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‘आलोकुठि’ ….मारीचझांपी नरसंहार:इतिहास के कुछ ज़ख्म नासूर बन जाते हैं

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अमिता शीरीं

इतिहास के कुछ ज़ख्म इतने गहरे होते हैं कि वे नासूर बन जाते हैं। गाहे-बगाहे वे ज़ख्म रिसने लगते हैं। उन्हें छिपाने की कितनी भी कोशिश की जाय, ज़ख्म हरे हो ही जाते हैं। ऐसा ही एक ज़ख्म है, पश्चिम बंगाल के दलितों के मन में। यह जख्म है 31 जनवरी, 1979 को हुआ मारीचझांपी नरसंहार। इस नरसंहार में हज़ार से ज्यादा की संख्या में नामशूद्र (दलित) मारे गए। इस नरसंहार को ढंकने के लिए खूब परदे डाले गए। स देश में न जाने कितने जलियांवाला बाग़ कांड इतिहास की परतों में दफ्न हैं। ज़ाहिर है दशकों तक रहे वामपंथी शासन को इस इतिहास को सामने लाने की कोई मंशा नहीं थी। भाजपा ज़रूर अब इस घटना को सांप्रदायिक रंग देते हुए उन नामशूद्र दलित लोगों को ‘हिंदू’ शरणार्थियों के जनसंहार के रूप में प्रचारित कर रही है।

मारीचझांपी नरसंहार की जड़ें विभाजन तक जाती हैं। हुआ यूं कि 1947 में जब भारत का विभाजन हुआ तो पंजाब और बंगाल का भी विभाजन होकर पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान बना। बंगाल का यह विभाजन ब्रिटिश सरकार की उस योजना के तहत हुआ, जिसमें बंगाल के हिंदुओं और मुसलमानों (इनमें सभी को मत देने का अधिकार नहीं था) को विभाजन के पक्ष या विपक्ष में वोट डालने को कहा गया। इसके तहत मुस्लिम बहुल इलाके के लोगों ने एकीकृत बंगाल के पक्ष में वोट डाला जबकि मुस्लिम लीग, कांग्रेस, हिंदू महासभा और कम्युनिस्ट समर्थकों ने विभाजन के पक्ष में वोट डाला। ज़ाहिर है बंगाल अगर एकीकृत रहता तो मुस्लिम बहुल रहता। इसका खतरा उस समय के सवर्ण नेताओं को ज़्यादा लग रहा था। इस वोटिंग के बाद बंगाल के विभाजन पर मुहर लग गई। 

लेकिन बंगाल के शिड्यूल कास्ट फेडरेशन ने विभाजन के ख़िलाफ़ एकीकृत बंगाल के पक्ष में वोट डाला। इसका कारण था पूर्वी बंगाल में दलित जो स्वयं को नामशूद्र कहते थे, बेहद ग़रीब थे। वे अधिकांशतः भूमिहीन थे या उनके पास बहुत कम ज़मीन थी। उनके पास इतने संसाधन या संपर्क नहीं थे कि वे पश्चिम बंगाल में जाकर फिर से बस जाते और अपनी जड़ें जमा पाते। इसलिए उन्होंने अपना मुल्क छोड़कर जाना स्वीकार नहीं किया। इनके नेता जोगेंद्रनाथ मंडल आज़ाद पाकिस्तान में पहले कानून मंत्री बने। वह बंगाल के विभाजन के ख़िलाफ़ थे। हालांकि बाद में उन्हें भारत में वापस आना पड़ा। 

वहीं पूर्वी बंगाल के सवर्ण पश्चिम बंगाल में बस गए। धीरे-धीरे नामशूद्रों का पूर्वी पाकिस्तान में रहना दुश्वार होता जा रहा था। बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम के दौरान लगभग एक करोड़ दलित शरणार्थी भारत आए। भारत सरकार ने उन्हें नागरिकता देने से मना कर दिया और उन्हें जबरन दंडकारण्य (वर्तमान में छत्तीसगढ़ का बस्तर संभाग) की पथरीली ज़मीन, अंडमान, और उत्तर प्रदेश के मलेरिया प्रभावित तराई के इलाकों में भेज दिया। 

