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विदेशी या अप्रवासी होना नई बात नहीं है

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पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार के लोगों का गरीबी और अशिक्षा के कारण विदेशी या अप्रवासी होना नई बात नहीं है । कई देश बसा दिए हैं यहां के लोगों ने, 

  कई गये तो कभी लौटे ही नहीं ,  कई गये तो बहुत बर्षों तक वापस न आने के कारण उन लोगों के परिवारों का दुखदर्द और बेबसी कभी “भिखारी ठाकुर” ने जस का तस अपने नाटकों में उतार दी थी । किसी ने उनकी रचनाओं को रामायण की तरह पवित्र मानकर उन्हें तुलसीदास की उपाधि दी तो किसी ने ज्वलंत मुद्दों को उघाड़ने के लिए उन्हें भारतेंदु हरिश्चंद्र के समकक्ष खड़ा पाया। 

   अंत में उन्हें “भोजपुरी का शेक्सपियर” कहा गया।उनके नाटकों को ” विदेशिया” कहा गया।

  न सिर्फ विदेशिया बल्कि गरीबी और अशिक्षा से उपजी हर बुराई जो उस समय  समाज में व्याप्त थी उनकी कलम ने हर मुद्दों को न सिर्फ छुआ बल्कि मंचन करके लोगों की भावनाओं से जोड़ दिया। बेटियों की शादियां बूढ़ों से करवाना हो या विधवाओं की दयनीय स्थिति पर उन्होंने इसे बेटी बेचवा और विधवा विलाप नाम से मंचन किया।

 इसके आलावा गांवों में जायदाद में हिस्से के लिए भाइयों की लड़ाई हो या नशे की प्रवृत्ति हर मुद्दे को उन्होंने मंच से बताया और लोगों की भावनाओं से जोड़ा।

इस क्षेत्र  में प्रसिद्ध बिरहा गीत भी उनकी ही देन है।

रश्मि त्रिपाठी 

 इस बिषय पर एक बेहद खूबसूरत पोस्ट पढ़िये Prashant Dwivedi  की …

एक जहाज़ी, पुरुब मुल्क कलकत्ता जाने वाला है। उसकी प्रेमिका उसे आवाज़ देते हुए गा रही है:

“पनिया के जहाज से पलटनिया बने अइहा पिया,

ले ले अइहा हो…

पिया सेन्दुर बंगाल के…”*

…लेकिन उसे नहीं पता कि ये दास्तां उन जहाज़ियों की है जो कभी हिंदुस्तान नहीं लौटे।

‘गिरमिटिया’ शब्द से मेरा पहला परिचय गिरिराज किशोर द्वारा महात्मा गाँधी को संबोधित पुस्तक “पहला गिरमिटिया” से हुआ। उत्सुकता बढ़ने पर पर मैंने इंग्लिश राइटर अमिताव घोष की ‘सी ऑफ़ पॉपीस” पढ़ भी डाली और उनके ‘आयबिस ट्रिलजी’ की बाक़ी दोनों पुस्तकें- ‘रिवर ऑफ़ स्मोक’ और ‘फ्लड ऑफ़ फ़ायर’ भी विश लिस्ट में शामिल कर ली।

लेकिन Praveen Jha सर जी की पुस्तक “कुली लाइन्स” पढ़ने के बाद अब गिरमिटिया पर कुछ और पढ़ने की आवश्यकता नहीं। यह कृति अपने आप में एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। 

हाल में ही मैंने हिन्दी में लिखे गये दो ऐसे ऑफ़ट्रैक ऐतिहासिक विषयों को पढ़ा जिनपर कि पहले हिन्दी में ज़्यादा कुछ नहीं लिखा गया। एक है- Ashok Kumar Pandey सर की पुस्तक “कश्मीरनामा” और दूसरी है- यही, “कुली लाइन्स”। यह इतिहास के सबसे बड़े और ऑर्गनाइज़्ड ‘माइग्रेशन एवं इमिग्रेशन’ दोनों को कवर करती है। यह पुस्तक भुला दिए गये इतिहास को एक शिलालेख के रूप में दर्ज़ करती है। कुली लाइन्स पढ़ते हुए लगता है कि मैं भी एक जहाज़ी हूँ और सफ़र पर निकला हूँ।

अगर एक लाइन में मुझे गिरमिटिया का अर्थ बताना हो तो यही कहूँगा,

“गिरना और मिटना” (पुस्तक की ही एक पंक्ति है)

और अगर एक लाइन बढ़ानी पड़े तो लिखूँगा,

“गिरे तो, पर मिटे नहीं…”

पुस्तक पढ़कर कुछ सर्वथा प्रचलित शब्दों जैसे- कुली, नाका, डिपो, कन्त्राकी इत्यादि की सहज उत्पत्ति का भी पता चला। बचपन में हमारे गाँव में एक बहुत बुजुर्ग पलटनिया बाबा कलकत्ता के डिपो की बात करते। उन्होंने भी अपने पुरखों से सुना था। वो कलकत्ता में किसी डॉक पर जहाज़ पर सामान लादने-उतारने का काम करते थे। उस डिपो का अर्थ अब समझ में आया। पुस्तक परोक्षरूप से पूर्व में पढ़े गये बहुत से तथ्यों के बीच संबंधों को भी बताती चलती है, जैसे कि- ‘रीच रोड’ वाली जगह पर वर्तमान का ‘गार्डेन रीच शिपबिल्डर्स एंड इंजीनियर्स लि०’ का होना। यह भी कि मॉरीशस में आज भी जो परिचित जा रहे हैं वे तीन साल के पहले नहीं लौटते। यह प्रथा मॉरीशस में 1848 में एक ऑर्डनेन्स से शुरू की गई।

