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पुस्तक समीक्षा: समतामूलक सामंजस्यःएक प्रस्तावना

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अरुण कुमार त्रिपाठी

हमारी सभ्यता अपनी कालगणना में जैसे-जैसे आगे बढ़ रही है वैसे-वैसे समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का विमर्श पीछे छूटता जा रहा है। साथ ही छूटता जा रहा है एक ही कुल खानदान के विचारकों के भीतर समन्वय का प्रयास। भले थामस पिकेटी जैसे लोग वर्ल्ड इनइक्विलिटी लैब के माध्यम से आर्थिक विषमता और विशेष तौर पर भारत में विषमता का सवाल उठाएं और कहें कि भारत में अंग्रेजी राज से भी अधिक विषमता व्याप्त है, लेकिन अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों की पूरी फौज है जो यह सिद्ध करने में लगी रहती है कि उतनी विषमता नहीं है जितनी बताई जा रही है।

दरअसल उनकी योजना समता को ही विमर्श से गायब कर देने की है। इससे मानव सभ्यता का टकराव बढ़ रहा है और एकत्व की संभावना लगातार घट रही है। हम निरंतर वसुधैव कुटुंबकम का नारा लगाते रहते हैं लेकिन विश्व वैमनस्य ज्यादा मजबूत हो रहा है। उसी तरह स्वतंत्रता का मूल्य अब एक बासी किस्म का जड़ पदार्थ बनकर रह गया है। वैश्वीकरण के अभियान ने अब तो यह कहना शुरू ही कर दिया है कि भारत में स्वतंत्रता कुछ ज्यादा ही है और इतनी स्वतंत्रता के साथ आर्थिक तरक्की मुश्किल है।

ऐसे दौर में हमारे बीच नंदकिशोर आचार्य जैसे विचारक भी हैं जिन्होंने समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व जैसे महान मानवीय मूल्यों के पक्ष में अपनी पुस्तक `समतामूलक सामंजस्यः एक प्रस्तावना’ के माध्यम से एक आवश्यक दार्शनिक हस्तक्षेप किया है। गांधी, आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राम मनोहर लोहिया और विनोबा भावे और एमएन राय जैसे समता दर्शन के छह विचारकों के माध्यम से समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व संबंधी भारतीय चिंतन की व्याख्या करते हुए एक ओर वे इसे फ्रांस की क्रांति के वैश्विक संदर्भ से जोड़ देते हैं और दूसरी ओर भारत के आध्यात्मिक चिंतन से जोड़ते हुए कहते हैं कि सृष्टि के मौलिक एकत्व में ही समता का विचार निहित है।

इसी के साथ वे इन विचारकों में समता के आधार पर एक सामंजस्य खोजते हैं। कहने का तात्पर्य है कि जहां उनके विचारों में समानता नहीं है वहां सामंजस्य ढूंढने की कोशिश नहीं करनी चाहिए लेकिन जहां पर समानता है वहां पर सामंजस्य को नजरंदाज भी नहीं करना चाहिए। यह प्रयास ऐसे दौर में किया गया है जब विऔपनिवेशीकरण के बहाने इन मूल्यों को गैर-भारतीय और यूरोपीय बताकर उन्हें बाहर का रास्ता दिखाने का प्रयास चल रहा है। तब ऐसे मूल्यों को आत्मसात कराए जाने के एक प्रयास के तौर पर इस पुस्तक को देखा जा सकता है।

नंदकिशोर आचार्य आज की वैश्विक समस्याओं की नब्ज पर हाथ रखते हुए कहते हैं कि `स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के मूल्य को एक साथ रखकर समन्वित सिद्धि नहीं की गई। किसी एक मूल्य को प्राथमिकता देकर दूसरे का दमन किया गया। पूंजीवादी लोकतंत्र व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर जोर देता है और समता को पीछे छोड़ देता है। साम्यवाद समता पर जोर देता है और स्वतंत्रता का दमन करता है।’ यही कारण है कि साम्यवाद और पूंजीवाद दोनों व्यवस्थाएं मनुष्य का दुख दूर नहीं कर सकी हैं।

नंदकिशोर आचार्य मार्क्सवादी, समाजवादी और भारत की आध्यात्मिक धारा से आए हुए विचारकों में समता के मूल्य की तलाश करते हैं और उन्हें उन सभी में समता के मूल्य तो दिखाई ही पड़ते हैं साथ ही स्वतंत्रता के मूल्य भी परिलक्षित होते हैं। इसकी वे एक व्याख्या और प्रस्तुत करते हैं जो बिखराव की ओर बढ़ती मानव सभ्यता में एकत्व के तत्व चिह्नित करती है।