पश्चिम बंगाल के वामपंथी नेता रहे राम चटर्जी ने केंद्र सरकार की इस पुनर्स्थापन नीति का विरोध किया और दंडकारण्य जाकर लोगों से मिले। उन्होंने वादा किया कि पश्चिम बंगाल में उनकी सरकार आने पर वे उन्हें वहां बसाएंगे। उनके कहने से ही इतनी बड़ी संख्या में लोग दंडकारण्य से पश्चिम बंगाल का कठिन सफ़र तय करके मारीचझांपी पहुंचे। वर्ष 1977 में वामपंथी सरकार बन गई, लेकिन वह अपने वादे से मुकर गई। नागरिक मानना तो दूर की बात रही, उन्हें अवैध घोषित कर दिया। 

विजय गौड़ द्वारा लिखित उपन्यास ‘आलोकुठि’ का मुख पृष्ठ

बड़ी संख्या में शरणार्थी खास तौर पर दंडकारण्य से पश्चिम बंगाल पहुंचने लगे। जैसे-तैसे करके वे सुंदरवन डेल्टा में स्थित मारीचझांपी द्वीप में बस गए। उन्होंने झाड़-झंखाड़ को साफ़ कर उस द्वीप को एक स्वप्न द्वीप में तब्दील कर दिया। बिना किसी सरकारी सहायता से उन्होंने द्वीप पर स्कूल, अस्पताल, पीने का पानी आदि हरेक चीज़ की व्यवस्था की। जबकि सीपीएम की सरकार ने रिज़र्व फॉरेस्ट का हवाला देते हुए उनकी रिहाइश को अवैध कब्ज़ा करार दे दिया। इसके बाद 24 जनवरी, 1979 को सैंकड़ों नौकाओं पर सवार पुलिस ने पूरे द्वीप को घेर लिया। यहां तक कि द्वीप में आने वाली रसद की सप्लाई रोक दी। 

बताने वाले तो यह भी कहते हैं कि पीने के एक मात्र जलस्रोत में सरकार ने ज़हर घोल दिया। 31 जनवरी, 1979 को पुलिस ने लोगों पर फायरिंग शुरू कर दी। एक हज़ार से ज्यादा की संख्या में दलित शरणार्थी मारे गए। जबकि सरकारी आंकड़ों में इनकी संख्या महज 10 बताई गई। इस बात को सुनिश्चित नहीं किया जा सका कि वास्तव में कितने लोगों की मौत उस नरसंहार में हुई। 

इस तरह इस देश में न जाने कितने जलियांवाला बाग़ कांड इतिहास की परतों में दफ्न हैं। ज़ाहिर है दशकों तक रहे वामपंथी शासन को इस इतिहास को सामने लाने की कोई मंशा नहीं थी। भाजपा ज़रूर अब इस घटना को सांप्रदायिक रंग देते हुए उन नामशूद्र दलित लोगों को ‘हिंदू’ शरणार्थियों के जनसंहार के रूप में प्रचारित कर रही है। 

इतिहास के इसी अनकही दास्तान की पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास है– ‘आलोकुठि’। देहरादून निवासी प्रसिद्ध लेखक विजय गौड़ ने इसे लिखा है। उन्होंने नौकरी के सिलसिले में कुछ समय कोलकाता में बिताया और तभी उनका साबका इस नरसंहार से हुआ, जिसके ऊपर पारंपरिक इतिहास कोई बात ही नहीं करता।