सूरीनाम से जाकर नीदरलैंड में बसने वाले राजमोहन जिनके परदादा बिहार के छपरा से निकले और सूरीनाम जाकर बस गए, गिटार पर गाते हैं:

“कन्त्राकी सात समुन्दर पार कराइ के,

एक नवा देस कै सपना देखाइ के,

कइसे हमके ऊ भरमाइ के,

लय गइल दूर सरनाम बताइ के”

2 नवंबर 2014 को जब ‘एटलस’ जहाज़ के मॉरीशस पहुँचने की 180वीं वर्षगाँठ मनाई जा रही थी तो तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज जी ने गिरमिटियों को श्रद्धांजलि देते हुए एक भावुक भाषण में मॉरिशस के जाने माने साहित्यकार अभिमन्यु अनत की एक कविता को भी पढ़ा था:

“…..वह पहला गिरमिटिया इस माटी का बेटा

जो मेरा भी अपना था, तेरा भी अपना…”

(यह कविता यहां के अप्रवासी घाट की एक दीवार पर उद्धृत है और इस पुस्तक में भी उल्लिखित है)

2 नवंबर 1834 को 36 भारतीयों का पहला जत्था इस तट की सोलह सीढ़ियों से उतरकर मॉरिशस में उतरा था। उस अप्रवासी घाट की वो सोलह सीढ़ियां एक स्मृति स्थल के रूप में इस घाट पर संजो कर रखी गई हैं और यूनेस्को ने इस घाट को विश्व विरासत स्थलों की सूची में शामिल किया है।

एक बात जो कि इस पुस्तक को और भी उत्कृष्ट बनाती है और इसे गिरमिटिया की अन्य रचनाओं से अलग करती है, वो है- गिरमिटिया स्त्रियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति। इस पक्ष पर लेखक सचेत रहे हैं। ऑडनारी से बात करते हुए प्रवीण सर कहते हैं, “प्रवास नारीमुक्ति का वाहक है।” यह बात गिरमिटिया स्त्रियों पर पूर्णतया लागू भी होती है।

गिरमिटियों की वर्तमान प्रवासी पीढ़ियां अपनी जड़ें खोजती हुई आज जब भारत आती हैं तो उनकी आँखें गीली हो जाती हैं। “कुली लाइन्स” ऐसी ही न जाने कितने भावुक क्षणों से रू-ब-रू कराती हुई चलती है। इसी क्रम में मॉरिशस के राष्ट्रपति राजकिश्वर पुरयाग 2013 में जब पटना से 30 किलोमीटर दूर पुनपुन मसौढ़ी अंचल के वाजितपुर गांव में पहुंचे तो अपने परदादा प्रयाग नोनिया को याद कर फफक-फफक कर रो पड़े थे।

यह ऐसी पुस्तक है जो कि विद्यार्थियों, यूपीएससी/पीसीएस की प्रतियोगी परीक्षाओं के अभ्यर्थियों एवं शोधार्थियों के लिए भी एक महत्वपूर्ण परिशिष्ट स्रोत के रूप में काम आएगी। “कोमागाटा मारू” पर यूपीएससी की सिविल सेवा (प्री) परीक्षा में प्रश्न पूछा जा चुका है। इसके अतिरिक्त, “इंडियन डायस्पोरा” सिविल सेवा (मुख्य) परीक्षा के सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र – III में अलग से पाठ्यक्रम में भी शामिल है। इसे पढ़कर तमाम उपनिवेशों की भौगोलिक स्थिति, उनका सांस्कृतिक-राजनैतिक इतिहास तथा जनसांख्यिकीय संरचना का भी पता चलता है। आश्चर्य नहीं कि इसे पढ़कर इतिहास में शोध का इच्छुक कोई छात्र अपने शोध व थीसिस का टॉपिक ही ‘गिरमिटिया’ रख ले।

अंत में, आज भी शायद जब गिरमिटिया की तीसरी पीढ़ी का कोई बुज़ुर्ग ‘ग्रेट इंडियन डायस्पोरा’ के सम्मान में आयोजित होने वाले ‘प्रवासी भारतीय दिवस’ में शामिल होने के लिए जहाज़ पकड़ता होगा तो उसकी प्रेमिका मनुहार करते हुए गुनगुनाती होगी:

“पनिया के जहाज से पलटनिया बने अइहा पिया,

ले ले अइहा हो…

पिया सेन्दुर बंगाल के…”

बाक़ी, जहाज़ी बनने और गिरमिटिया की यात्रा में हिलोरें लेते हुए सागर की अतल गहराइयों में डूबने के लिए पुस्तक पढ़ना अपरिहार्य है।

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