अग्नि आलोक
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एक कफनखसोट अश्लाघ्य प्रयत्न – कश्मीर फाईल्स

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डॉ. अभिजित वैद्य

प्रशासकीय प्रणाली में ‘फाईल्स‘ का मूल अर्थ है ‘गोपनीयता एवं बहुत ही यक़ीनन जानकारी’, असली सच इसमें छुपा होता है ऐसाही बहुत लोग मानते हैं । यह जानकारी प्रशासन के केवल अधिकारी एवं उच्च पदस्थ सत्ताधारियों को ही होती है । यह जानकारी बाहर न जाए इसलिए ये सब प्रतिबध्द होते हैं। इन फाईल्स को किसी अन्य जगह पर किसके द्वारा ले जाना प्रशासकीय गोपनीयता का उल्लंघन माना जाता है । लेकिन गत कुछ वर्षों में सत्ताधारी पक्ष को मुसीबत में डालने वाली गोपनीय फाईल्स बडी मात्रा में नष्ट कर दी गई है ऐसी अनेक लोगों को आशंका है । इसमें गांधी हत्या फाईल्स तथा गोध्रा फाईल्स होने की कडी संभावना है । लेकिन दुसरी ओर अनेक गोपनीय फाईल्स विवेक अग्निहोत्री जैसे व्यक्तियों के हाथ लगने की शुरुआत हुई है । ‘ हेटस्टोरीज ‘ जैसी सी-ग्रेड सेमी – पोर्नोग्राफिक  फिल्म बनानेवाला यह अवलिया अब देश के इतिहास में छिपे हुई सत्य खुलवाने के लिए और हिंदू संस्कृति का रक्षण करने के लिए अपनी ‘इस‘ अलग प्रतिभा को लेकर आगे बढ़ चुका है । उसके ‘हेटस्टोरीज‘ के बाद उस नाम की धाराओं की बरसात हुई । उसी तरह अब यह हस्ति इन ‘फाईल्स ‘ की वर्षा करनेवाला है । लाल बहादुर शास्त्री जी की अचानक मृत्यु का राज खोलनेवाली ‘ताश्कंद  फाईल्स‘ यह फिल्म उन्होंने बनाई । अब कश्मीर की घाटी के पंडितों के वंशच्छेद का वास्तव दुनिया के सम्मुख रखनेवाली ‘कश्मीर फाईल्स‘ । वास्तव में इस धारावाहीक को उसने ‘हेट फाईल्स‘ नाम रखना उचित होगा । सत्य को असत्य के भड़किले संपुट में बिठाकर सच की अपनी वैचारिक रचना योग्य पक्ष दिखाकर द्वेष फ़ैलाने का यह प्रयास है । इस फिल्म में अनुपम खेर ने व्यंगचित्रात्मक ढंग में उत्कृष्ट अभिनय किया हुआ पुष्करनाथ नामक पात्र कहता है – ‘ झूठा समाचार दिखाना, सच छुपाने जैसा इतना भी बुरा नहीं है ।‘ उससे स्फूर्ति लेकर अनेक लोगों ने अब दलित फाईल्स , बौध्द फाईल्स , बाबरी फाईल्स , गुजरात फाईल्स , राफेल फाईल्स , महाजन – मूंडे – पंड्या फाईल्स, लोया – व्यापम फाईल्स, अदानी – अंबानी फाईल्स जैसी अनेक फिल्म रूपी फाईल्स निर्माण करने की तैयारी शुरू की है ऐसा सुनने में आया है । लेकिन इसमें से एक भी सिनेमा प्रदर्शित नहीं होगा क्यूंकि सेंन्सॉर बोर्ड पर है दस्तुरखुदद विवेक अग्निहोत्री । कश्मीर फाईल्स अनकट, बिना काँट-छाँट करके प्रदर्शित कैसे हो गई यह भी इसका कारण हो सकता है । 

