महेंद्र मिश्र
बीजेपी छोटा हो या कि बड़ा किसी भी चुनाव को खरीद-फरोख्त की मंडी में तब्दील कर देती है। हिमाचल प्रदेश में जो कुछ हो रहा है उसकी शुरुआत राज्यसभा चुनावों से हुई थी। पर्याप्त संख्या नहीं होने के बाद भी उसने तीन राज्यों यूपी, कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में अतिरिक्त प्रत्याशी दिए। और ये प्रत्याशी ऐसे थे जो विपक्षी खेमे को साम, दाम, दंड और भेद के जरिये किसी न किसी रूप में भरभंड करने की स्थिति में हों।
मसलन यूपी में उसने संजय सेठ को उतारा जो पेशे से पूंजीपति हैं। और लोकतंत्र की मंडी में मौजूद घोड़ों को खरीदने की क्षमता रखते हैं। इसी तरह से कर्नाटक में भी उसने जेडीएस के साथ मिलकर दूसरा प्रत्याशी कुपेंद्र रेड्डी नाम के शख्स को बनाया जो इसी प्रजाति से आते हैं। और हिमाचल में सत्तारूढ़ खेमे के अंतरविरोध को समझते हुए उसने एक पुराने कांग्रेसी को ही अपना प्रत्याशी बना दिया।
आपको बता दें कि यहां अभिषेक मनु सिंघवी के नाम को लेकर कांग्रेस के भीतर विरोध था। और पार्टी का एक हिस्सा उन्हें बाहरी बताकर पार्टी के इस फैसले की आलोचना कर रहा था और वह सूबे के किसी प्रत्याशी को लड़ाने का दबाव बना रहा था। बीजेपी ने इसी मौके का फायदा उठाया और उसने 2022 में कांग्रेस से टूट कर आए हर्ष महाजन को ही अपना प्रत्याशी बना दिया। ऊपर से कांग्रेस के भीतर जारी कई तरह के अंतरविरोधों ने बीजेपी के लिए सोने पर सुहागा का काम किया। और फिर विधायकों को अपने पाले में करने के लिए बीजेपी ने पूरी ताकत झोंक दी। संवैधानिक नियमों, कानूनों और लोकतंत्र की सारी परंपराओं को धता बताते हुए उसने कांग्रेस के छह और तीन निर्दलीय विधायकों को सीआरपीएफ और हरियाणा पुलिस की मदद से हिमाचल प्रदेश से पंचकुला पहुंचाया।
इन विधायकों को क्या लालच दिया गया या फिर उनको ईडी, सीबीआई से लेकर एनआईए का डर दिखाया गया इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है। लेकिन जनता के जनादेश पर जीत कर आयी सरकार को अपदस्थ करने की यह कोशिश लोकतंत्र का गला घोंटने सरीखा जरूर है। इसी तरह से इसने मध्य प्रदेश में भी किया था जब कमलनाथ सरकार को 18 महीने भी नहीं हुए थे और उसने बड़े स्तर पर विधायकों की खरीद-फरोख्त कर अपने पाले में कर एक चुनी हुई सरकार को गिरा दिया था। चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव को पूरे देश ने देखा। और सुप्रीम कोर्ट के सामने उसे जिन फजीहतों का सामना करना पड़ा शायद ही कोई दूसरी पार्टी होती जो इतनी जल्दी इस तरह की हिम्मत कर पाती। उस मामले को अभी एक हफ्ते भी नहीं बीते हैं उसने हिमाचल में नई नौटंकी शुरू कर दी है। बीजेपी बिल्कुल एक पतित पार्टी की तरह व्यवहार कर रही है। जिसे संविधान, मूल्य और लोकतांत्रिक परंपरा का तो कोई डर है नहीं उसने सारी लोक-लाज भी अब ताक पर रख दी है।
और अगर इसी तरह से देश चलाया गया तो लोकतंत्र किस चिड़िया का नाम है कुछ सालों बाद उसको ढूंढना भी लोगों के लिए मुश्किल हो जाएगा? धन और ताकत के बल पर चलने वाला लोकतंत्र कितने दिनों तक जिंदा रह सकता है? पता चला जनता सरकार चुनेगी और पैसे तथा ताकत के बल पर उसे पलट दिया जाएगा। और एक स्थिति ऐसी आ जाएगी जब जनता और देश को भी सारे चुनाव बेमानी लगने लगेंगे। शायद बीजेपी पूरे देश को इसी स्थिति में पहुंचा देना चाहती है।
