
बड़ी विडंबना यह है कि गांधी और भगत सिंह के विवाद के 90 साल बीत जाने के बावजूद हम उसका कोई समुचित समाधान नहीं ढूंढ पाए हैं. आज भी आजाद भारत की लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में यह बहस चलती रहती है कि सत्याग्रह का रास्ता उचित है या हिंसा का.निश्चित तौर पर गांधी इतिहास में अनोखा प्रयोग कर रहे थे. इससे पहले सुकरात, ईसा मसीह और बुद्ध जैसे पैगंबरों या धर्म संस्थापकों और महात्माओं ने इस मार्ग को अपनाया था, लेकिन उन्होंने उस हथियार के इतने व्यापक राजनीतिक प्रयोग का दर्शन नहीं विकसित किया था.

अरुण कुमार त्रिपाठी
इस बात पर चर्चा करने का विशेष महत्व है कि स्वाधीनता संग्राम की विचारधारा क्या थी. उसमें महात्मा गांधी के सत्याग्रह का कितना महत्व था और भगत सिंह के बम के दर्शन का कितना. 23 मार्च भगत सिंह की शहादत का दिन है और यह गजब संयोग है कि इस बीच जितनी तेजी से महात्मा गांधी की प्रासंगिकता बढ़ी है उतनी ही तेजी से भगत सिंह के प्रति भी लोगों में आकर्षण बढ़ा है. विशेष कर दिल्ली के चारों ओर धरने पर बैठे किसानों के बीच भगत सिंह की चेतना की मशाल प्रज्जवलित हो रही है. भले ही वे गांधीवादी सत्याग्रह का इस्तेमाल अपनी लड़ाई के लिए कर रहे हैं. उससे भी बड़ी विडंबना यह है कि गांधी और भगत सिंह के विवाद के 90 साल बीत जाने के बावजूद हम उसका कोई समुचित समाधान नहीं ढूंढ पाए हैं. आज भी आजाद भारत की लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में यह बहस चलती रहती है कि सत्याग्रह का रास्ता उचित है या हिंसा का.
सबसे पहले उस लेख पर गौर करते हैं जिसे भगत सिंह के साथी भगवती चरण वोहरा ने `बम का दर्शन’ शीर्षक से लिखा था और जिसे भगत सिंह ने अंतिम रूप दिया था. इस लेख का एक शीर्षक हिंदुस्तानी प्रजातंत्र समाजावादी सभा का घोषणा पत्र भी था. यह लेख गांधी जी के एक लेख `बम की पूजा’ के जवाब में लिखा गया था. गांधी जी ने वह लेख 23 दिसंबर 1929 को ब्रिटिश वायसराय लार्ड इरविन को गाड़ी को उड़ाने के क्रांतिकारी प्रयास के विरुद्ध लिखा था और उसमें वायसराय पर हमले की कड़ी आलोचना की गई थी. गांधी जी के उसी लेख का जवाब देते हुए वोहरा ने कहा था कि एक क्रांतिकारी जब कुछ बातों को अपना अधिकार मानता है तो उसे पाने के लिए पक्ष में दलीलें देता है, पूरी आत्मिक शक्ति से उसे प्राप्त करने की इच्छा रखता है, उसके लिए अधिक से अधिक कष्ट सहता है और शारीरिक बल भी प्रयोग करता है.
आप इन प्रयत्नों को चाहे जिस नाम से पुकारें लेकिन हिंसा नहीं कह सकते. उसके बाद सत्याग्रह के गांधीवादी अर्थ का प्रतिउत्तर देते हुए कहा गया था कि सत्याग्रह अर्थ है सत्य के लिए आग्रह. उसकी स्वीकृति के लिए केवल आत्मिक बल के प्रयोग का आग्रह क्यों? इसके साथ शारीरिक बल का प्रयोग क्यों न किया जाए? यह लेख 26 जनवरी 1930 को पूरे देश में वितरित किया गया था. सारा विवाद यहीं पर था. आजादी के रास्ते में होने वाले संघर्ष में आत्मिक बल का प्रयोग कितना किया जाए और शारीरिक बल का कितना? हालांकि, सबसे पहले उस लेख पर गौर करते हैं जिसे भगत सिंह के साथी भगवती चरण वोहरा ने `बम का दर्शन’ शीर्षक से लिखा था और जिसे भगत सिंह ने अंतिम रूप दिया था. इस लेख का एक शीर्षक हिंदुस्तानी प्रजातंत्र समाजावादी सभा का घोषणा पत्र भी था.
इसके जवाब में गांधी कहते हैं कि दयाबल आत्मबल है, सत्याग्रह है. इस बल के प्रमाण पग पग पर दिखाई देते हैं. अगर यह बल न होता तो पृथ्वी रसातल में पहुंच गई होती. इतिहास में दुनिया के कोलाहल की कहानी मिलेगी. इसीलिए गोरे लोगों में कहावत है कि जिस राष्ट्र की इतिहास नहीं है वह राष्ट्र ज्यादा सुखी है. अगर दुनिया की कथा लड़ाई से शुरू होती तो आज दुनिया में एक भी आदमी जिंदा नहीं होता. दुनिया में इतने लोग आज भी जिंदा हैं यह बताता है कि दुनिया का आधार हथियार बल पर नहीं है, परंतु सत्य दया या आत्मबल पर है.
