-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर
देवास जिला मध्यप्रदेश की शापित नगरी गंधर्वपुरी में प्रभूत पुरासंपदा है। यहाँ के मकानों की नींव खोदते समय प्राचीन प्रतिमाओं के अवशेष प्रायः प्राप्त हुए हैं, यह सिलसिला अनवरत गतिमान है। यहाँ के मकानों की दीवारों, दासों, चबूतरों आदि में पुरावशेषों के शिलाखण्ड लगे हुए हैं।
गन्धर्वपुरी के संग्रहालय परिसर में रखीं सैकड़ों पुराप्रतिमओं में छह चतुर्विंशतिका प्रतिमाएँ हैं। प्रत्येक में एक प्रमुख तीर्थंकर प्रतिमा कायोत्सर्गस्थ है और शेष लघु तीर्थंकर परिकर में हैं।
प्रथम चतुर्विंशतिका- यह प्रतिमा बहुत मनोज्ञ है। इसका परिकर बहुत कलात्मक है। प्रतिमा का पादपीठ मिट्टी में धंसे होने से उसमें लांछन या शासन यक्ष-यक्षी अदृष्ट हैं, इस कारण मूलनायक किस तीर्थंकर की प्रतिमा है, यह ज्ञात नहीं होता है। परिकर में 23 लघु जिन हैं। नीचे से क्रम से एक के ऊपर एक, तीन कायोत्सर्ग, उनके ऊपर के भाग में तीन त्रिक अर्थात् मध्य में पद्मासन व दायें-बायें कायोत्सर्ग, इन तीन तीन के त्रिक तीन हैं। इसी तरह परिकर में दूसरी ओर भी प्रतिमाएं हैं, किन्तु सबसे नीचे की लघु जिनप्रतिमा का केवल फणामण्डल ही दिखाई देता है, शेष भग्न है। वह पार्श्वनाथ बिम्ब था या शासन देवी का, कहा नहीं जा सकता। यदि वह पार्श्वनाथ बिम्ब था तब परिकर की लघु प्रतिमाएं चौबीस हो जाती हैं और यक्षी प्रतिमा है तो मूलनायक बड़ी मूर्ति को भी परिगणित कर चौबीसी पूर्ण होती है।
इस प्रतिमा में मूलनायक के चरणों में बायीं ओर पुरुष भक्त अंजलिबद्ध बज्रासन में बैठा है और दायें तरफ महिला भक्त है। चामरधारी अपेक्षाकृत बड़े और पूर्ण आभूषण भूषित कलात्मक हैं। मूलनायक कायोत्सर्ग जिन की हथेलियों में कलात्मक चक्र निर्मित हैं, वक्ष पर चार कलिका वाला श्रीवत्स है, प्रभावल स्पष्ट और कुंचित केश व उष्णीस है। सुन्दर छत्रत्रय निर्मित है। परिकर के वितान में चार तरह के देव उत्कीर्णित हैं। शीश के दोनों ओर गगनचर विद्याधर सुगल हैं, आगे पुरुष, उसके पीछे उसकी स्त्री है। उनके ऊपर के भाग में एक-एक यष्टिधारक देव है, उनसे ऊपर दोनों ओर पुष्पवर्षक देव और छत्रत्रय के ऊपर मध्य में मृदंगवादक है।
द्वितीय चतुर्विंशतिका- इसमें प्रथम चतुर्विंशतिका से थोड़ी सी भिन्नता है। मूलनायक कायोत्सर्ग प्रतिमा में कुछ विशेष भिन्निता नहीं, करतल में चक्र, श्रीवत्स, प्रभावल, कुंचित केश, उष्णीष, छत्रत्रय समान हैं। किन्तु परिकर के संयोजन में भिन्नता है। पादमूल में आराधक युगल और चॅवरधारी समान हैं, किन्तु चॅवरधारियों के लगभग बरावर उनके पार्श्वों में एक एक कायोत्सर्ग जिन प्रतिमा है, उनसे ऊपर प्रथम प्रतिमा के समान तीन त्रिक जिन हैं। उनसे ऊपर माल्यधारी देव युगल हैं, पुनः वितान में एक एक फणाटोपित पद्मासनस्थ जिन प्रतिमा और उनके बाहरी भाग में एक-एक कायोत्सर्ग जिन संयोजित हैं। ततः उड्डीयमान पुष्पवर्षक देव और ढोलकवादक देव है।