मारीचझांपी जिसे विजय गौड़ अपने उपन्यास में आलोकुठि कहते हैं। दरअसल, आलोकुठि का मतलब घर का वह हिस्सा, जहां खूब रोशनी आती है या वह घर जिसमें खूब रोशनी आती है। उपन्यास का पहला वाक्य है– ‘बानी अब कहां हैं?’ बानी जैसे हज़ारों लोग जो उस हत्याकांड से बच गए होंगे, कहां होंगे वे? क्या इस मुल्क की सरकार उनका पता बता सकती है? बानी की कहानी आगे बढ़ती है। ऊपर लिखे इतिहास यानि विभाजन की अंतर्कथाओं से गुजरता हुआ अंत में उस हत्याकांड के लोमहर्षक दृश्य तक पहुंचता है, जिसमें पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा की सरकार निहत्थी जनता पर गोली चला देती है। हज़ारों जिंदा लोगों का लहू पद्मा और हुगली नदी को लाल करने लगा। दरिया में लाशें उपराने लगीं।

उपन्यास का यह आखिरी हिस्सा इसकी जान है। आप सांस रोके इस घटना को घटित होते पढ़ते हैं। पूरे उपन्यास में कई बार इतिहास के घटनाक्रम से अनभिज्ञ होने के कारण कथ्य का सिरा बार-बार छूट जाता है। लेकिन उपन्यास से उम्मीदें बहुत बढ़ जाती हैं। ऐसा लगता है कि काश लेखक थोड़ा और ठहर जाता, थोड़ा और तफ़सील से असली घटनाक्रम को पुनर्सृजित करता।

उपन्यास का कथ्य जितना अधिक दमदार है, उसका वितान उतना ही ढीलाढाला है। उपन्यास में पात्रों की भरमार है और कोई भी चरित्र मुकम्मिल तौर पर विकसित नहीं होता। उदाहरण के तौर पर बानी का चरित्र, जिससे उपन्यास की शुरुआत होती है, उसके माध्यम से कहानी और चरित्र दोनों के विकसित होने की पर्याप्त गुंजाईश है। हां, बानी की मां रुक्मी का चरित्र एक हद तक विकसित होता है और प्रभावित भी करता है। लेकिन हर दृश्य में कोई नया पात्र कहानी रचता है और पूर्व दृश्य से कट जाता है। हालांकि आने वाले पन्नों में कथा के सूत्र जुड़ते हैं और अंत में उपन्यास अपने उरूज पर पहुंचता है, जो सब पर भारी है। या कहें तो कथ्य शिल्प पर कहीं अधिक भारी है। 

आलोकुठि पढ़ते हुए लगातार लगता है कि काश इसकी भाषा में और प्रवाह होता। सब कुछ इतना गड्डमड्ड न होता। बांग्ला की मिठास की चाहत भी बीच-बीच में उठने लगती है। उपन्यास में उपशीर्षकों का संयोजन भी बहुत संयोजित नहीं है। 

इस घटना के इतिहास का वर्णन जितना भयावह और ऊबड़-खाबड़ है, वह इस उपन्यास में उसी रूप में नहीं उभरता है। पूर्वी बंगाल से दंडकारण्य की यात्रा और फिर सुंदरबन को प्रस्थान इतना आसान नहीं रहा होगा। विभाजन और पलायन की यह दास्तान और भी विस्तार की मांग करती है। कोई इंसानी समूह कितनी दफ़े उजड़ेगा आखिर। फिर इस यात्रारत समूह में औरतें भी होंगी, किशोरियां भी और बच्चे भी। उनकी अपनी तकलीफ़ें अलग होंगीं। कितना कुछ जानना था। कितना कुछ शेष रह गया। 

बहरहाल, विजय गौड़ इसी इतिहास की अनजान पगडंडियों की यात्रा कराते हैं। एक ऐसे अनकहे विषय पर या कहें कि जिसका कोई नाम तक नहीं लेना चाहता, विजय गौड़ अपनी रचना के माध्यम से करते हैं। ऐसे अछूते विषय पर हिंदी में यह अपनी तरह का पहला उपन्यास है, जिसे पढ़ा जाना चाहिए। 

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