निश्चित तौर पर गांधी इतिहास में अनोखा प्रयोग कर रहे थे. इससे पहले सुकरात, ईसा मसीह और बुद्ध जैसे पैगंबरों या धर्म संस्थापकों और महात्माओं ने इस मार्ग को अपनाया था, लेकिन उन्होंने उस हथियार के इतने व्यापक राजनीतिक प्रयोग का दर्शन नहीं विकसित किया था. यही वजह थी कि गांधी ने जब 1931 में लंदन में कोलंबिया रेडियो के दफ्तर से अमेरिकी जनता को संबोधित किया, तो कहा कि आप हमारे स्वाधीनता संग्राम का समर्थन कीजिए, क्योंकि उसकी विशेष वजह है. इससे पहले किसी देश ने अपनी आजादी की लड़ाई अहिंसक पद्धति से यानी सत्याग्रही तरीके से नहीं लड़ी होगी.
गांधी और भगत सिंह के अनुयायियों में यह विवाद आज भी चलता रहता है कि अहिंसा का रास्ता एक पाखंड था और गांधी अगर चाहते तो भगत सिंह को बचा सकते थे और उन्होंने ऐसा नहीं किया. गांधी इरविन समझौते के दौरान उन्होंने भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने का सवाल नहीं उठाया. हालांकि, इस दावे के तमाम ऐतिहासिक खंडन मौजूद हैं. स्वयं पत्रकार कुलदीप नैयर ने भी तथ्यों के माध्यम से यह बात रखी है कि गांधी जी ने प्रयास किया था. पर वायसराय इरविन मानने को तैयार नहीं थे, लेकिन उससे भी बड़ी बात यह कि क्या भगत सिंह फांसी के फंदे से वापस आना चाहते थे.
हरगिज नहीं. क्योंकि भगत सिंह ने जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए क्रांतिकारी स्पिरिट पैदा करने की कोशिश की थी. इस बात को उन्होंने फांसी से कुछ समय पूर्व कहा था. भगत सिंह मानते थे कि वे क्रांति का मूल मंत्र बन गए हैं. उन्हें इस बात का अहसास था कि उनके सर्वोच्च बलिदान से भी क्रांति की मशाल को धधकाया जा सकता है.
दरअसल, जब भी हम भगत सिंह और गांधी की तुलना करते हैं तो एक ओर साजिश और ईर्ष्या द्वेष की भावना से बात करते हैं और फिर यह सिद्ध करने लगते हैं कि गांधी जी कायर थे और अपनी जान से डरते थे, जबकि भगत सिंह बहादुर थे और जान देने को तैयार रहते थे. यह बचकाने तर्क हैं जो आज भी नामसझ लोगों द्वारा चलाए जाते हैं जो न तो भारतीय इतिहास को समझने देना चाहते हैं और न ही दो महापुरुषों का मूल्यांकन करने की दृष्टि देना चाहते हैं। वास्तव में जान की परवाह दोनों में किसी को नहीं थी. गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से ही अपनी जान हथेली पर लेकर चल रहे थे और आखिर में 30 जनवरी 1948 को बलिदान हो ही गए. जबकि भगत सिंह तो 23 साल की उम्र में ही फांसी पर लटक गए और वह भी पूरी समझ, चेतना और निर्भयता के साथ. इसलिए भय न तो गांधी को छू गया था और न ही भगत सिंह. ( यहां हम उम्र के पड़ाव को छोड़कर दोनों व्यक्तित्वों की अवधारणा के लिहाज से तुलना कर रहे हैं.)
हिंसा और अहिंसा के प्रश्न पर भगत सिंह ने स्पष्ट कहा था कि किसी विशेष हालत में हिंसा जायज हो सकती है, लेकिन जनांदोलनों का मुख्य हथियार अहिंसा ही होगी. भगत सिंह ने यह भी कहा था कि क्रांतिकारी जीवन के पहले कुछ दिनों के सिवाय, न तो मैं आतंकवादी हूं और न ही था. मुझे पूरा विश्वास है कि हम इन तरीकों से कुछ हासिल नहीं कर सकते. एक अन्य स्थान पर भगत सिंह ने कहा है कि आतंकवाद हमारे भीतर क्रांतिकारी चिंतन की पकड़ के अभाव की अभिव्यक्ति है. भगत सिंह गांधी को एक हद तक ही खारिज करते हैं, पूरी तरह से नहीं. गांधी के बारे में वे कहते हैं, `गांधी एक दयालु मानवतावादी व्यक्ति हैं। लेकिन ऐसी दयालुता से सामाजिक तब्दीली नहीं आती उसके लिए वैज्ञानिक और गतिशील सामाजिक शक्ति की जरूरत है. ……इस तरह गांधीवाद अपने भाग्यवादी मत के बावजूद क्रांतिकारी विचारों के करीब पहुंचने की कोशिश करता है क्योंकि वह जनकार्रवाई पर निर्भर करता है. चाहे वह कार्रवाई जनता के लिए नहीं है.’’
