अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

एजी नूरानी:देश को यह संदेश दिया था कि आरएसएस भारत के लिए खतरा है

Share

– अरुण कुमार त्रिपाठी

नूरानी ने आपातकाल के दौरान जेल से संघ के नेताओं द्वारा इंदिरा गांधी, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एसबी चव्हाण और विनोबा भावे को लिखे गए पत्रों का विस्तार से जिक्र किया है। छह महीने में दस पत्र लिखे गए और सारी कोशिश संघ से पाबंदी हटवाने और संघ के नेताओं को रिहा कराने की थी। इस बात से जेपी भी असहज होने लगे थे। पूना से प्रकाशित संघ का पत्र ‘तरुण भारत’ लगातार संजय गांधी की प्रशंसा कर रहा था और उनकी चिंता यह थी कि ‘बीस सूत्री कार्यक्रम’ लागू करने के लिए वे संघ जैसे संगठन का उपयोग क्यों नहीं कर रहे हैं।

अब्दुल गफ्फूर अब्दुल मज़ीद नूरानी (1930-2024) ने जाते-जाते देश को यह संदेश दे दिया था कि ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ’ (आरएसएस) भारत के लिए खतरा है। ‘आरएसएस :अ मिनेस टू इंडिया’ उनकी आखिरी महत्त्वपूर्ण पुस्तक थी। लंबे 93 साल गुजारकर पिछले गुरुवार (29 अगस्त) को उन्होंने हमसे सदा के लिए विदा ली। चार साल पहले यानी जब वे 89 साल के थे तब उनका यह आखिरी महत्त्वपूर्ण कार्य ‘लेफ्टवर्ड बुक्स’ ने प्रकाशित किया था।

वैसे तो उन्होंने विपुल लेखन किया है और इतिहास और तात्कालिक संवैधानिक सवालों पर उनकी कम-से-कम 15 महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं, लेकिन जो पुस्तक भविष्य के लिए महत्वपूर्ण है और जिसकी उपेक्षा भारतीय पाठकों और नागरिकों को महंगी पड़ सकती है वह यही पुस्तक है। पांच सौ पृष्ठों और 25 अध्यायों वाली इस पुस्तक के अंत में तकरीबन सौ पृष्ठों का परिशिष्ट है। संदर्भ सूची में ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ से संबंधित तब तक प्रकाशित शायद की कोई पुस्तक छूटी हो।

‘आरएसएस :अ मिनेस टू इंडिया’ समेत उनकी करीब दो दर्जन पुस्तकें हैं। निश्चित तौर पर इन पुस्तकों में बहुत सारे तथ्य और विचारों का दोहराव हुआ होगा, लेकिन एक बात साफ है कि बांबे हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक जमकर वकालत करने वाले एजी नूरानी का इतना अनथक, तथ्यपूर्ण और शोधपरक लेखन इस बात का प्रमाण है कि वे लोकतंत्र और भारत के विचार के प्रति गहरा प्रेम रखते थे और वकालत और लेखन दोनों माध्यमों से अपनी अधिकतम भूमिका निभाने को तत्पर रहते थे। कोई कह सकता है कि वे इतना लंबा जिए, इसीलिए इतना लिख पाए।

‘आरएसएस :अ मिनेस टू इंडिया’ का पहला अध्याय कहता है कि निस्संदेह ‘आरएसएस’ आज भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली संगठन है। उसके पास अपनी निजी सेना है, जो बिना कोई सवाल पूछे अपने नेता के आदेश का पालन करती है और उनका नेता फ्यूहरर के सिद्धांत पर फासीवादी ढर्रे पर काम करता है। पुस्तक कहती है कि ‘आरएसएस’ भारत के अतीत से युद्धरत है। वह भारत के तीन महान निर्माताओं को बौना करने में लगा रहता है : अशोक, जो कि बौद्ध थे, अकबर, जो कि मुस्लिम थे और नेहरू, जो कि एक सभ्य और प्रबुद्ध हिंदू थे। वह भारत की सदियों में हासिल की गई उन उपलब्धियों को धो देना चाहता है जिनके लिए दुनिया भारत की सराहना करती है और उसकी जगह पर अपनी संकीर्ण विचारधारा कायम कर देना चाहता है।

