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लाभार्थी समूहवाले मतदाताओं से अब “जीत का बादशाह” बन चुकी है भाजपा

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मतदाताओं की अब एक नई श्रेणी आ गई है। इस श्रेणी में वह तबका आता है, जिसे सरकारी फायदे मिलते हों। इनमें मजदूर, मुआवजा पानेवाले किसान, बीपीएल कार्डधारक, बुजुर्ग महिला-पुरुष और विकलांग आदि आते हैं। सरकारें चुनाव के पहले इनके खातों में पैसे डाल देती है। आश्वासनों की रेवड़ियां बांटी जाती है। मुफ्त में राशन आदि बांटा जाता है। बता रहे हैं बापू राऊत

भारत एक लोकतांत्रिक देश है। इसीलिए स्वतंत्रता के बाद लोकसभा एवं विधानसभा के चुनावी माहौल में मतदाताओं और एक से अधिक राजनीतिक दलों की बेझिझक भागीदारी रही है। चुनावों के दौरान सभी दल मतदाताओं को अपने-अपने मुद्दों और वादों से आकर्षित करने का प्रयास करती हैं। सभी मतदाताओं के पास राजनीतिक समझ नहीं होती है। कुछ मतदाता सत्ता में सामूहिक हिस्सेदारी के मद्देनजर अपने मत का उपयोग करते हैं। जिन मतदाताओं के पास राजनीतिक समझ नहीं होती है, वे किसी के भी प्रभाव में आकर वोट करते हैं। वैसे भी मतदाता मुख्यत: दो प्रकार के ही होते हैं। एक वैचारिक मतदाता, दूसरे वे जिनके लिए किसी एक दल का महत्व नहीं होता। दूसरे तरह के मतदाताओं का व्यवहार चुनाव-दर-चुनाव बदलता रहता है। अब इसमें एक तीसरे प्रकार के मतदाता का आगमन हो गया है। इसे लाभार्थी या सरकारी मतदाता कहा जा सकता है। इन लाभार्थी मतदाताओं ने 2019 के लोकसभा और उसके बाद के विधानसभा चुनावों में सताधारी दलों को जितवाने में अंहम भूमिका निभायी। इस तरह के मतदान के पैटर्न के कारण बेरोजगारी, महंगाई और बेहत्तर शिक्षा जैसे आवश्यक मुद्दे धराशाई हो गए, जिनका अब कुछ भी मोल नहीं है, क्योंकि राजनीतिक दलों ने विशेषकर भाजपा ने मतदाताओं के पैटर्न के साथ-साथ सरकारी संस्थाओं के लिए नए पैटर्न का निर्माण किया है।

दूसरी ओर वैचारिक मतदाता उस दल को वोट देते हैं, जिसकी विचारधारा उनकी सामूहिक या व्यक्तिगत विचारधारा से मेल खाती है। वैचारिक मतदाता चाहते हैं कि चुनाव में उनकी पसंदीदा विचारों वाली पार्टी की जीत हो। वैचारिक मतदाताओं की संख्या जितनी ज्यादा होगी, चुनावी मैदान में पार्टियों की पकड़ उतनी ही मजबूत मानी जाती है। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं कि वैचारिक मतदाता ही किसी दल की बुनियाद को मजबूत करते हैं। हालांकि इसकी उपज संप्रदायवाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद से होती है। भारत में अनेक दलों का निर्माण इन्हीं बुनियादों के आधार पर हुई है। 

यह देखा जाता है कि अपनी पसंदीदा पार्टी के जीतने के आसार नहीं होने पर भी वैचारिक मतदाता अपनी विचारधारावाली पार्टी के पक्ष में ही वोट डालते हैं। इतना ही नहीं, वैचारिक मतदाता अपनी पार्टियों की गलत नीतियों पर परदा डालकर दूसरी पार्टियों की खामियां उजागर करते हैं।

