@सत्येन्द्र हर्षवाल
ये उनदिनों की बात हे जब में 6th क्लास में और बड़े भैया गजेंद्र भैया 8th में थे वो फ़िल्म स्टार धर्मेन्द्र के प्रशंसक थे और में अमिताभ का, हमारे मोहल्ले (गोराकुण्ड, कपड़ा मार्केट) में दो टोली हुवा करती थी एक धर्मेंद्र को चाहने वाली उनकी तरफ,ओर एक अमिताभ को चाहने वाली मेरी तरफ,कोई नई फिल्म के आने के पूर्व खूब ज़ोरशोर से प्रचार, प्रशंसा,जैसे कि हम उनके PR हो और फिर क्या ,चलता आरोप प्रत्यारोप का दौर तू तू मेमे …तेरे हीरो से मेरा हीरो स्मार्ट और शानदार ..ओर बस यही झगड़े की जड़ हुवा करती थी,,,,उनदिनों…अपने स्कूल की कॉपिया जो गत वर्ष में उपयोग की गयी थी उनका उपयोग अपने अपने हीरो के फोटो चिपकाने के काम आती थी,हम सब का यही काम की जो भी नया फोटो आता बाजार में (जो की प्रकाश टॉकीज के सामने मिला करते थे ) या किसी लायब्रेरी से पार किये हुवे होते थे,पार मतलब ताड़ना,ताड़ना मतलब सरल शब्दों में चोरी करना एक हाथ मे ब्लेड ओर पहुच गए लायब्रेरी,थोड़ी देर मैगजीन पढ़ने का नाटक ओर धीरे से ब्लेड निकाल कर फोटो को काट कर जेब मे ओर फिर ये चले वो चले,ओर उन फोटो को कॉपी में ऐसे सजाते थे मानो घर का ड्राइंग रूम हो वह कॉपी … उन दिनों लायब्रेरी एक उच्चस्तरीय स्थान का दर्जा प्राप्त जगह हुवा करती थी,घर वालो को अगर बोल दिया कि लायब्रेरी जा रहा हु तो तुरंत आपको परमिशन मिल जाती थी,की चलो छोरा कही अच्छी जगह ही जा रहा है शहर में कईं लायब्रेरिया थी,गोराकुण्ड पर जैन मंदिर के पास,मोरसली गली , राजबाड़ा,यह निशुल्क हुवा करती थी,मगर कुछ तड़क भड़क जैसे लोटपोट,चंपक,अमर चित्र कथा,वेताल,यह पढ़नी हो तो बाकायदा एक प्राइवेट लायब्रेरी जिसमे आपको पाँच पैसे 10 पैसे 20 पैसे प्रतिदिन के हिसाब से किराया देना होता था,ओर यही हाल साईकल के किराए का भी था,30 पैसे 1घण्टे के 15 पैसे आधी घण्टे के ओर कभी समय ज्यादा हुवा की नित नए बहाने की भिया में तो अभी तो ले गया था,इतनी जल्दी 1 घण्टा भी हो गया,उस समय घड़ी पे भी शक होता था कि कही इसने घड़ी आगे तो नही बड़ा दी उन दिनों tv नही होता था तो कई बार और बार बार जब भी अपने नायक की पिक्चर लगती हर बार नए जोश से पिक्चर देखने जाते थे ….अमिताभ बच्चन साहब की फ़िल्म इंकलाब का साढ़े चार रु वाला टिकिट प्रकाश टॉकीज में ब्लेक में 100 रु में खरीदा था,ऐसी दीवानगी हर दौर में उस उम्र के बच्चे में पाई जाती है,आज भी होती है मगर पैरामीटर,मापदंड ओर तरीके भिन्न हो सकते है,बड़वाली चोकी के वहा हमसे बड़े वाले दीवाने हुवा करते थे राकेश हेयर सेलून जिनका पूरा ग्रुप हाथी और गाजे बाजे से फ़िल्म देखने जाया करता था ..एक महाशय जिनको सभी बच्चन बोलते थे उन्होंने प्रण लिया था की जब अभिषेक की शादी ही जायेगी तभी वो शादी करेगा…कुँवर मण्डली में बच्चन हेयर सेलून आज भी है,वहा एक बिग बी के हम शक्ल थे हम वहा सिर्फ इस लिए कटिंग बनवाने जाते थे क्यू की उसमे बिग बी का *अक्स* था … ओर कभी कभी अगर कटिंग नही भी बनवानी हो तो भी बस उसकी एक झलक देखने के लिए दो से तीन चक्कर लगा लेते थे,ओर जब वो कटिंग बनाते तो हमे अंदर से हँसी आ रही होती लेकिन उस हँसी को दबा लेते, उस उम्र में चुकी हाईट कम होती है बचपन मे तो कुर्सी पर एक पटिया(लकड़ी का) लगा कर कटिंग की जाती थी,एक बार का किस्सा है फ़िल्म शक्ति रिलीज हुई,टॉकीज था स्मृति सिनेमा बड़वाली चौकी के पास,टिकिट के लिए पहुच गए पहले से, मगर भीड़ इतनी की बस,,,,,,वहां एक पुलिस वाला हुवा करता था उसके हाथ मे डंडे की जगह साईकल का ट्यूब होता था और जब उसे लगा कि इस यंत्र का उपयोग करना है भीड़ तीतर बितर आज शहर के इन सब टॉकीजों का दौर खत्म होने के कगार पर है,
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*कल ओर आएंगे नगमों की खिलती कलिया चुन्ने वाले मुझसे बेहतर कहने वाले तुमसे बेहतर सुनने वाले* इस इसी तर्ज पर इस धरा का संचालन सतत जारी है,धोनी,विराट के प्रशंसको को जिस तरह से हर मैच के लिए टिकिट,ट्रेवल व अन्य सुविधा कुछ खिलाड़ी देते है उसी तरहअपने शहर के एक जर्नलिस्ट हे मेरे मित्र जो आज भी बिग बी की फ़िल्म पहले दिन पहला शो देखते हे..बाकायदा उसका टिकिट सम्भाल कर रखते है,और तो ओर इसी दीवानगी के चलते उनकी एंट्री बच्चन साहब के घर में ऎसे हे मानो वो उस घर के सदस्य हे …ऐसे पुरे भारत में कुल 8 से 10 लोग हे जिनको बिग बी ने उनसे मिलने का ग्रीन कार्ड दे रखा हे…मेरी यादो के झरोखो से…
फिर मिलते है किसी ऐसी ही यादों के साए के साथ
हर्षवाल