-डॉ हिदायत अहमद खान
राजनीति में कुछ भी स्थाई नहीं होता। आज जो सरकार में हैं कल उन्हें विपक्ष में भी बैठना पड़ सकता है और जो सरकार बनाने की सोच तक नहीं रखते उन्हें जनता-जनार्दन सत्ता की बागडोर सौंप शासन करने का हुक्म सुना देती है। बहरहाल यहां हम जनता के फैसले की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के बीच वर्तमान में जो घट रहा है, यहां उस पर मंथन करने और नतीजा निकालने का प्रयास किया गया है।
दरअसल वर्तमान में ऐसे सियासी हादसे नजरों के सामने से गुजरे हैं, जिन्हें देखकर लगता ही नहीं है कि अब राजनीतिक दलों के अपने कोई सिद्धांत भी काम कर रहे हैं और उनकी अपनी कोई सुचिता भी बची हुई है। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि जिन्होंने कांग्रेस मुक्त भारत की शपथ ली वही अपनी पार्टी को कांग्रेसमय करते नजर आ रहे हैं। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी साल 2013 में जब लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा की अभियान समिति के प्रमुख बनाए गए तो उन्होंने कांग्रेस मुक्त भारत का आह्वान कर तमाम सोये हुए नेताओं को जगा दिया था। इस कथित युद्धघोष ने भाजपा कार्यकर्ताओं को सत्ता पर काबिज होने का मंत्र दे दिया था। इसके साथ ही भाजपा ने जहां लोकसभा चुनाव में बेहतरीन प्रदर्शन कर सरकार बनाने में सफलता अर्जित की वहीं राज्य दर राज्य कांग्रेस को उखाड़ फेंकने में भी वह कामयाब होती दिखी है। भाजपा की इस मुहिम में कौन कितना सहभागी बना यह भी अलग बात है, क्योंकि इसे लेकर आरोप-प्रत्यारोप के जो अलग-अलग दौर चले हैं, उसमें भी सच्चाई तलाशने और किसी परिणाम तक पहुंचने में खासा समय लग सकता है। वैसे कहा यही जाता है और काफी हद तक सही भी यही है कि जहां आग होती है वहीं धुंआ उठता है।
कांग्रेस मुक्त भारत की मुहिम बहुत तेजी से चली लेकिन कब यह कांग्रेसमय भाजपा में तब्दील हो गई, खुद पार्टी नेताओं को इसका एहसास तक नहीं हुआ। अब सवाल यह उठ रहा है कि क्या भाजपा सचमुच कांग्रेस मुक्त भारत चाहती है या खुद को कांग्रेस जैसा बनाने में लगी हुई है। ऐसा इसलिए भी कह सकते हैं, क्योंकि कांग्रेस ने अपने शासनकाल में अल्पसंख्यकों के साथ तुष्टिकरण का जो खेल खेला उसने उन्हें रसातल पर पहुंचा दिया है, जैसा कि भाजपा दावा भी करती है। इसी तर्ज पर पिछले एक दशक से भाजपा ने बहुसंख्यक तुष्टिकरण का खेल खेलना शुरु कर दिया है। इसका परिणाम भी अब साफ देखने को मिलने लगा है। कांग्रेस की रणनीति जम गई इसलिए भाजपा नेतृत्व आंख बंद कर कांग्रेस के कथित कद्दावर नेताओं से लेकर छोटे-मोटे कार्यकर्ताओं को भी पार्टी में एंट्री करवाने के लिए जी-जान से जुटी हुई है। इस मुहिम में यह भी नहीं देखा जा रहा है कि भाजपा में जिन कांग्रेस नेताओं को शामिल किया जा रहा है वो खुद अपने क्षेत्र में कितना प्रभाव रखते हैं। सवाल तो यह भी उठ रहा है कि ये अवसरवादी दल-बदलु नेता यदि इतना ही प्रभाव रखते तो क्या वो खुद अपने दम पर चुनाव जीतकर विधानसभा या लोकसभा तक नहीं पहुंच गए होते। इनका अपना राजनीतिक केरियर पहले ही समाप्त प्राय: हो गया है और येन-केन-प्रकारेण ये खुद को नेता साबित करने में जोड़-तोड़ कर रहे हैं। अब चूंकि कांग्रेस नेतृत्व इनकी हकीकत जान चुका है अत: ऐसे नेताओं पर जमीनी स्तर पर कार्य करने का दबाव भी पड़ा है, जिस कारण ये बगलें झांकते नजर आए हैं। ऐसे में ये दल-बदल कर शर्म भी महसूस नहीं कर रहे हैं। जब ये मुखौटा बदल जनता के बीच जाते हैं तो मतदाता खुद इनके मुंह में कहता दिखता है, कि शर्म तुमको मगर आती नहीं, जो यहां यूं चले आते हैं।
एक तरफ कांग्रेस नेता राहुल गांधी भारत जोड़ो न्याय यात्रा के माध्यम से पार्टी के मूल सिद्धांत को प्रमाणित करने में लगे हैं, वहीं दूसरी तरफ उनके अपने कथित नेता व कुछ कार्यकर्ता लोकसभा चुनाव से पहले यूं पार्टी छोड़ अन्य दलों का दामन थामते नजर आ रहे हैं जैसे कि कोई पानी का जहाज डूब रहा हो और उसके अंदर रहने वाले चूहे जान बचाने के उपक्रम में समंदर में ही कूदे चले जा रहे हों। कहा यह भी जा रहा है कि ऐसे नेताओं को पार्टी में शामिल करना स्वयं भाजपा के लिए नुकसानदेह साबित होने वाला है। सच पूछा जाए तो ये वो नेता नहीं हैं जिनके नाम और काम से जनता वोट देती है, बल्कि ये तो वो लोग हैं जो टिकट बंटवारे से लेकर पार्टी में कौन सक्रिय रहेगा और कौन हासिये पर जाएगा, इसका मार्ग प्रशस्त करते हैं। ये खरीद-फरोख्त तो बेहतर तरीके से कर सकते हैं, लेकिन जमीनी फायदा पार्टी को नहीं पहुंचा सकते हैं। इसलिए जब-जब केंद्रीय नेतृत्व और आला दर्जे के नेताओं ने चुनाव पूर्व कांग्रेस का माहौल बनाया, उसे ये नेता वोट में भी कन्वर्ट नहीं कर सके और पार्टी को शर्मनाक हार का मुंह देखना पड़ा है। अब जबकि ये कांग्रेसमय भाजपा बनाने वहां पहुंच गए हैं तो इससे भाजपा के समर्पित और प्रतिष्ठित कहे जाने वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी खासी दिक्कत हो सकती है। पार्टी की खातिर ये इनका मुखर होकर विरोध तो नहीं करेंगे, लेकिन सहयोग करने से भी गुरेज जरुर करेंगे। इन्हें साधने और इनसे बेहतर कार्य लेने में भी पार्टी की शक्ति क्षीर्ण होती दिखेगी। बात साफ है कि जिन सिद्धांतों को लेकर भारतीय जनता पार्टी ने शून्य से सत्ता तक का सफर तय किया, उन्हें तिलांजलि देकर ही कांग्रेस के इन कथित नेताओं को पार्टी में तवज्जोह दी जा सकती है। इसलिए कहने में हर्ज नहीं कि कांग्रेस मुक्त भारत वाला तिलिस्म ज्यादा दिन तक चलने वाला नहीं है, तब कांग्रेसमय भाजपा से जनताजनार्दन कैसे जुड़ाव रख पाएगी, यह देखने वाली बात होगी।