गांधी और भगत सिंह के बीच सत्य और त्याग के लिए अद्भुत समर्पण है. वह तब दिखाई पड़ता है जब वे अपने ऊपर चलाए जाने वाले मुकदमों में बचाव करने की बजाय आरोपों को स्वीकार करके सजा भुगतने को तैयार होते हैं. अगर भगत सिंह लाहौर षडयंत्र कांड में अपना बचाव नहीं करते तो गांधी भी 1922 में अहमदाबाद में राजद्रोह के मुकदमे में सारे आरोप स्वीकार कर लेते हैं. वे दोनों औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति दिलाते हुए सांप्रदायिक सद्भाव के आधार पर एक देश बनाना चाहते हैं जिसमें अधिकतम बराबरी हो. यानी उपनिवेशवाद का विरोध और सांप्रदायिक सद्भाव की भावना दोनों में कूट कूट कर भरी है. भारत की आजादी के लिए भगत सिंह ने अपनी जान दे दी और गांधी ने सांप्रदायिक एकता के लिए सीने पर गोली खाई, लेकिन अगर भगत सिंह 1931 में बच गए होते तो वे 1947 में देश की एकता के लिए मरने को तत्पर रहते.
फिर दोनों में जो अंतर है वहां कहां से आया. उसकी एक वजह उनकी मानसिक बुनावट तो है ही लेकिन दूसरी वजह रणनीतिक भी है. आजादी का कोई भी नेता ऐसा नहीं रहा है जो 1857 से प्रभावित न रहा हो. लेकिन उस संग्राम से प्रभावित लोगों ने अलग- अलग संदेश लिए थे. जहां भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं को उम्मीद थी कि वैसा जनउभार फिर होगा और देश आजाद हो जाएगा, वहीं गांधी को यह डर था कि अगर वैसा फिर हुआ तो कहीं हम उससे ज्यादा बुरी तरीके से कुचल न दिए जाएं. गांधी को यह डर अपने लिए नहीं अपनी जनता और देश के लिए था। गांधी ने यह डर समय- समय पर अपने लेखन में व्यक्त किया है.
सुंदरलाल से वार्ता के दौरान भी उन्होंने अंग्रेजी सेना के पास जमा हथियारों के जखीरे का पूरा ब्योरा दे दिया था और कहा था कि हम लोग इतने हथियार कहां से जमा करेंगे. जबकि भगत सिंह ने `करती’ अखबार में `दस मई का वह शुभ दिन’ जैसा लेख लिखा था जिसमें 1857 की क्रांति का आह्वान किया था.
भगत सिंह और गांधी पर मचे तमाम विवादों के बावजूद उनके साथियों और अनुयायियों में ऐसे लोग हुए हैं जो उनके मूल तत्व को समझते थे. ऐसे प्रमुख लोगों में एक नाम डा राममनोहर लोहिया का है तो दूसरा नाम गणेश शंकर विद्यार्थी का है. तीसरा नाम माखनलाल चतुर्वेदी का भी रख सकते हैं. डॉ. लोहिया की तो जन्मतिथि 23 मार्च को ही पड़ती है. लेकिन वे अपना जन्मदिन इसीलिए नहीं मनाते थे कि उसी दिन भगत सिंह को फांसी हुई थी. संयोग से इतिहास ने उन्हें एक और मायने में भगत सिंह के करीब जाने का मौका दिया. 1944 में उन्हें लाहौर जेल की उसी कोठरी में रखकर भयंकर यातना दी गई, जिसमें भगत सिंह को रखा गया था. इसी तरह से गणेश शंकर विद्यार्थी भी गांधी और भगत सिंह दोनों के करीबी थे. उन्हें कोई विशेष अंतर्विरोध नहीं दिखता था. वे भी सांप्रदायिक एकता के लिए शहीद हुए थे.
सवाल यह है कि आज भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में अगर किसी कानून का विरोध करना है तो गांधी के सत्याग्रह का रास्ता उचित है या हिंसा का. हमने हिंसा का अधिकार राज्य को दे रखा है जो विशेष स्थितियों में उसका विवेकपूर्ण और न्यायोचित इस्तेमाल करता है. जनता के लिए तो सत्याग्रह का ही रास्ता उचित है. ऐसे में जो दल या नेता चुनाव में हिंसा का प्रयोग करते हैं वे भी गलत हैं और जो लोग हिंसा की और उकसावे की भाषा बोलते हैं वे भी गलत हैं. आजादी के अमृत महोत्सव के दौरान हमें इस मामले पर मंथन करते हुए यह तलाशने की जरूरत है कि किस विचारधारा से हमारा लोकतंत्र ज्यादा टिकाऊ और श्रेष्ठ हो सकता है. जाहिर है वह रास्ता सत्याग्रह का ही है.
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