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धार्मिक कट्टरता से परे देहरादून में औरंगजेब का एक और चेहरा

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देहरादून में इन दिनों चल रहा झंडे का मेला इस बदनाम मुगल बादशाह का एक दूसरा चेहरा भी सामने लाता है। यह मेला सिखों के सातवें गुरु हरराय के ज्येष्ठ पुत्र रामराय के देहरादून में डेरा डालने की स्मृति में मनाया जाता है, और गुरु रामराय को देहरादून में बसाने का श्रेय औरंगजेब को ही जाता है।सच्चाई यह है कि हरिद्वार की हरि की पैड़ी पर दो लाख गढ़वालियों को दास के रूप में बेचने वाला औरंगजेब जैसा मुगल बादशाह नहीं, बल्कि नेपाल का एक हिंदू आक्रमणकारी जनरल था। पहाड़ों में आज भी “गोरख्याणी” शब्द दमन और अमानवीय अत्याचार का पर्याय माना जाता है।

जयसिंह रावत 

छठे मुगल बादशाह औरंगजेब को इस दुनिया से गए 318 साल बीत चुके हैं, और अब उनके कृत्यों के लिए उन्हें सजा देने की कोशिशें हो रही हैं। कुछ लोग इस बादशाह की कब्र तक खोदने को तैयार दिखते हैं। इसका कारण यह है कि इस मुगल शासक को क्रूर, हिंदू विरोधी, भाइयों का हत्यारा और पिता को कैद करने वाला माना जाता है। लेकिन देहरादून में इन दिनों चल रहा झंडे का मेला इस बदनाम मुगल बादशाह का एक दूसरा चेहरा भी सामने लाता है। यह मेला सिखों के सातवें गुरु हरराय के ज्येष्ठ पुत्र रामराय के देहरादून में डेरा डालने की स्मृति में मनाया जाता है, और गुरु रामराय को देहरादून में बसाने का श्रेय औरंगजेब को ही जाता है।

यह उस धारणा को चुनौती देता है कि औरंगजेब इस्लाम के अलावा अन्य सभी धर्मों का दुश्मन था। इतना ही नहीं, गढ़वाल नरेशों की प्राचीन राजधानी देवलगढ़ में मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए औरंगजेब द्वारा आर्थिक सहायता दिए जाने के प्रसंग भी गढ़वाल के इतिहास में दर्ज हैं। हालाँकि, उत्तराखंड में भी औरंगजेब को अत्याचारी और हिंदू विरोधी बादशाह के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि हरिद्वार की हरि की पैड़ी पर दो लाख गढ़वालियों को दास के रूप में बेचने वाला औरंगजेब जैसा मुगल बादशाह नहीं, बल्कि नेपाल का एक हिंदू आक्रमणकारी जनरल था। पहाड़ों में आज भी “गोरख्याणी” शब्द दमन और अमानवीय अत्याचार का पर्याय माना जाता है।

होली के ठीक पाँच दिन बाद शुरू होने वाला देहरादून का प्रसिद्ध झंडा मेला इन दिनों अपने चरम पर है। यह उदासीन पंथ का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन है, जिसमें पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे प्रांतों से इस संप्रदाय के लाखों श्रद्धालु हिस्सा लेते हैं। ऐतिहासिक विवरण के अनुसार, सिखों के सातवें गुरु हरराय के ज्येष्ठ पुत्र गुरु रामराय 1675 में चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी को देहरादून पहुँचे थे। इसके एक साल बाद, 1676 में इसी दिन उनके सम्मान में एक बड़ा उत्सव मनाया गया। इसी आयोजन से यहाँ झंडे मेले की शुरुआत हुई, जो अब देहरादून का वार्षिक समारोह बन चुका है।

ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार, गुरु रामराय तत्कालीन मुगल बादशाह औरंगजेब के करीबी थे। औरंगजेब ने ही उन्हें “हिंदू पीर” (महाराज) की उपाधि दी थी और तत्कालीन गढ़वाल नरेश फतेहशाह को गुरु रामराय को डेरा स्थापित करने के लिए जमीन देने के साथ-साथ उनकी पूरी देखभाल करने का आदेश दिया था। आज भी देहरादून के खुड़बुड़ा स्थित गुरु रामराय दरबार में मुगल शैली के भित्ति चित्र मौजूद हैं। माना जाता है कि गुरु रामराय के डेरा स्थापित होने के बाद ही इस स्थान को “डेरा दून” और फिर “देहरादून” के नाम से जाना जाने लगा। इस स्थान को न केवल गढ़वाल नरेश, बल्कि औरंगजेब का भी संरक्षण प्राप्त था।

औरंगजेब और गढ़वाल नरेश के प्रतिनिधि पुरिया नैथाणी से जुड़े ऐतिहासिक प्रसंग भी औरंगजेब के गढ़वाल के प्रति सौहार्दपूर्ण रवैये की पुष्टि करते हैं। दिवंगत पूर्व केंद्रीय मंत्री और उत्तराखंड के महान नेता भक्त दर्शन की पुस्तक “गढ़वाल की दिवंगत विभूतियाँ” में पुरिया नैथाणी के बारे में एक प्रमाणिक प्रसंग का उल्लेख है। इसके अनुसार, अक्टूबर 1668 में जब पुरिया नैथाणी गढ़वाल नरेश के प्रतिनिधि के रूप में औरंगजेब के समय एक शाही समारोह में शामिल होने दिल्ली गए, तो उन्होंने दरबार में कई महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए। इनमें से एक था कोटद्वार भाबर में सैय्यद मुसलमानों द्वारा गढ़वाल की जमीन पर अवैध कब्जे का मुद्दा। नैथाणी के तर्कों से सहमत होकर बादशाह ने अवैध कब्जा हटाने का फरमान जारी किया।

भक्त दर्शन अपनी इस महत्वपूर्ण पुस्तक के पृष्ठ 51 पर पुरिया नैथाणी की 1668-1679 के बीच की दूसरी दिल्ली यात्रा का ऐतिहासिक विवरण देते हुए लिखते हैं कि इस दौरान गढ़वाल में भयंकर अकाल पड़ा। तत्कालीन गढ़ नरेश फतेहशाह ने 1680 में अपने मंत्रियों से विचार-विमर्श कर पुरिया नैथाणी को दिल्ली दरबार में भेजा। नैथाणी ने बादशाह के सामने इतने प्रभावशाली तर्क रखे कि औरंगजेब ने गढ़वाल से जजिया कर न वसूलने का फरमान जारी कर दिया।

इतना ही नहीं, भक्त दर्शन लिखते हैं कि नैथाणी ने तर्कों और भावुक अपील के जरिए औरंगजेब को यह समझाने की कोशिश की कि हिंदू और मुसलमान दो भाइयों की तरह हैं, और राज्य को दोनों की साझा शक्ति, कौशल और निष्ठा की जरूरत है। चित्तौड़ के राणा राजसिंह जैसे लोगों ने भी उनका समर्थन किया। इससे औरंगजेब को वास्तविकता का अहसास हुआ और उसने तत्काल फरमान जारी किया कि भविष्य में राजपूताना और पर्वतीय क्षेत्रों में न तो कोई धार्मिक स्थल तोड़ा जाए और न ही उनके धर्म में हस्तक्षेप किया जाए। साथ ही, वहाँ जजिया कर की वसूली भी बंद कर दी गई।