देश के इतिहास से संबंधित सच का सामना करना चाहिए – चाहे वो कितना भी कड़वा क्यों न हो। लेकिन यह सच सात अन्धो ने जिस तरह हाथी का अंदाजा लगाया था वैसा नहीं होना चाहिए । इससे भी सच अपनी जहरीली रचना का प्रचार तथा जनता के मन में डर निर्माण करनेवाला भाड़े का टट्टू नहीं होना चाहिए । असत्य के पूर्वग्रह दूषित धागों से जोड़े हुए सत्य के टुकडे, सत्य नहीं होता । वह असत्य के पास पहुँच जाता है । ऐसा सच प्रस्तुत करते समय कला का आधार लिया जाता है तब जन्म लेनेवाली कला अभिजात बनकर नहीं रहती, प्रचारकी बनती है । ऐसी कला उस वातावरण में द्वेष की आग भड़काने काम करने में शायद यशस्वी होगी लेकिन समय की धारा में वो नहीं टिक सकेगी । हिटलर के ज़माने में गोबेल्स ने प्रपोगंडा सिनेमा की वर्षा की । अनेक भाड़े के सिनेमा निर्माताओं ने हाथ की सफाई की क्योंकि ऐसे सिनेमाओं के लिए सच्चे प्रायोजक होते हैं सत्ताधीश एवं उनके धनवान चमचे । आज समय की धारा में वह सब  लुप्त हो गया । हमारे यहाँ जबसे मोदी गुजरात में सत्ता में आ गए तब से ऐसे सिनेमाओं की निर्मिती बड़ी मात्रा में होने लगी । कश्मीर फाईल्स उसी स्तर का सिनेमा है । चित्रपट निर्माता के रूप में विवेक अग्निहोत्री कितना सामान्य दर्जे का हैं यह दिखाई देता है । भड़कदार प्रचारकी जिद के कारण उन्होंने कश्मीरी पंडितों की व्यथा को कलात्मक संवेदनशीलता का स्पर्श न करते हुए एक कफनखसोट अश्लाघ्य प्रयास किया  है । अपने नेता की खुशामद करने में अग्निहोत्री इतने घसीटते गए कि उनहोंने बिट्टा के मुँह में , ‘सभी का प्यार पाने के लिए लालची नेता – नेहरु एवं वाजपेयी’  इस भाषा में उन दोनों का मजाक और ‘सभी ने हमें डरकर रहना चाहिए ऐसे माननेवाला आपका विद्यमान नेता’ ऐसी मोदीजी की प्रशंसा करनेवाले वाक्य लिखे हैं । इस समय बिट्टा दल सरोवर के हाउस बोट पर खुलेआम बैठा है और मोदी दिल्ली में सत्ता पर है । इसके साथ बिट्टा खुद का उल्लेख ‘गांधी’ ऐसा करता है और अपनी लडाई का ‘अहिंसक’ लड़ाई ऐसा करता है । महात्मा गांधी जी का मजाक करने का केउलवना प्रयास करने का मोह वह टाल नहीं सकता । 

कश्मीरी पंडितों पर बड़ा अन्याय हुआ है यह सच है । भयानक क्रौर्य का उन्हें सामना करना पड़ा यह बात भी  सच है । लेकिन सिनेमा में उनके ‘ एक्झोंडस ‘ एवं ‘ जिनोसाईड ‘ का दृश्य दिखाया है वह कालावधि भारतीय जनता पक्ष के समर्थन से सत्ता में आए हुए वी.पी. सिंगजी का है । जिस मेहबूबा सय्यद के साथ मिलीभगत करके भाजपा ने जम्मू-कश्मीर की सत्ता हासिल की, उनके अपहरण के बाद खूँखार आतंकवादी को रिहा करनेवाले उनके  पिता, मुफ़्ती मोहंमद सय्यद इस गृहमंत्री का कालावधि है । संघ के साथ गहरे संबंध रखनेवाले राज्यपाल जगमोहन , केवल राज्यपाल ही नहीं अपितु राष्ट्रपति शासन लागु करने के कारण लेफ्टनंट गवर्नर पद का यह कालावधि है । इस पूरे कालावधि में एक क्रूरकर्मा आतंकवादी ‘ कराटे बिट्टा ‘ किसी  की भी परवाह न करते हुए बड़ी निडरता के साथ हत्या करता रहा । सभी हताश होकर यह सब देखते रहे  । हमारे जॉबाज भारतीय लष्कर को अगर आदेश दिया होता तो कबसे उसका खात्मा कर दिया होता । कमसेकम अडवाणी, वाजपेयी, मुरली मनोहर जोशी, तथा तोगडिया आदि नेता अगर श्रीनगर में ठहर जाते तो भी इसे टाला जा सकता था । ऐसा करने के लिए धरा ३७० की कोई रूकावट नहीं थी । नौखाली की ज्वालाओं में अकेले घूसकर उसे बुझानेवाला निःशस्त्र गांधी की इस समय याद आती है । लेकिन वो ‘ डरपोक ‘ , उसकी अहिंसा ‘ नपुसक ‘ और पंडितों की हत्या शांत रहकर देखनेवाले सभी ‘ वीर ‘। कश्मीर फाईल्स सिनेमा की शुरुवात ऐसे ही वीर महाशयों से होती है । एक मिथुन चक्रवर्ती, निवृत्त आयएएस अधिकारी – ‘ब्रम्हादत्ता‘, दुसरा पुनीत इस्सार – निवृत्त्त आयपीएस अधिकारी – ‘हरिनारायण‘, तीसरा प्रकाश बेलावडी, निवृत्त वैद्यकीय अधिअरी – ‘डॉ. महेशकुमार ‘ तथा चौथा अतुल श्रीवास्तव, निवृत्त पत्रकार – ‘विष्णू राम’ । ये सब कश्मीरी मित्र २०१६ में मिथुन चक्रवर्ती याने ब्रम्हा के घर ३० सालों बाद मिलते है । ब्रम्हा की पत्नी मृणाल कुलकर्णी ‘लक्ष्मी‘ इन सभी का विशेष तौर पर कश्मीरी मेजवानी से मेहमाननवाजी करती है । इन सभी का पाँचवा मित्र ‘पुष्करनाथ  पंडित‘, अवकाश  प्राप्त अध्यापक, उसका पोता दर्शनकुमार सिनेमा में ‘कृष्णा‘ वहाँ आनेवाला है । यह ए.एन.यु. (खुले तौर पर जे.एन.यु.) वाम विचारों का, अर्बन नक्षलवादियों को निर्माण करने वाला, ‘तुकडे तुकडे गँग’  सँभालनेवाला, पाकिस्तानी आतंकवदियों के साथ दोस्ती का संबंध रखनेवाला विश्वविद्यालय का वामपंथी युवा छात्र । उसके पिता करण, अर्थात अनुपम खेर का बेटा, उसकी माँ शारदा अर्थात अनुपम खेर की बहु और उसका बड़ा बेटा ‘शिवा’ याने अनुपम खेर का बड़ा पोता, इन तीनों की हत्या बिट्टा अलग अलग समय पर अत्यंत क्रूरता से करता है । बिट्टा पुष्करनाथ का छात्र होने पर भी उसे पलभर के लिए  ऐसा महसूस नहीं होता कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए । लेकिन ये सब बातें कृष्णा को मालूम नहीं है । अपने दादाजी के पार्थिव की रक्षा लेकर वह वहाँ पहुँचता है और व्हिस्की तथा रम के घूँट लेकर कश्मीरी मेजवानी का आनंद लेनेवाले अपने दादाजी इन मित्रों के बीच १९९० में कश्मीर में हुआ जेनोसाइड का वास्तव उनकी चर्चा के माध्यम से उसके सम्मुख खुला हो जाता है । यह सबकुछ होते समय उसके विश्वविद्यालय के गौरवशाली इतिहास को भूलनेवाले, कश्मीर की स्वतंत्रता का समर्थन करनेवाले, मुस्लिमों को अपना माननेवाले, अफजल गुरु की फाँसी का निषेध करनेवाले, ‘हम देखेंगे‘ जैसे गीत गानेवाले, देश के टुकडे हो ऐसी इच्छा रखनेवाले हजारों बुध्दिवान युवक-युवतियाँ और उन्हें वामपंथ पर चलना सिखानेवाली प्राध्यापिका पल्लवी जोशी (वास्तव में अग्निहोत्री की दुसरी पत्नी ), सिनेमा की ‘राधिका मेनन’ इनका भी रहस्य खुल जाता है । उसकी आँखें खुलती है और वह