डॉ. विकास मानव
आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः…. कहीं यह वाक्यांश पढ़ लिया तो समझ बैठा कि गीता अ०६/१७ के बारे मे कहा गया होगा।संतुष्ट हो गया कि सात्विक आहार से अंतःकरण की शुद्धि हो जाती है।
कुछ और आगे बढ़ा तो अ०/१७/८/को अंतिम मान लिया और पुष्टि हो गयी इस बात की कि आहार की शुद्धि से ही सत्व की शुद्धि हो जाती है।
पर जाने क्यों मन मे एक भय तब भी बना रहा। और आगे बढ़ा तो समझ आया कि आहार यानी आह्रित्य इत्याहारः। फिर तो बड़े व्याख्या की आवश्यकता आ पड़ी आहार को समझने की। क्योंकि आहरण के माध्यम तो जिह्वा के अतिरिक्त त्वचा,श्रोत्र,चक्षु और घ्राण भी हैं।
विषयोपलब्धि कही से हो, है तो आहार ही।
जब तक सभी की शुद्धि नही होगी,विषयोपभोग तो होता ही रहेगा,तब अंतःकरण कैसे निर्मल होगा?
तो देखना,सुनना और गन्ध स्पर्शादि का ग्रहण भी शुद्ध होना चाहिए तभी भूतात्मा मे अविच्छिन्न स्मृति बन पाएगी और स्मृतिलब्ध होने पर ही कयी जन्मों मे अनुभव की हुई भावनाओं से कठिन हुई अविद्याकृत अनर्थपाशरूप हृदयग्रन्थियों का प्रमोक्षण होगा। और पूर्णरूप से तपकर निकले सोने की तरह शुद्ध अंतःकरण मे उस परावर का साक्षात्कार होगा।
ऋग्वेद की ऋचा (१।८९।८) कहती है :
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा.
अर्थात् ऋषि कहता है कि हे देव! कानों मे हम सब केवल कल्याणकारी वचन सुनें तो यदि लड़ाई- झगड़ा, टी.वी., मोबाइल पर केवल दंभ, अहंकार, विवाद सुनेंगे तो मन और आत्मा कैसे शुद्ध होगा? यह भी तो आहार है।
यानी तब कल्याण नही होगा बल्कि भद्रा लग जाएगा। मञ्त्रद्रष्टा इस दोष को जानता है और हम केवल भोजन को आहार समझ बैठे है, जबकि,,शीतलं साधु संगति,,यह पहला सूत्र है, लेकिन अब सभी साधू हो गये तो साधु कहाँ मिले?
आगे ऋचा कहती है :
पश्येमाक्षभिर्यजत्राः.
यानी बाह्याभ्यन्तरनेत्रैः,,बाहर और अंदर की आँखों से सदैव कल्याणकारी देखे। तो न्यूड फिल्मे क्यों देखते हैं? हमेशा दुसरे मे बुराई क्यों देखते हैं? टी.वी.पर अर्धनग्न स्त्रियों के विज्ञापन क्यों देखते हैं? यहाँ तक अगर ठीक भी हो तो छोटे-छोटे बच्चों को क्यों दिखाते हैं?
फिर ऋचा कहती है : स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांससस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः.
अर्थात् हे देव! बढ़े हुए बल वाला शरीर, दृढ़ अङ्ग,ब्रह्मचर्यादि नियमो से हमे प्राप्त हो, तथा (देवहितं) विद्वानों का हित करनेवाले कर्म हमसे कराओ और (आयु:) यानी पूर्ण उम्र और ऐसी अवस्था हमे बार-बार प्रदान कराओ।
इसके बाद ७/५९/१२/ मे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम् वाक्य आता है तो हम तो दुर्गन्धयुक्त वातावरण मे रह रहे है और इसके निर्माता भी हम ही हैं।
परमात्मा ने तो शुद्ध वायु हमे दिया था और हम अग्नि मे घृत के स्थान पर प्लास्टिक और टायर जलाकर अशुद्ध आहार ले रहे हैं, अनेक प्रकार के उद्योग लगाकर वातावरण को अशुद्ध करके उसी का आहार नाक से ले रहे हैं तो(तुष्टुवांसः) पदार्थो के गुणो मे छेड़़छाड़ के दोषी हम ही हुए.
तो सत्यं दर्शनं सत्यनिष्ठामायुश्च प्राप्तुं के लिए हम शक्य कैसे होंगे जिससे कि शरीर और आत्मा दृढ़ हो और मुण्डक की श्रुति है कि नायमात्मा बलहिनेन. तो जब हम स्वयं की गल्ती से अपने को इस योग्य नही बना सके तो शास्त्रं तस्य करोति किम् और दोष शास्त्रों को देते हैं।
छांदोग्या उपनिषद (/७/२६/२/) का मंत्र है :
न पश्यो मृत्युं पश्यति न रोगं.
वह न तो मृत्यु को देखता और न रोग दुखत्व को देखता।
तब क्या देखता है?
पश्यति सर्वमाप्नोति सर्वशः.
सम्पूर्ण अर्थात् भूमा को देखता है.
तो अशुद्ध रहकर भूमा को कैसे देख लेगा? यहाँ शास्त्र तो अनुशासन और मार्गदर्शन के लिए हैं और हम अपना समय वाद-विवाद मे बिता रहे हैं.
जबकि होना यह चाहिए था कि जब तक शास्त्र के सम्पूर्ण अभिप्राय को सम्यकरूप से समझ नही लिया जाता तब तक मृदितकषाय वासनाएं जो अंतःकरण की रञ्जक हैं निवृत्त नही होती।
अतः ज्ञान की पूर्णता शास्त्रों के गहन अध्ययन,चिंतन और मनन से ही संभव है। तभी ज्ञान,विराग और अभ्यासरूपी क्षार से कषाय का क्षालन हो सकता है अन्यथा नही। अर्थात् शास्त्रों को पढ़कर, सुनकर, अभ्यास करके सबसे पहले शुद्ध तो अपने को और अपने आश्रितों/शिष्यों को करना चाहिए था।
यदि तब भी समझ मे नही आया और उस सत्य को जानने की उत्कट् जिज्ञासा शेष है तो किसी तत्त्वज्ञानी के पास जाकर सम्यक् तर्क करो।
अविज्ञाततत्त्वेsर्थेकारणोपपत्तितस्तत्त्वज्ञानार्थमृहस्तर्कः
(न्याय०/१/१/४०)
यदि इस सूत्र का पालन नही करते और कुतर्क करते हो तो वह तत्त्वज्ञानी भी समझ लेगा कि इसे ज्ञान नही चाहिए यह अयोग्य, मात्र हमारी परीक्षा लेने आया है।
लोग हैं कि न आहार शुद्ध है न अभिमान निवृत्त हुआ. अगर फिर भी वे समझते हैं कि हम सब जानते हैं : तो उनसे यही कहा जा सकता है कि : मरो कीड़े- मकोड़ो की तरह।
(चेतना विकास मिशन)