‘आरएसएस’ देश के लिए कैसे खतरा पैदा कर सकता है इस बारे में उन्होंने पुस्तक की भूमिका में पंडित जवाहर लाल नेहरू का एक किस्सा सुनाया है। येजदी गुंडेविया भारत के विदेश सचिव थे और वे हर शुक्रवार को प्रधानमंत्री नेहरू के साथ अपने अधिकारियों की एक बैठक आयोजित करते थे। उस बैठक में पंडित नेहरू से अफसर सवाल करते थे। एक दिन किसी ने कोई सवाल नहीं किया तो विदेश सचिव महोदय ने स्वयं अपनी शंका सामने रखी। बातचीत के क्रम में उन्होंने कहा कि सर, अभी तो कांग्रेस सत्ता में है और वही बार-बार आती जा रही है। वह जो नीतियां बनाती है उसे हम अफसर लागू करते हैं, लेकिन अगर कल को कम्युनिस्ट सत्ता में आ गए तो क्या होगा?

नेहरू ने थोड़ी देर सोचा और फिर बोले – ‘कम्युनिस्ट, कम्युनिस्ट, कम्युनिस्ट! आखिर ऐसा क्या है जो कम्युनिस्ट कर सकते हैं और हम नहीं कर सकते और ऐसा क्या है जो हमने किया नहीं है? आप ऐसा क्यों सोचते हैं कि कम्युनिस्ट इस देश में केंद्र में सत्ता में आएंगे?’ उसके बाद नेहरू कुछ समय खामोश रहे और फिर धीरे से कहा, ‘ध्यान रखिए भारत के लिए खतरा साम्यवाद नहीं है। वास्तव में खतरा दक्षिणपंथी सांप्रदायिकता से है।’

नेहरू के इस मसीहाई कथन का उल्लेख करते हुए नूरानी लिखते हैं, ‘उसके बाद से ज़हर काफी फैल चुका है, लेकिन जो शक्तियां इस ज़हर को फैला रही हैं वे अजेय नहीं हैं। वे हराई जा सकती हैं, अगर उनका विरोध करने वाली ताकतें तैयार हों और हर स्तर पर चुनौती का मुकाबला करने लिए सुसज्जित रहें। यह तैयारी सिर्फ वैचारिक स्तर पर ही नहीं होनी चाहिए, हालांकि उस स्तर पर भी मुकाबला करने को बहुत कम लोग तैयार रहते हैं, लेकिन, अगर रणभेरी की आवाज ही साफ नहीं है तो अपने को युद्ध के लिए कौन तैयार करेगा?’ नूरानी लिखते हैं कि ‘जो चीज दांव पर लगी है वह महज भारतीय स्वप्न नहीं है, बल्कि वह भारत की आत्मा है।’

इस पुस्तक का 14 वां अध्याय ‘द आरएसएस, इमरजेंसी एंड द जनता पार्टी’ शीर्षक से है और आज जब भाजपा आपातकाल का स्मरण करते हुए संसद में निंदा प्रस्ताव पारित कर रही है तब इस अध्याय को विशेष तौर पर पढ़ा जाना चाहिए। संघ के लोगों ने किस प्रकार जेल से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिखे और बाद में किस प्रकार दोहरी सदस्यता के सवाल और ‘आरएसएस’ के चरित्र को बदलने के जयप्रकाश नारायण के आग्रह पर उन्हें धोखा दिया, ये सारे ऐतिहासिक तथ्य आज की युवा पीढ़ी को ज्ञात होने चाहिए।

जयप्रकाश जी को यह लगने लगा था कि उन्होंने आंदोलन में संघ को लाकर और उनके लोगों को मुस्लिम युवाओं के साथ काम करने का मौका देकर सेक्यूलर बनाया है। तभी जनसंघ के अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने उन्हें दिल्ली में अपने राष्ट्रीय अधिवेशन में विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित किया और जेपी ने 7 मार्च 1975 को अपना सर्वाधिक विवादास्पद भाषण दिया जिसमें उन्होंने कहा था – ‘अगर जनसंघ फासीवादी है, तो जयप्रकाश नारायण भी फासीवादी है।’