तृतीय चतुर्विंशतिका- इसके परिकर का संयोजन लगभग द्वितीय प्रतिमा के समान है। हथेलियों में चक्र नहीं है। वितान का भाग भग्न है, शेष बचे प्रभावल से ज्ञात होता है कि यह प्रथम व द्वितीय प्रतिमा के समान ही है। परिकर में लघुजिन की संयोजना में द्वितीय चतुर्विंशतिका से भिन्नता केवल यह है कि चॅवरधारियों के पार्श्वों में एक-एक कायोत्सर्ग तीर्थंकर उत्कीर्णित हैं और इसमें एक के ऊपर एक, दो-दो कायोत्सर्गस्थ तीर्थंकर दर्शाये गये हैं।
चतुर्थ चतुर्विंशतिका- इस चतुर्विंशतिका के मूलनायक की हथेलियों में भी चक्र का अभाव है और प्रभावल में भिन्नता है। तीन छत्र भिन्न व कालात्मक हैं। परिकर में मूलनायक के पादमूल में भक्त युगल का अभाव है। दोनों ओर नीचे से ऊपर की ओर बढ़ते क्रम में तीन कायोत्सर्ग और तीन लघु पद्मासन जिन प्रतिमाएं हैं। तीसरी पद्मासन प्रतिमा के बाह्य पार्श्व में एक-एक कायोत्सर्ग प्रतिमा हैं, जिनके सिर पर सर्प के फण दर्शाये गये हैं, जिससे ये तीर्थंकर पार्श्वनाथ या सुपार्श्वनाथ की द्योतक हैं। माल्यधारी विद्याधर युगल तो पूर्व की तरह हैं। किन्तु मृदंगवादक के दोनों ओर एक एक स़्त्री या पुरुष देव दर्शित हैं। वितान में दोनों ओर दो-दो कायोत्सर्ग लघु जिन हैं और उपरिम भाग में पंक्तिबद्ध पाँच पद्मासन लघु जिन विराजमान दर्शाये गये हैं। इस तरह इस प्रतिमाफलक के परिकर में तेईस तीर्थंकर स्पष्ट हैं और चौबीसवें मूलनायक से चौबीसी पूर्ण होती है।
पंचम चतुर्विंशतिका- इस प्रतिमा का सिर सहित वितान भाग, घुटनों से नीचे का भाग और हाथ खण्डित हैं। तथापि अवशेष भाग व शेष परिकर से ज्ञात होता है कि यह प्रतिमा प्रथम चतुर्विंशतिका के समान रही है। भुजाएँ भग्न हैं, किन्तु हथेलियों में बनाये गये चक्रों के भाव स्पष्ठ हैं। चवॅरधारियों के कटि से ऊपर के भाग देखे जा सकते हैं। परिकर में बने लघु जिन प्रतिमांकनों में से अठारह अवशिष्ट हैं।
षष्ठ चतुर्विंशतिका- छठवीं चतुर्विंशतिका का केवल थोड़ा सा भाग उपलब्ध है। मुख्य प्रतिमा का बाम स्कंध और बाम भुजा का ऊर्ध्व भाग ही अवशेष है, किन्तु परिकर के छह लघुजिन भी साथ में विद्यमान हैं। ये दो त्रिक में हैं, मध्य में पद्मासन और उनके दोनों ओर कायोत्सर्ग जिन हैं। यह पूर्ण प्रतिमा प्रथम और द्वितीय प्रतिमा के समान रही होगी। इसका शेष भाग भी आस-पास की खुदाई में प्राप्त हो सकता है।
उक्त छहों प्रतिमाएँ बलुआ पाषाण में निर्मित हैं। इनका समय 10-11वीं शताब्दी अनुमानित किया गया है।
उक्त पाचों प्रतिमाएँ बलुआ पाषाण में निर्मित हैं। इनका समय 10-11वीं शताब्दी अनुमानित किया गया है।
-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’
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