मौजूदा राजनीतिक दौर में अधिकांश मुख्य जातियां वैचारिक रूप से किसी ना किसी दल के साथ जुड़ चुकी हैं। इनमें आदिवासी, दलित-पिछड़ों एवं मुस्लिम से लेकर सवर्ण जातियां तक शामिल हैं। मसलन, मुस्लिम मतदाता मुख्यत: धर्मनिरपेक्ष दलों के साथ अपना जुड़ाव रखते हैं। चुनाव में उनके मत निर्णायक होते हैं। देखा गया है कि ईसाई मतदाता ज्यादातर कांग्रेस के पक्ष में होते हैं। लेकिन गोवा और नार्थ ईस्ट में जैसे कि मणिपुर, मेघालय, आसाम और नागालैंड में भाजपा के पक्ष में उनके द्वारा मतदान एक नयी तरह की परिघटना है। हालांकि इसमें नरेंद्र मोदी और अमित शाहका क्षेत्रीयता के हिसाब से रणनीति बनाने का प्रयास दिखाई देता है।

उत्तर प्रदेश के गांव में भाजपा द्वारा वितरित खाद्य सामग्री के थैले को दिखाती एक महिला

दूसरे तरह के मतदाता वे हैं, जो किसी एक तरह के विचार से बंधे नहीं होते। किसी भी दल के लिए ये भी काफी अहमियत रखते हैं। सामान्य तौर पर इनमें वे मतदाता होते हैं जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्तर पर पिछड़े हैं। इनमें राजनीतिक चेतना का समुचित प्रसार नहीं पाया जाता और इस कारण इनका निश्चित राजनीतिक नेतृत्व भी नहीं होता। कहीं कहीं इन जातियों के नेता उभरते हैं, लेकिन स्वार्थ की राजनीति के कारण वे अपनी जातियों का भला नहीं कर पाते। ऐसे नेता खुद को गौण और केवल प्रतीकात्मक समझनेवाले होते हैं। वैचारिकी रहित मतदाताओं का कोई खास एजेंडा नहीं होता। वे बोलने से ज्यादा सुनना पसंद करते हैं। वे केवल लुभावने वादे और आकर्षक प्रचार से प्रभावित होते हैं। राजनीतिक पार्टियों को भी पता होता है कि वे हवा के साथ चलते हैं। इसीलिए चुनाव के दौरान जो राजनीतिक दल जितना जबरदस्त प्रचार और उमेदवारों की ब्राडिंग करता है, ऐसे मतदाता उनके साथ चले जाते हैं। ऐसे मतदाताओं को चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों के परिणाम प्रभावित करते हैं। वास्तविकता यह होती है कि इस तरह का सर्वेक्षण करनेवाली कंपनियां पक्षपातपूर्ण तरीके से सर्वेक्षण जारी करती हैं ताकि खास दल के पक्ष में माहौल बन सके। हालांकि ऐसे मतदाताओं की संख्या बहुत अधिक नहीं होती, लेकिन उनकी संख्या इतनी तो होती ही है कि जिस दल को मिल जाएं, उसकी जीत सुनिश्चित हो जाती है। 

जैसा कि मैंने पहले कहा कि मतदाताओं की अब एक नई श्रेणी आ गई है। इस श्रेणी में वह तबका आता है, जिसे सरकारी फायदे मिलते हों। इनमें मजदूर, मुआवजा पानेवाले किसान, बीपीएल कार्डधारक, बुजुर्ग महिला-पुरुष और विकलांग आदि आते हैं। सरकारें चुनाव के पहले इनके खातों में पैसे डाल देती है। आश्वासनों की रेवड़ियां बांटी जाती है। मुफ्त में राशन आदि बांटा जाता है। इस तरह का प्रयोग हाल ही में उत्तर प्रदेश में हुए चुनाव के दौरान देखा गया था जब मुफ्त राशन बांटा गया और थैलियों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर के जरिए लोगों को अहसानों से लाद देने की कोशिश की गई। 

यह सभी जानते हैं कि भाजपा बहुसंख्यकों के लिए नहीं बल्कि सवर्ण जो कि अल्पसंख्यक हैं, के हितों के लिए काम करती है। उसके मूल संगठन ने धर्म, मंदिर और हिंदुत्व के नामपर अपने कट्टर वैचारिक मतदाता बना लिए हैं। यह उनकी ख़ास मजबूती है। संघ ने जबसे धर्मवाद और राष्ट्रवाद को मुद्दा बनाया उसने समान विचारधारावाले शिवसेना के जैसे क्षेत्रीय दलों को खत्म करने की कोशिशें की।