सीधा दाहिने ओर पलटी मारता है । कश्मीर में उस समय रहकर भी यह हत्याकांड रोकने के लिए प्रामाणिक प्रयास नहीं करनेवाले ये चार मित्र शराब चढ़ने पर एक-दुसरे को देशद्रोही आदि कहकर अंत में शराब की नशा ज्यादा होने पर एक-दुसरे को ‘ गुड नाईट ‘ कहकर सो जाते हैं । इन दोस्तों के मिलने से शुरू हुआ यह सिनेमा, अपना पक्ष बदलकर उसके विश्वविद्यालय के छात्रों को कृष्णा ने दिया हुआ कुल १४ मिनटों का भाषण ख़त्म होने पर ‘दी एन्ड‘ होगा ऐसा लगता था । लेकिन अग्निहोत्री सिनेमा का     ‘दी एन्ड’ करता है बिट्टा के कुप्रसिद्ध ‘नंदिमार्ग हत्याकांड’ की कुल चौबीस हत्याएँ दिखाकर । अंतीम फ्रेम होती है छोटे ‘शिवा‘ की हत्या की । आतंकवादी (अर्थात मुसलमानों की ) क्रौर्य की परिसीमा ।

सिनेमा में हिंदू पुरानों के कृष्णा, शिवा, ब्रम्हा, हरि, नारायण, महेश, विष्णू, राम, शारदा एवं लक्ष्मी आदि देवताओं की फ़ौज खड़ी की है । इस सिनेमा के दो खलनायक हैं । एक चिन्मय मांडलेकर द्वारा अभिनीत पाकिस्तान पुरस्कृत आतंकवादी बिट्टा, जो आज भी जिंदा है । मोदीजी के पहले पाँच सालों के कार्यकाल में खुलेआम घूमनेवाला और अभी जो हवालात में है । कॉंग्रेस ने उसे १६ साल कारावास में रखा था, उच्च न्यायालय ने उसे जमानत दी थी । दुसरी है काल्पनिक खलनायिका, ए.एन.यु विश्वविद्द्यालय की बेहद विद्यार्थीप्रिय, लेकिन अग्निहोत्री ने सबित की हुई ‘अर्बन नक्षलवादी‘ तथा देशद्रोही प्रा. राधिका मेनन । यह बुद्धिमान प्राध्यापिका बिट्टा की प्रेयसी है ऐसा  अंत में सूचित किया गया है । लेकिन खलनायकों के यही चेहरे हैं । अग्निहोत्री के असली खलनायक अन्य हैं । अग्निहोत्री की दृष्टी से बिट्टा पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व नहीं करता अपितु कश्मीर के सभी मुसलमान तथा देश के सभी मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व करता है । आतंकवादियों के हमले में कश्मीर के अनेक दलित हिंदू , सीख तथा मुसलमान भी मारे गए थे इस सच को वह छिपाकर रखता है । सोपोर हत्याकांड में ४६ मुसलमान मारे गए थे । मुसलमान कुलगुरु की हत्या की गई थी । अपने पंडित बांधवों के प्रति जान की बाजी लगानेवाले मुसलमानों को वह पर्दे पर दिखाता नहीं । उसकी नजर में कश्मीर का प्रत्येक मुसलमान दगाबाज , आतंकवादी , तथा फूटीरता का समर्थक है । पाकिस्तान पुरस्कृत आतंकवादी तथा कश्मीरी इन दोनों में फर्क नहीं है और एक अच्छा मुसलमान हो ही नहीं सकता इस पर पूरा विश्वास रखनेवाली यह व्यक्ति है । इस सिनेमा में छोटे बच्चे, पडोसी, विद्यार्थी, पुलिस, नेता, मौलवी जैसे जो भी मुसलमान है, सभी बुरे हैं । और उनके पीछे खड़े है देश के सभी मुसलमान । अग्निहोत्री जैसा इन्सान भारतीय सिनेमासृष्टि को समृद्ध करनेवाले – दिलीपकुमार, वहिदा रहमान, रफ़ी, तलत, नसीरुद्दीन, शबाना, जावेद