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समय चिंतन : हलाल सरीखे सब्जेक्ट पर एक दृष्टि

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 सुधा सिंह

     हलाल की बहुत चर्चा हो रही है. अनेक मित्र हलाल शब्द का अर्थ एक विशेष विधि से किसी पशु का वध करना मानते दिख रहे हैं. हलाल का शाब्दिक अर्थ है अनुमत. इसका विपरीत है हराम, जिसका अर्थ है जिसकी मनाही की गयी हो, वर्जित या निषिद्ध. भोज्य पदार्थों को लेकर यहूदियों और मुसलमानों में कई निर्देश हैं. दोनों समुदाय सूअर के मांस नहीं खाते हैं. 

       ध्यातव्य है कि मनुस्मृति के अनुसार ग्रामीण सूअरों का खाना वर्जित है!  वन्य सूअरों की मनाही नहीं की गयी है. स्वतः स्पष्ट कारण हैं, ग्रामीण सूअर विष्ठा खाते चलते हैं. वन्य सूअरों को इसकी जरूरत नहीं पड़ती.

       इसे देख कर यही लगता है कि यहूदी धर्म और इस्लाम दोनों मरुक्षेत्र में विकसित हुए थे जहाँ सूअर बस गाँवों में दीखते थे और स्पष्ट कारणों से उनकी मनाही थी. 

यहूदी और इस्लाम धर्मावलम्बियों में गधे का खाना भी वर्जित है. (पाकिस्तान हर वर्ष हजारो गधे चीन को निर्यात करता है जहाँ ऐसी कोई वर्जना नहीं है.)

     यहूदियों में दूध या दूध से बनी किसी चीज में नमक मिलाना मना है. दूध के साथ हिन्दू भी नमक का प्रयोग नहीं ही करते हैं किन्तु दही, घी, छेना/पनीर के साथ नमक का व्यवहार खूब होता है. यहूदी सामान्य ‘टेबल बटर’ नहीं खाते. वे कोशर बटर लेते हैं जिसमे नमक नहीं रहता.

       प्रवासी भारतीयों में कोशर बटर बहुत लोकप्रिय है; गृहणियाँ इसे पिघला कर घी बनाती हैं. (यूँ तो अब पाश्चात्य देशों में घी उपलब्ध है लेकिन महँगा बहुत पड़ता है.)

वापस हलाल पर आते हैं. बहुत पहले एक शिकार पर साथ हो लिया था जिसमे दो एक शिकारी मुसलमान थे. जैसे कोई चिड़िया गिरती थी उनके अनुचर एक चाकू लेकर मरी / अधमरी चिड़िया को ‘ज़िब्ह’ करने दौड़ चलते थे. ऐसे मामलों में इस्लाम के निर्देश मैंने ये जाने: अगर खुदा का नाम लेते हुए तीर या बंदूक से कुछ (ऐसा पशु जिसकी मनाही नहीं है) मारें और वह मर जाए तो वह हलाल है.

      पर अगर पकड़े जाने तक वह जिंदा रहता है तो यह ज़रूरी है कि उसका सही तरीके से ज़िब्ह किया जाए. इसी तरह अगर अल्लाह का नाम लेते हुए शिकारी कुत्तों या बाज़ों को छोड़ा जाए और वे किसी जानवर को मार लायें तो वह हलाल है.

     पर लाने के बाद भी वे जिंदा हों तो उनका क़ायदे से ज़िब्ह करना जरूरी है. और भी ऐसे निर्देश हैं. 

क्या ज़िब्ह करना गला रेतने को कहते हैं? नहीं, बिलकुल नहीं. जो किसी पशु को मारने जा रहा है उसे उसके साथ बहुत कोमल व्यवहार करना है. ज़िब्ह के समय जो अरबी ‘मन्त्र’ पढ़े जाते हैं उनके भाव हैं, मेरी तुमसे कोई शत्रुता नहीं है. लेकिन अल्लाह ने तुम्हे मेरा आहार बनाया है और उसी अल्लाह के नाम पर मैं तुम्हे अपने भोजन के लिए मारने जा रहा हूँ.

      उसके बाद वह वध्य पशु की धड़कती हुई नस –  जुगुलर – खोजता है और बहुत तेज धार उस पर चला देता है. पशु की मृत्यु रक्त-स्राव से होती है.   

     बहुत  पहले जॉन स्टेनबेक की एक किताब कैनरी रो पढ़ी थी. उसमे एक चरित्र है डॉक. डॉक एक वास्तविक चरित्र है जिसने  शिकागो से जन्तुशास्त्र में डॉक्टरेट कर रखी थी.

     किसी पशु को मारने के लिए वह यही विधि अपनाता था, अरबी मन्त्रों को छोड़ कर और उसका कहना था कि इसमें पशु को न्यूनतम कष्ट होता है. (अब आधुनिक कत्लगाहों में पशुओं को ‘स्टन’ करने  मारा जाता है जिसमे कहते हैं उन्हें कोई कष्ट नहीं होता.) 

हम लोग पशुओं को ‘झटका’ से मारते हैं. छोटे पशु इस विधि से आसानी से मारे जा सकते हैं लेकिन ज़िब्ह की शुरुआत वहाँ हुई जहाँ सबसे सस्ता मांस ऊँट का था.

      झटका से ऊँट मारना बहुत आसान नहीं होगा. लेकिन हम लोग हलाल का विरोध करते हैं? यह हमारे लिए धर्म विरुद्ध काम तो हैं नहीं।

     यह मुझे उतना ही बुरा लगता है जितना यह  कहा जाय कि सभी हिन्दू वचन लें कि वे केवल झटका खाएंगे.

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