नूरानी ने आपातकाल के दौरान जेल से संघ के नेताओं द्वारा इंदिरा गांधी, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एसबी चव्हाण और विनोबा भावे को लिखे गए पत्रों का विस्तार से जिक्र किया है। छह महीने में दस पत्र लिखे गए और सारी कोशिश संघ से पाबंदी हटवाने और संघ के नेताओं को रिहा कराने की थी। इस बात से जेपी भी असहज होने लगे थे। पूना से प्रकाशित संघ का पत्र ‘तरुण भारत’ लगातार संजय गांधी की प्रशंसा कर रहा था और उनकी चिंता यह थी कि ‘बीस सूत्री कार्यक्रम’ लागू करने के लिए वे संघ जैसे संगठन का उपयोग क्यों नहीं कर रहे हैं।

संघ के नेताओं की इन हरकतों का जेल में बंद समाजवादी नेताओं ने विरोध किया। उन्होंने बार-बार समझाया कि इस तरह डरना और समझौता करना ठीक नहीं है। ऐसे नेताओं में बाबा अढ़ाव और एसएम जोशी का नाम महत्वपूर्ण है। बाबा अढ़ाव ने ‘आरएसएस’ की समझौतावादी नीतियों के बारे में काफी लिखा है। नूरानी ने उसका विस्तृत वर्णन पुस्तक में किया है। उन्होंने मधु लिमए के लेखन का भी पर्याप्त इस्तेमाल किया है। आपातकाल हटने के बाद ‘जनता पार्टी’ बनी और उसके शपथ-पत्र में था कि जनसंघ के लोग अगर पार्टी में आएंगे तो किसी और संगठन के सदस्य नहीं रहेंगे। उन्होंने शपथ-पत्र तो भरा, लेकिन उसका पालन नहीं किया। 13 सितंबर 1977 को जेपी ने एक बयान दिया जिसमें उन्होंने उम्मीद जताई कि ‘आरएसएस’ के लोग अब ‘हिंदू राष्ट्र’ का सिद्धांत छोड़ देंगे, सेक्यूलर धारणा को अपनाएंगे और देश के अन्य समुदायों को गले लगाएंगे। ‘आरएसएस’ के तत्कालीन महासचिव माधव राव मुले ने जेपी को जो जवाब दिया उससे जेपी ठगे से रह गए। उनका कहना था कि हम लोग शायद एक दूसरे के विचारों को समझ नहीं पाए हैं।

वह लंबा पत्र जेपी को काफी नाराज कर गया और उन्होंने कहा कि ‘आरएसएस’ से निपटने के लिए कोई कानून होना चाहिए। ‘मैं किसी कानूनी कार्रवाई के विरुद्ध हूं, लेकिन अगर जरूरी हो तो वैसा होना चाहिए।’ जेपी ने साफ कहा कि या तो ‘आरएसएस’ दूसरे समुदायों के लिए अपने दरवाजे खोले या फिर अपना काम बंद करे। ‘मैं स्पष्ट हूं कि अब ‘आरएसएस’ को बने रहने का कोई औचित्य नहीं है।’ बाद में जेपी और देवरस की कई दौर की बात हुई, लेकिन उसका कोई हल नहीं निकला और मुसलमानों को संघ में शामिल किए जाने पर उनकी आपत्तियां जस-की-तस बनी रहीं।

संघ के इसी चरित्र को लेकर जवाहर लाल नेहरू ने एमएस गोलवलकर को 10 नवंबर 1948 को लिखे पत्र में कहा था – ‘लगता है कि घोषित उद्देश्य का वास्तविक उद्देश्य और ‘आरएसएस’ के लोगों द्वारा तमाम तरीके से की जाने वाली गतिविधियों से कोई लेना-देना नहीं है। उनका जो वास्तविक उद्देश्य है, वह भारतीय संसद के निर्णयों और संविधान के प्रस्तावों के पूरी तरह से विपरीत है। हमारी सूचना के अनुसार उनकी गतिविधियां राष्ट्रविरोधी और अक्सर विध्वंसकारी और हिंसक हैं।’ शायद नेहरू के इस मसीहाई वाक्य ने ही नूरानी को यह किताब लिखकर भारतीयों को जगाने की प्रेरणा दी थी। नेहरू भी नहीं हैं और नूरानी भी पिछले हफ्ते जा चुके हैं, लेकिन उनकी चेतावनी की उपेक्षा भारत की आत्मा पर भारी पड़ सकती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे हैं)

Add comment

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

चर्चित खबरें