अख्तर आदि के बारें में भी आशंका ले सकता है । इतना ही नहीं फ़ौज के मुसलमान जवानों के बारे में भी आशंका ले सकता है । राधिका मेनन एक व्यक्ति न होकर वह देश का जनतंत्र, धर्मनिरपेक्ष, वामपंथी, पुरोगामी विचारों का प्रतिनिधित्व करती है । विद्यमान सत्ताधारियों का सबसे बड़ा दुश्मन तो यही है । वामपक्ष में जिस तरह कम्युनिस्ट आते है उसी तरह से समाजवादी भी आते हैं । इन समाजवादियों ने ब्रिटिशों के विरुद्ध क्रांति का रणसिंघा फूँका था । भगतसिंग की विरासत यही थी । समाजवादियों ने आगे चलकर हिंसा का मार्ग त्यागकर महात्मा गांघीजी के ‘ छोड़ो भारत ‘ आंदोलन  में सहभाग लिया I देश की जनता स्वतंत्रता आन्दोलन में अपना बलिदान दे रही थी उसीसमय अग्निहोत्री के संस्कृतिरक्षक अंग्रेजों के साथ मिलीभगत कर रहे थे । लेकीन हिंदुत्ववादियों की प्राचीन खासियत है अपने स्वार्थ के विरुद्ध जो भी आवाज उठाएगा उसे किसी भी हालत में, किसीभी तरह वो  ख़त्म करने की कोशिश करते हैं । राधिका मेनन देशद्रोही प्रस्तुत करने का यही कारण है । पूरी जाँच तथा अभ्यास करने पर कश्मीर के पंडितों की हुई हत्याएँ ४००० से ज्यादा नहीं है । परागंद होनेवाले पंडितों की संख्या ज्यादा-से-ज्यादा पाँच लाख है । ये आँकड़े बहुत बड़े नहीं है इसलिए इनका महत्त्व कम नहीं होता । लेकिन ह्त्याओं के अंक पर सीधे दो शून्य लगाकर यह आँकड़ा बढ़ाना अश्लाघ्य है । यह सब हुआ १९९० -९२ के दरमियान । इसके बाद वाजपेयी कुल साडेछह साल तथा मोदी कुल आठ साल ऐसी  कुल साढेचौदह सालोंतक भाजपा की केंद्र में सत्ता थी फिर भी एक भी कश्मीरी पंडित का पुनर्वसन किया नहीं जा सका यह वास्तव है । बद्री रैना नामक विस्थापित कश्मीरी पंडित ने खुलेआम आरोप किया है की हमारी जख्मों का – दुर्गति का उपयोग हो इसलिए हिंदुत्ववादियों ने जख्म तेज बहता रखा । ऐसा आरोप करनेवाले अनेक पंडित हैं । सत्य के टुकड़ों को असत्य के जोड़े हुए धागे यही हैं । 

            मजे की बात यह है कि इस साधारण सिनेमा में थोड़ी अच्छी भूमिका निभाई है दो खलनायकों ने – चिन्मय मांडलेकर तथा पल्लवी जोशी ने । बाकी सभी पात्रों का अभिनय अत्यंत साधारण तथा हास्यास्पद है । अनुपम खेर ने तो पंडित का ‘कॅरिकेचर‘ किया है । उसका पोता अंत में कहता है – मेरे दादाजी को विस्मरण की बीमारी हुई थी । ऐसी बीमारी होनेवाला यह आदमी प्रधानमंत्रीजी को ३७० धारा हटाने की माँग करनेवाली ६ हजार पत्र लिखता है और इस माँग का फलक लेकर खड़ा हो जाता है । कश्मीर के इतिहास को शायद वे भूल गए होंगे । राजा हरिसिंग नामक हिंदू राजाने कश्मीरी पंडितों के आग्रह के कारण इस धारा को सबसे पहले अमल में लाया इस बात को बीमारी की वजह से भूल जाना स्वाभाविक है । लेकिन अग्निहोत्री के हाथ में सत्य की फाईल्स थी, वे भी भूल  गए । सिनेमा २०१६ में शुरू