*राजेंद्र शर्मा*
हैरानी की बात यह नहीं है कि शासन और रेलवे प्रशासन को आखिरकार, शनिवार 15 फरवरी को नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हुई भगदड़ में, अठारह मौतों और कई लोगों के घायल होने की बात स्वीकार करनी पड़ी है। हैरानी की बात यह है कि शासन और रेलवे प्रशासन ने भगदड़ और उसमें मौतों के तथ्य को ही नकारने की तमाम कोशिशें की थीं। लेकिन, शायद इस बार के कुंभ के सिलसिले में जान गंवाने वालों के परिजनों की किस्मत में, इन मौतों का इस तरह नकारा जाना ही लिखा है। नई-दिल्ली रेलवे स्टेशन की भगदड़ पर ही पर्दा डालने की जैसी कोशिशें की गयी थीं, वही सब इससे पहले प्रयागराज में कुंभ स्नान भगदड़ के मामले में किया चुका था। सच तो यह है कि प्रयागराज भगदड़ मामले को छुपाने की कोशिशें और भी दूर तक जारी रही थीं, बल्कि जानकारों के अनुसार तो अभी तक यह सिलसिला किसी-न-किसी रूप में जारी ही है।

प्रयागराज मामले में भी, पहले कई घंटे तक तो ‘अफवाह’ करार देकर, भगदड़ की किसी भी घटना को नकारने की ही कोशिश की गयी थी। फिर कुछ और घंटे बाद, ”भगदड़ जैसी” होने और उसमें कुछ लोगों के चोटिल होने की बात मानी गयी। और घटना के पूरे उन्नीस घंटे बाद ही भगदड़ में तीस मौतों और करीब दर्जन भर लोगों के घायल होने की बात मानी गयी। यह दूसरी बात है कि तब तक यूट्यूबरों तथा मुख्यधारा के मीडिया के एक हिस्से द्वारा दी जा चुकी खबरों के अनुसार, पूरे मेला क्षेत्र में उस दिन एक नहीं, तीन स्थानों पर भगदड़ की घटनाएं हुई थीं और इन घटनाओं में मरने वालों की संख्या, सरकार द्वारा दिए गए तीस के आंकड़े से तीन गुनी नहीं तो, दोगुनी से ज्यादा जरूर थी। पीयूसीएल की खोजी टीम की रिपोर्ट के अनुसार, मौतों की कुल संख्या को कम कर के दिखाने के लिए शासन ने तीन अलग-अलग अस्पतालों में पोस्टमार्टम कराने समेत, तरह-तरह के हथकंडों का सहारा लिया था।
बहरहाल, मौतों तथा घटनाक्रम के सरकारी दावों पर सवाल खड़े करने वाली तमाम रिपोर्टों तथा सामने आयी तमाम जानकारियों का योगी सरकार ने नोटिस तक लेने से इंकार कर दिया और सारी खबरों की ओर से आंख-कान बंद कर के सरकार, इस उम्मीद में कि उसके प्रचार के सामने सब कुछ भुला दिया जाएगा, सब कुछ सुचारु रूप से चल रहा होने का अपना ढोल पीटने में लग गयी। इसी के हिस्से के तौर पर पहले उप-राष्ट्रपति और फिर राष्ट्रपति को ही नहीं, देश के सबसे बड़े धनपतियों में से एक, अंबानी परिवार को बाकायदा वीवीआईपी स्नान कराया गया। उप-राष्ट्रपति ने तो भगदड़ में तीस मौतों की बात तब तक स्वीकार कर लिए जाने के बावजूद, कुंभ की व्यवस्थाओं को न भूतो न भविष्यति का बाकायदा सर्टिफिकेट ही दे दिया था। जाहिर है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे या उनसे जुड़े लोगों के वीवीआईपी दर्जे पर, खूनी भगदड़ के बाद जारी इस सरकारी आदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला था कि सारे वीआईपी पास निरस्त किए जाते हैं। वास्तव में, विभिन्न रिपोर्टों में प्रयागराज में हुई भगदड़ के मुख्य कारणों में कुंभ की वीआईपी संचालित व्यवस्था को सबसे प्रमुख माना गया था, जिसमें मेला क्षेत्र और रास्तों के बड़े हिस्से को, वीआईपी गण के लिए सुरक्षित करने के जरिए, आम श्रद्घालुओं के लिए उपलब्ध जगह और रास्तों को, उनकी भारी भीड़ को देखते हुए, और भी छोटा कर दिया गया था।
इसी तरह,नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की भगदड़ और मौतों की पर्दापोशी की कोशिशों में शीर्ष पर दिल्ली के लेफ्टीनेंट गवर्नर से लेकर रेल मंत्री तक शामिल थे। हद तो यह थी कि हादसे की जानकारी मिलने पर लेफ्टीनेंट गवर्नर ने भगदड़ और उसमें हुई मौतों पर खेद जताते हुए जो ट्वीट किया था, उसे तब वापस ले लिया गया, जब लेफ्टीनेंट गवर्नर को इसका एहसास हुआ या यह याद दिलाया गया कि संभवत: सरकार पूरी घटना पर ही पर्दा डालना चाहती है। लेफ्टीनेंट गवर्नर ने अब संशोधन कर के नया ट्वीट जारी किया, जिसमें भगदड़ और मौतों, दोनों का जिक्र गायब किया हो चुका था। जाहिर है कि अंत में एक बार फिर जगहंसाई कराते हुए, लेफ्टीनेंट गवर्नर को घटना में मौतों पर शोक जताना ही पड़ा। कुछ ऐसी ही जगहंसाई रेल मंत्री के भी हिस्से में आयी।
बहरहाल, सत्ता में बैठे लोगों के जगहंसाई की परवाह न करते हुए, सत्ता के झूठे आख्यान, बल्कि झूठे प्रचार तथा दावों को आगे बढ़ाने के लिए तत्पर होने में तो अब शायद ही कोई हैरानी की बात रह गयी है। लेकिन दुर्भाग्य से अब हैरानी की बात मुख्य धारा के मीडिया के बड़े हिस्से के तत्परता से इस खेल में हिस्सेदार बन जाने में भी नहीं रह गयी है। लेफ्टीनेंट गवर्नर से भी ज्यादा हंसी का पात्र बनते हुए, समाचार एजेंसी ‘एएनआई’ ने पहले पूरी वफादारी से लेफ्टीनेंट गवर्नर का हादसे पर दु:ख जताने वाला ट्वीट प्रकाशित किया। उसके बाद उसी एजेंसी ने बिना किसी टीका-टिप्पणी के लेफ्टीनेंट गवर्नर का ना कोई भगदड़, ना कोई मौत वाला संशोधित ट्वीट प्रकाशित किया। और अंतत: उतनी ही वफादारी से मौतों पर खेद जताने वाला ट्वीट जारी किया।
सभी जानते हैं कि मुख्यधारा के मीडिया के अधिकांश हिस्से और सोशल मीडिया के भी बड़े हिस्से के गोदीकरण के बल पर ही, भगदड़ में बड़ी संख्या में मौतों जैसी आसानी से न छिपाई जा सकने वाली सच्चाइयों पर भी, मौजूदा निजाम न सिर्फ पर्दा डालने की जुर्रत कर पाता है, बल्कि उन पर पर्दा डालने की कोशिशों में काफी हद तक कामयाब भी हो जाता है। मौजूदा निजाम की इस कामयाबी का एक प्रमुख रूप यह भी है कि जिन सच्चाइयों को पूरी तरह से दबाना ही संभव न हो, उन्हें भी, उजागर हो जाने के बाद भी, मीडिया पर इसी नियंत्रण के सहारे जल्द से जल्द चर्चा से बाहर करने के जरिए, दफ़्न कर दिया जाता है। प्रयागराज भगदड़ की मौतों के मामले में ठीक यही हुआ है। और नई दिल्ली रेलवे स्टेशन भगदड़ के मामले में भी ठीक यही करने की कोशिशें की जा रही हैं।