और पिछले दस सालों में चली बीजेपी की सरकार का अगर कोई मूल्यांकन करे तो वह जनता के जनादेश से ज्यादा अडानी-अंबानी, सीबीआई, ईडी, इनमकम टैक्स और ईओडब्ल्यू जैसी एजेंसियों के बल पर चली है। इन्हीं के बल पर सत्ता चल रही है और इन्हीं के सहारे सत्ता पलटी जा रही है। इसका नतीजा यह है कि जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता के शासन का अंत होने जा रहा है। और जो कुछ सांसें बची हैं आने वाले 2024 के चुनाव में बीजेपी-संघ उसे भी खत्म कर देंगे। और फिर एक ऐसी तानाशाही का जन्म होगा जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। ये सारे चुनाव और परिघटनाएं महज उसका ट्रेलर भर हैं।
ये तो रही बीजेपी और संघ की बात। उसका तो वही चरित्र है। किसी घड़ियाल से आप साधु बनने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। वह अपने चरित्र और स्वभाव के मुताबिक ही काम करेगा। ऐसे में बीजेपी को दोष देने से पहले कांग्रेस और उसके नेताओं को अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए। आखिर आप अपना घर क्यों नहीं संभाल सके? हिमाचल प्रदेश में जो हो रहा है उसके लिए कांग्रेस का सूबे का नेतृत्व और हाईकमान जिम्मेदार है। आप बीजेपी को नहीं जानते या फिर उसकी फितरत से परिचित नहीं हैं। आपके छह प्लस तीन निर्दलीय कुल नौ विधायक जो आपकी सरकार को समर्थन दे रहे थे बीजेपी उनको उड़ा ले जाती है और आपको कानों-कान खबर तक नहीं होती है।
इस मामले में जिम्मेदारियों की अगर शुरुआत की जाए तो हाईकमान द्वारा नियुक्त प्रभारी वहां क्या कर रहा था? आपने सूबे को एक ऐसा प्रभारी दे रखा है। जिसकी छवि ही दलाली की रही है। वह उसी के रास्ते राजनीति के इस मुकाम तक पहुंचा है। राजीव शुक्ला को भला कौन नहीं जानता है। ऐन-केन प्रकारेण जनाब ने प्रियंका गांधी तक अपनी पहुंच बना ली और आज उसी की मलाई काट रहे हैं। लगातार राज्य सभा के सदस्य हो रहे हैं और अब केंद्रीय नेताओं की श्रेणी में गिने जाते हैं। लेकिन क्या कभी कांग्रेस हाईकमान ने इनकी शिनाख्त करना जरूरी नहीं समझा? ऐसे समय में जब मोदी पूरी कांग्रेस को खत्म कर देना चाहते हैं तब भी जनाब के रिश्ते केंद्र की सत्ता में बैठे आला नेताओं से बने हुए हैं।
वह बीसीसीआई के उपाध्यक्ष हैं और लगता है कि अपने आखिरी समय तक वह इस पद पर विराजमान रहेंगे। सत्ता कांग्रेस की हो या फिर बीजेपी की उनका वह पद सुरक्षित है। एक ऐसे समय जब विपक्षी खेमे के सभी नेताओं के सारे संसाधनों और स्रोतों को काटने या फिर खत्म करने की कोशिश की जा रही है तब विपक्ष में बैठे एक आदमी को सत्ता क्यों अपने गले लगाए हुए है? क्या इसके बारे में कांग्रेस का नेतृत्व कभी विचार किया?
लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि हिमाचल में चलने वाले इस पूरे खेल के पीछे इन जनाब का ही हाथ है। प्रतिभा और विक्रमादित्य के साथ-साथ बीजेपी के बीच अगर उन्होंने पुल का काम किया हो तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। सूत्रों की मानें तो स्थानीय कांग्रेसियों ने अभिषेक मनु सिंघवी की जगह आनंद शर्मा का नाम प्रस्तावित किया था जो हिमाचल के ही रहने वाले हैं। ऐसे में इनके बीच अगर आनंद शर्मा तिकड़ी बन कर इस ध्वंस को अंजाम दिए हों तो कोई बड़ी बात नहीं है। वह पहले से ही हाईकमान के साथ बगावत की मुद्रा में हैं।
उनके लिए यह एक बड़ा मौका था जिसमें वह अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर सकें। और इससे भी ज्यादा अगर राजीव शुक्ला कहीं बीजेपी के लिए फैसिल्ट्रेटर का काम किए हों तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। लिहाजा कांग्रेस की नाव में छेद ही छेद थे। ऊपर से नाविक भी नया और कमजोर था। इस तरह से नाव के डूबने की आशंका बनी हुई थी। लेकिन अफसोस हाईकमान समय रहते उसे पहचान नहीं सका। अब देखना होगा कि वह नाव को डूबने से कैसे बचाता है।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडिंग एडिटर हैं।)
जनचौक से साभार