वहीं दूसरी तरफ दक्षिण में क्षेत्रवाद आधारित राजनीति की जड़ें अधिक गहरी हैं। तमिलनाडु में डीएमके और एआईएडीएमके, आंध्र प्रदेश में  तेलुगु देशम पार्टी एवं वाईएसआर के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। इनके अलावा देश के अन्य राज्यों यथा पश्चिम बंगाल में  टीएमसी और उड़ीसा में बीजू जनता दल आदि ने अपने-अपने प्रदेशों में धर्म को कभी हावी नही होने दिया। ममता बनर्जी ने भाजपा से निपटने के लिए भाषा, संस्कृति और क्षेत्रवाद के साथ मुस्लिम को भी अपने पाले में शामिल कर लिया। जबकि पश्चिम बंगाल में संघ और भाजपा ने हिंदुत्व, दुर्गा, मंदिर और दलित कार्ड खेला। हालांकि इसका फायदा उन्हें 2019 में लोकसभा और 2021 में विधानसभा चुनाव में मिला। इसका अर्थ साफ है कि भाजपा ने ममता बनर्जी के गढ़ में वैचारिकी रहित मतदाताओं के बीच अपनी पैठ बना ली है।  

दक्षिण का कर्नाटक राज्य अब हिंदुत्व की प्रयोगशाला बन चुका है। भाजपा ने हिंदुत्व और मुस्लिम विरोध का कार्ड खेलकर विरोधियों को बेसहारा कर दिया है। यानी संघ-भाजपा ने जनता दल (सेक्युलर) और कांग्रेस के सवर्ण वोटरों को अपने पक्के वैचारिक मतदाता बना दिया है। बहुमत के लिए उन्हें केवल वैचारिकी रहित मतदाताओं को झुनझुना थमाते रहना है। संघ-भाजपा धीरे-धीरे तमिलनाडु और केरल में अपने राष्ट्रवाद, धर्मवाद और मुस्लिम विरोध के जरिए क्षेत्रीय दलों और कम्युनिस्टों को लक्ष्य करने लगी है। तमिलनाडु और केरल की ऊंची जातियां भाजपा के वैचारिक मतदाता बनने की राह पर हैं। धर्म के नामपर ओवेसी भी मुस्लिम वोट लेना चाहते हैं। इसका सबसे से ज्यादा फायदा भाजपा को और अधिकतर नुकसान कांग्रेस व अन्य विरोधी क्षेत्रीय दलों का हो रहा है।

मंडल आयोग के बाद मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव ने ओबीसी वोट बैंक को अपने वैचारिक मतदाता के तौर पर अपना राजनीतिक विस्तार किया। 1980 के दशक में कांशीराम ने बहुजनवाद का नारा दिया। इसमें दलितों के साथ ओबीसी, अति पिछड़े और मुस्लिम भी शामिल थे। यह वैचारिक मतदाताओं और गैर-वैचारिक मतदाताओं का एक गठबंधन था। इस गंठजोड़ ने मुलायम सिंह यादव और मायावती को मुख्यमंत्री पद तक पहुंचा दिया।  बसपा के वैचारिक मतदाताओं को झटका तब लगा जब मायावती ने ब्राम्हण मतदाओं को ध्यान में रखकर “सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय” का नारा दिया। ब्राम्हण, मुस्लिम और पिछड़ी जातिया बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के वैचारिक मतदाता नहीं थे। 2014 के बाद ब्राम्हण और अन्य स्वर्ण जातियां मजबूती के साथ भाजपा के वैचारिक मतदाता बन गए, जो उत्तर प्रदेश में 2007 के विधानसभा में बसपा (मायावती) के पास केवल सत्ता में हिस्सेदारी के लिए आये थे। जबकि मायावती और अखिलेश यादव की नीतियों से नाराज दलित, ओबीसी और अतिपिछड़े अब भाजपा के लिए गैर-वैचारिक मतदाता बन गए हैं। 

बहरहाल, भाजपा अब “जीत का बादशाह” बन चुकी है। उसके पास वैचारिक मतदाताओं की फ़ौज के साथ अन्य दो तरह के मतदाता भी हैं।  अब खुले तौर पर नए हिंदू राष्ट्र की नींव डाली जा रही है। 

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