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*मुद्रा नहीं,आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था बदलने से आएगी बेहतरी*

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       ~ कुमार चैतन्य 

 डिजीटल करेंसी के चक्कर में मीडिया में आजकल मुद्रा व करेंसी पर बहुत ज्ञान बंट रहा है। पर इसमें ज्यादातर अधकचरा व लालबुझक्कड़ी है। कुछ उदाहरण ही बता देते हैं कि इन लेखों से कितना व कैसा ज्ञान हासिल होता है :

     1. कागज की मुद्रा व बैंक नोट को एक मानना, जबकि दोनों बिल्कुल अलग चीजें हैं। दूसरे, कागजी मुद्रा इंग्लैंड में नहीं 11वीं सदी के चीन में सोंग राजवंश द्वारा शुरू की गई थी।

     2. बैंक नोट भी इंग्लैंड में शुरू बताए जाते हैं जबकि यह प्राचीन बैंकिंग व्यवस्था है जो ढाई हजार साल पहले से मौजूद है। बैंक नोट मुद्रा नहीं हुंडी या ड्राफ्ट है। हां, पहले की तुलना में पूंजीवाद के विकास के साथ इसका प्रयोग बहुत ज्यादा बढा।

     3. पहले गोल्ड स्टैंडर्ड था तो मुद्रा का मूल्य सोने से निर्धारित होता था। पर यह नहीं बताते कि फिर सोने का मूल्य कहां से आया, कैसे निर्धारित होता है? सोने का मूल्य, या किसी भी माल का मूल्य, जिस चीज या परिघटना पर आधारित है उसे जाने बगैर इस जानकारी का अपना क्या मूल्य रह जाता है? खैर, इस पोस्ट में उसके विस्तार में जाना मुमकिन नहीं।

     4. बताया जाता है कि गोल्ड स्टैंडर्ड न रहने से सरकारों को आजादी मिल गई कि कागजी मुद्रा कितनी भी बढा लें। स्टेट थ्योरी ऑफ मनी वाले तो गोल्ड स्टैंडर्ड के वक्त भी यही मानते थे, और आजकल की चर्चित एमएमटी या मॉडर्न मोनेटरी थ्योरी के अनुसार भी ऐसा ही है।

   *है यह पूरी तरह गलत :*

जब भी ऐसे सिद्धांत के गरूर में सरकारों ने मनमर्जी से चलन में मुद्रा की तादाद घटाने या बढाने की कोशिश की मुंह की खाई। घटाने वालों में मोदीजी की नोटबंदी का ताजा उदाहरण है (घटने के बजाय बढोत्तरी हो गई!), वहीं बढाने वाले उदाहरण सैंकड़ों में है जब ऐसी कोशिश के नतीजे में उस देश की मुद्रा ही चारों खाने चित हो गई, रद्द कर नई तक जारी करनी पड़ी।

     किसी अर्थव्यवस्था में चलन में मुद्रा की मात्रा का गणित तो इस पोस्ट में नहीं लिखा जा सकता, पर सिद्धांत मुख्तसर में यह है कि खरीद बिक्री के लिए उपलब्ध मालों के कुल मुल्य व समान अवधि में मुद्रा के वेग (एक इकाई भुगतान हेतु कितनी बार हाथ बदलती है) से चलन में मुद्रा की मात्रा तय होती है।

    इससे कम ज्यादा होने पर अर्थव्यवस्था में असंतुलन पैदा हो जाता है – नोटबंदी याद है? इसलिए हर देश में चलन में मुद्रा की मात्रा अचानक नहीं धीरे-धीरे बदलती है जिसका कारण उत्पादन का विकास व भुगतान पद्धति की तकनीक में होते रहने वाला परिवर्तन है। 

      पूंजीवाद में सरकार पूंजीपति वर्ग की प्रबंध समिति है, उनकी पूंजी के हित में काम व मेहनतकश जनता का शोषण उत्पीडन करती है। पर ठीक इसीलिए महामानव मोदीजी की नोटबंदी जैसे कुछ अपवादों को छोडकर वे आमतौर पर मूर्खतापूर्ण हरकतें नहीं करतीं। इसके बजाय वे चालाकी व धूर्तता से काम करती हैं। अचानक असंतुलन व हाहाकार मचाने के बजाय वो उस मशहूर कहानी की तरह धीमी आंच पर पानी को ऐसे गर्म करती हैं कि मेंढक को बहुत देर होने पर समझ आये। 

चुनांचे डिजीटल करेंसी भी पूंजीवादी व्यवस्था में कोई ऐसा अचानक परिवर्तन नहीं करने जा रही कि एकाएक कुछ हंगामा हो जाए, बुनियादी संबंध ही बदल जायें। डिजीटल करेंसी भी अचानक कुछ ऐसा नहीं करेगी कि हंगामा मच जाए। इसीलिए बडे जतन से दुनिया भर के केंद्रीय बैंक इसके सीमित प्रयोग कर नतीजे निकाल रहे हैं।

     वास्तव में तो अधिकांश को गर्म पानी में मेंढक की तरह पता भी नहीं चलने वाला कि हुआ क्या है। वैसे भी अधिकांश लेन देन पहले ही डिजीटल हो चुका है।

*असल मुद्दे दो ही हैं :*

      एक, मुद्रा की फंजीबिलिटी (सौ का हर नोट सौ का नोट है – जब तक हमें अपने सौ रुपये मिल रहे हैं तब तक हम परवाह नहीं करते कि ये खास वही वाला नोट है, जबकि अपनी बाइक किसी को उधार दें तो वही वाली वापस लेनी होती है)।

     यह पूंजीवादी बैंकिंग व्यवस्था हेतु एक अहम चीज है और बहुतेरे इसकी चिंता कर रहे हैं। पर केंद्रीय बैंक बेवकूफ नहीं, उन्हें पूंजीवाद को चलाने की चिंता हम से ज्यादा है और उनके पास इसके तकनीकी/व्यवहारिक समाधान पहले ही मौजूद हैं।

      दो, सर्वेलांस। निश्चय ही सरकारें सर्वेलांस चाहती हैं, करेंसी ही क्यों हर क्षेत्र में हमारी हर गतिविधि पर उनकी नजर है। पर वह मोबाइल में भी है और हम मोबाइल चला रहे हैं। डिजीटल करेंसी में भी होगा और उसे भी इस्तेमाल किया जाता रहेगा। क्योंकि व्यक्ति के तौर पर हमारे पास इससे बचाव का उपाय नहीं है।

     शुरू में कागजी नोट के नंबर भी नोट किए जाते थे, बाद में मुद्रा की मात्रा बढने पर वह अव्यवहारिक हो गया। पर इसका समाधान करेंसी में नहीं, पूरी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था के आमूल चूल परिवर्तन में है, उत्पीडन शोषण की व्यवस्था के उन्मूलन में है।

     सामाजिक व्यवस्था शोषण उत्पीडन आधारित हो तो उसमें उत्पीडन और अत्याचार की नई से नई योजनाएं-तकनीकें आती ही रहेंगी। सर्वेलांस दमन-उत्पीडन की एक तकनीक है।.

    एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण दमन के लिए निर्मित राज्यसत्ता का बुनियादी चरित्र ही यह है, पूरी पुलिस अफसरशाही और क्या करती है? इसे मिटाने के लिए तो राज्यविहीन अर्थात वर्गविहीन समाज बनाना होगा।

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