ये ऐतिहासिक विवरण औरंगजेब की उत्तराखंड और उदासीन पंथ के प्रति उदारता को दर्शाते हैं, लेकिन एक दूसरा प्रसंग फिर से उसके क्रूर चेहरे को उजागर करता है। यह प्रसंग है कि औरंगजेब अपने भाइयों की हत्या कर और पिता को कैद कर बादशाह की गद्दी पर बैठा था। सन् 1657 में जब शाहजहाँ की तबीयत बिगड़ी, तो उसके चारों बेटों के बीच सत्ता के लिए संघर्ष छिड़ गया। इस संघर्ष में दारा शिकोह को हराकर औरंगजेब ने सत्ता हासिल कर ली। लेकिन उसके सलाहकारों को चिंता थी कि दारा शिकोह का बेटा सुलेमान शिकोह अभी जिंदा था, जो भविष्य में उसके शासन के लिए खतरा बन सकता था। सुलेमान शिकोह ने मुगलों के डर से गढ़वाल की ओर रुख किया, जहाँ उस समय राजा पृथ्वीपति शाह का शासन था। उन्होंने सुलेमान को श्रीनगर (गढ़वाल) में शरण दी। लेकिन औरंगजेब इसे बर्दाश्त नहीं कर सका। उसने पृथ्वीपति शाह को धमकी भेजी, लेकिन राजा अपने वचन पर अडिग रहे।

जब सैन्य कार्रवाई संभव नहीं दिखी, तो औरंगजेब ने कूटनीति का सहारा लिया। उसके सिपहसालार जयसिंह ने पृथ्वीपति शाह के पुत्र मेदिनी शाह को बहला-फुसलाकर अपने पक्ष में कर लिया। मेदिनी शाह ने सत्ता की लालच में अपने पिता के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इसी बीच, गढ़वाल से तिब्बत भागने की कोशिश कर रहे सुलेमान शिकोह को रास्ता भटकने पर गाँव वालों ने पकड़ लिया और मेदिनी शाह के हवाले कर दिया। मेदिनी शाह ने उसे तुरंत दिल्ली से आए राम सिंह को सौंप दिया, जिसने सुलेमान को औरंगजेब के पास भिजवा दिया। इस विश्वासघात से आहत पृथ्वीपति शाह ने मेदिनी शाह को देश निकाला दे दिया। अंततः, 1662 में औरंगजेब ने सुलेमान शिकोह की हत्या करवा दी, और उसी वर्ष मेदिनी शाह की भी दिल्ली में मृत्यु हो गई।

कुल मिलाकर देखा जाए, तो उत्तराखंड (ऐतिहासिक गढ़वाल और कुमाऊँ राज्य) में मुगलों के अत्याचारों के कोई ठोस सबूत नहीं मिलते। जबकि उत्तराखंड के लोग “गोरख्याणी” यानी गोरखा राज के अत्याचारों को आज तक नहीं भूले हैं। गोरखाओं ने 1791 में कुमाऊँ पर और 1804 में गढ़वाल पर कब्जा किया, और 1815 में अंग्रेजों से हारकर इसे छोड़ना पड़ा। अपने 24 साल के शासन में उन्होंने भारी कर लगाए और जनता पर दमनकारी नीतियाँ थोप दीं। इसे “गोरख्याणी” कहा गया।

गोरखा हिंदू सेना के अत्याचारों से त्रस्त लोग गाँव छोड़कर जंगलों और गुफाओं में रहने को मजबूर हो गए, जिससे खेती-बाड़ी भी चौपट हो गई। इतिहासकारों के अनुसार, गोरखा सैनिक छोटी-छोटी बातों पर औरतों, पुरुषों और बच्चों को बंदी बना लेते थे। महिलाओं पर घोर अत्याचार करते थे और कर न देने पर गढ़वालियों को दास बनाकर हरिद्वार की हरि की पैड़ी पर बेच देते थे। एटकिन्सन जैसे इतिहासकारों के अनुसार, हरि की पैड़ी पर लगभग दो लाख गढ़वाली स्त्री-पुरुष दास के रूप में बेचे गए। इससे लोग अंग्रेजों की ओर झुकने लगे। अंततः, अंग्रेजों ने गोरखाओं को हराकर कुमाऊँ को ब्रिटिश साम्राज्य में शामिल कर लिया।

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