होता है और फ्लॅशबॅक से १९९० में जाता है । इसके बाद वह सिनेमा २०१६ तथा १९९० ऐसी द्विधा अवस्था में तितरबितर होता रहता है । यह दिग्दर्शक तथ एडिटर की कमजोरी है । सिनेमा में दिखाई हुई प्रतिमा बहुत ही भड़क तथा बच्चों की हरकती जैसी हैं । छायाचित्रण ठीक है । सिनेमा के सभी संवाद बकवास एवं प्रचारकी है । जब बिट्टा लत्ताप्रहार करता है तब अनुपम खेर ‘ओम नमो शिवाय’ कहता है , इसपर बिट्टा कहता है की, ’ अगर कश्मीर में रहना है तो  अल्हाह अकबर कहना है ‘। छोटे बच्चे भी ‘ रालीव , गालीव , या चालीव ( अर्थात धर्मांतर करो, चले जाओ या मर जाओ  ऐसी घोषणा देते हैं । और कश्मीर कैसा चाहिए ? ‘बटाव बगैर , बटनेवसान (पंडित पुरषों के बिना, लेकिन पंडित महिलओं सहित ) अनेक कश्मीरी पंडितों ने ‘ हमने ऐसी घोषणा कभी नहीं सुनी ‘ ऐसा कहा । लेकिन हमारे मतानुसार आतंकवादी इन्सानीयत खोया हुआ हैवान होता है । ऐसी घोषणा इस तरह की व्यक्ति ही कर सकती हैं । लेकिन इसे आज दिखाकर हम क्या पाना चाहते है यही अहम सवाल है । जो हासिल करना है वह पहले से ही तय हुआ है । इन्हें कश्मीरी पंडितों के साथ कुछ लेना –देना नहीं , उन्हें अब भविष्य में क्या ‘ जेनोसाइड ‘ की तैयारी करनी हैं ? ऐसा डर लगने लगता है ।  आतंकवादी का धर्म नहीं होता यह आज भी सत्य है । उसके धर्म के अनुसार उस धर्म के शिष्यों को आतंकवादी मानना पागलपन है । भिंद्रनवाले सीख्ख हैं इसलिए हर सीख्ख आतंकवादी नहीं हो सकता । प्रभाकरन हिंदू है अतः हर हिंदू वा तमील आतंकवादी नहीं हो सकता । लेकिन ऐसा होने पर भी आतंकवादी धर्म या पंथ का उदघोष करके हिंसा करते हैं यह बात भी सच है । विश्व के सभी धर्म अंत में मानवता का पुरस्कार करते हैं ऐसा माना जाता है । अगर ऐसा है तो धर्म के नाम पर होनेवाली हिंसा का धर्मों की ओर से निषेध होना चाहिए । अगर यह संभव हुआ तो शायद आतंकवादी निर्माण नहीं होंगे । लेकिन अब अन्यान्य तरीके से धर्म के आम सदस्यों को आतंकवादी बनाने का षडयंत्र रचाया जा रहा है । सिनेमा आम जनता को लुभानेवाला प्रभावी माध्यम है । धर्म का ध्यान सिनेमा के माध्यम की ओर मुड गया है और सिनेमा क्षेत्र को धर्म आकर्षित कर रहा है । विश्व में धर्म के नाम पर अनेक कलाकृतियों ने जन्म लिया । जिसमें शिल्पों , भित्तिचित्रों , वास्तुकला , नृत्य तथा संगीत आदि अनेक कलाओं का समावेश है । धर्म के आधार पर जन्म लेकर भी ये कलाकृतियाँ धर्मातीत एवं अभिजात साबित हुई । लेकिन जब धर्मांध व्यक्ति धर्म का विषैली प्रचार करने हेतु तथा दुसरे धर्म का द्वेष फ़ैलाने हेतु कला का उपयोग माध्यम के रूप में करता है तो कला मर जाती है, क्योंकि अभिजात कला वैश्विक होती है ।                                                                        

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