डॉ. ज्योति
_प्रायः हमलोग पाप-पुण्य का विचार करते हैं, कहीं भयभीत होते हैं, कहीं अहं का प्रदर्शन करते हैं, कही यह सोचते हैं कि भगवान भी हमारी तरह घूसखोर है, इधर पुण्य बटोरने का नाटक कर लो और दुसरे हाँथ से दुनिया लूट लो।_
शास्त्र कहते हैं :-
*एतँ ह वाव न तपति। किमहँ साधु नाकरवम्। किमहँ पापमकरवमिति। स य एवं विद्वानेते आत्मानँ स्पृणुते। उभे ह्येवैष एते आत्मानँ स्पृणुते। य एवं वेद।*
यह वारुणीविद्या है, वरूण अपने पुत्र भृगु ऋषि( तैत्ति०/२/९) को अनुशासन करता है :
उस महापुरुष को यह बात चिन्तित(यहाँ तपति का अर्थ चिंता है) नही करती कि, किम् अहम् साधुकर्मम् न अकरवम्. यानी हमने(साधु) शुभ कर्म क्यों नही किया अथवा पापकर्म क्यों किया।
उसके मन मे, किसके मन मे कि आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चनेति. अर्थात् जिस ब्रह्म के आनंद को जानने कि शक्ति मन और इन इन्द्रियों को नही है, उस परमानन्द को जाननेवाला ज्ञानी मनुष्य जो कभी किसी से भयभीत नही होता, निर्भय हो जाता है।
तो वरूणसंज्ञक ऋषि ऐसा ही ज्ञानी था और भृगु जिज्ञासु(इस ज्ञान का पिपासु) सो आगे श्रुति का तात्पर्य है कि ऐसे ज्ञानी के मन मे पुण्यरूपी कर्मों के फलरूप उत्तम लोकों की प्राप्ति का उसे लोभ नही होता और पापजनित नरकादि का भय भी उसे नही सताता।
लोभ एवं भयजनित संताप से वह ऊँचा उठा महापुरुष है।
उक्त ज्ञानी(वस्तुतः यही ज्ञान की सर्वोच्च स्थिति है) महापुरुष आसक्तिपूर्वक किए पुण्य और पाप दोनो प्रकार के कर्मों को जन्म-मरणरुप संताप का हेतु मानता है और उनके प्रति राग-द्वेष से सर्वथा रहित होकर परमात्मा के चिंतन मे संलग्न होकर आत्मा की रक्षा(स्पृणेतु) करता है।
श्रीकृष्ण का यही समत्वयोग और त्मक्त्वा कर्मफलासङ्गःहै।
_तप से श्रेष्ठ ध्यान, ध्यान से ज्ञान और ज्ञान से कर्मफलों का त्याग श्रेष्ठ है, श्रीकृष्ण का यह उपदेश भी श्रुति के इसी मंत्र के अनुक्रम मे है।_
{चेतना विकास मिशन}