन कब मिलेगा ?”
इसपर दोनों गुरू ठठाकर हँसे। फिर लोटागुरू ने कहा,”अबे चूतिए, पीछे मुड़ !”
फिर भक्त के सूजे हुए विशाल नितंब को दिखाते हुए बोले,”हमने पुरस्कारस्वरूप तुम्हारे चूतड़ को ही सिंहासन बना दिया है। घामड़ कहीं के ! तुम्हें यह भी नहीं पता कि सिंह किसी और सिंहासन पर नहीं बैठता. उसके लिए तो उसका चूतड़ ही उसका सिंहासन होता है। इतने दिन हम तुम्हें सिंह बनाने की कोशिश करते रहे, लेकिन रह गये तुम वही बैल के बैल.”