इसी के हिस्से के तौर पर नई दिल्ली स्टेशन भगदड़ के मामले मृतकों के परिवारजनों को, रात में ही पोस्टमार्टम कराने के बाद न सिर्फ शव सौंप दिए गए, बल्कि सरकार के अपने तमाम नियम-कायदों को ताक पर रखकर, परिजनों को दस-दस लाख रुपए की नकद सहायता राशि भी मुंह अंधेरे ही पकड़ा दी गयी। मकसद यही था कि परिवारजन जल्द से जल्द लाश लेकर, मीडिया और खबरों से दूर, अपने गांवों के लिए निकल जाएं। खबरों के अनुसार, पुलिस के सिपाहियों के साथ वाहनों से लाशों को जल्द से जल्द रवाना करने पर ही सारा जोर था। ऐसा लगता है कि प्रयागराज की घटना से पर्दापोशी का यही सबक दिल्ली प्रकरण को संभालने वालों ने लिया था।प्रयागराज प्रकरण के विपरीत, उन्होंने लाशों को जल्द से जल्द, घटनास्थल से दूर से दूर भिजवाने का, पूरा इंतजाम किया था। हैरानी की बात नहीं है कि भाजपा के आईटी सेल के प्रमुख, अमित मालवीय ने रविवार को ही इसकी तस्वीरें ट्विटर पर भी डालनी शुरू कर दी थीं कि कैसे नई-दिल्ली रेलवे स्टेशन पर सब कुछ सामान्य था! आशय यह कि इसके बाद, भगदड़ और मौतों की चर्चा पर पटाक्षेप हो जाना चाहिए।
बेशक, दुर्घटनाओं समेत अप्रिय घटनाओं की सच्चाइयों के सत्ताधारियों द्वारा एक हद तक छुपाए जाने में कुछ भी असामान्य नहीं है। आखिरकार, ऐसी घटनाओं से शासन तथा सत्ताधारियों की कुशलता पर सवाल उठते हैं और इन सवालों को दबाने की कोशिश में, सच्चाइयों को छुपाने की कोशिश भी की जाती है। ऐसा करने से अपवाद स्वरूप, केरल की कम्युनिस्ट सरकार जैसी कोई ऐसी सरकार ही बची रह सकती है, जो ऐसी किसी भी मुश्किल के समय में अपनी समुचित सक्रियता और जन-भागीदारी सुनिश्चित करने की तत्परता से, लोगों का भरोसा जीत सकने का विश्वास रखती हो।
लेकिन, नरेंद्र मोदी के राज में तो जनता की दु:ख-तकलीफ की सच्चाइयों को, सिरे से नकारने को ही नियम या नया नॉर्मल बना दिया गया है। पहली बार नोटबंदी के समय में बड़े पैमाने पर यह देखा गया था। उसके बाद, कोरोना के समय पर, प्रवासी मजदूरों की तकलीफदेह पैदल घर वापसी से लेकर, आक्सीजन तथा अस्पतालों में बैडों की कमी तथा श्मशानों में कतारों तक की सच्चाईयों को जिस बेशर्मी से नकारने का अभ्यास किया गया, उसके बाद से बराबर जारी ही है। मणिपुर में दो साल चली अशांति में और अब कुंभ में भी, हादसा-दर-हादसा वही सब हो रहा है। यह सत्ताधारियों को जवाबदेही से परे बनाने का रास्ता है। धार्मिक उन्माद के बल पर सत्ता और सत्ता के बल पर धार्मिक उन्माद की आग में घी डालते रहने का मौका, यही वह फंदा है जो भारतीय जनतंत्र के गले पर कसता जा रहा है।
*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*