वे लिखते हैं, `इस पुस्तक में जिस मूल्यत्रयी को केंद्र में रखा गया है उसे मैं प्रेम या अहिंसा की ही गुणाभिव्यक्ति मानता हूं-निर्गुण प्रेम की सगुण अभिव्यक्ति—क्योंकि प्रेम ही केंद्रस्थ मूल्य है; आध्यात्मवादी के लिए वह ईश्वरीय नियम है तथा भौतिकवादी के लिए विधिशासित ब्रह्मांड के एकत्व के नियम का मानवीय प्रतिफलन।’

नंदकिशोऱ जी अपनी स्थापना में यह कहते हैं कि स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व अन्योन्याश्रित मूल्य हैं। इसी संदर्भ में वे आचार्य नरेंद्र देव के हवाले से कहते हैं कि कार्ल मार्क्स को भले ही समतावादी विचारक के रूप में पहचाना जाता हो लेकिन वास्तव में वह स्वतंत्रता का हिमायती था। इस बारे में एमएन राय भी वैसे ही विचार रखते हैं। वे एमएन राय को उद्धृत करते हुए लिखते हैं,“यद्यपि मार्क्सवाद एक सर्वसत्तावादी सिद्धांत बन चुका है, मार्क्स स्वतंत्रता का हिमायती था और एक मानववादी के रूप में व्यक्ति की स्वतंत्रता का पक्षधर। वह समाजवाद को स्वतंत्रता का राज्य कहता था, जहां मनुष्य अपने परिवेश का स्वामी होगा।’ मार्क्स की व्याख्या करते हुए आचार्य नरेंद्र देव यह भी कहते हैं कि उनका प्रयोजन मनुष्य को विवशता के क्षेत्र से हटाकर उसे स्वाधीनता के राज्य में ले जाना है।

इस पुस्तक की विशेषता यह है कि इसमें गांधी के स्वराज के विचार, नरेंद्र देव, लोहिया और जयप्रकाश नारायण के समाजवाद और सर्वोदय के विचार, एम.एन राय के एकात्मक भौतिकवाद के विचार और विनोबा भावे के साम्ययोग में समता का अद्भुत सामंजस्य देखा गया है। वास्तव में नंदकिशोर जी के चिंतन का उद्देश्य वैश्विक एकता या मानव एकता कायम करना है। लेकिन वे जानते हैं कि एक विषमता मूलक, राज्यसत्ता की दासता में जकड़े और वैमनस्य पर आधारित वैश्विक समुदाय में एकता या बंधुत्व कायम नहीं हो सकता। एकता या विश्व बंधुत्व के सूत्र तलाशते हुए वे इन विचारकों के पास पहुंचते हैं और पाते हैं कि भिन्न-भिन्न चिंतन धाराओं और ज्ञानमीमांसा का प्रतिनिधित्व करते हुए भी वे विचारक तत्वमीमांसात्मक आधार पर एक ही जगह पहुंचते हैं और वह है विश्व का एकत्व। इसीलिए लेखक ने भारतीय संदर्भ में समतामूलक चिंतन करते हुए उन्हें एक माला में पिराने की कोशिश की है।

रोचक बात यह है कि यह सभी विचारक किसी न किसी रूप में राज्य के हिंसक चरित्र और दलीय प्रणाली से मुक्त होकर होने वाले सामुदायिक कर्म में विश्वास करते हैं। इनमें से कुछ तो अहिंसा के सिद्धांत को कस कर पकड़े हैं और कुछ अहिंसा और हिंसा के बीच झूल रहे हैं। मानव एकत्व पर जोर देते हुए नरेंद्र देव कहते भी हैं, “मानवमात्र की एकता और सिद्धि के लिए शोषणमुक्त सामाजिक व्यवस्था की आवश्यकता-इन आदर्शों की भित्ति पर हमें नवीन संस्कृति का निर्माण करना है।…..वस्तुतः जो कार्य श्रमण धर्म ने आध्यात्मिक क्षेत्र में मानव की एकता को स्वीकार करते हुए किया वही कार्य भौतिक क्षेत्र में समाजवाद को स्वीकार करके हमें करना है।’’

लेखक ने मूल्य त्रयी को साधने वाले विचारकों के समय समय पर व्यक्त किए गए विचारों को पांच अध्यायों में व्यक्त करते हुए उनमें सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की है। तत्वमीमांसीय सामंजस्य, अन्योन्याश्रित मूल्यत्रयी, अर्थशास्त्रीय सामंजस्य, राज्यशास्त्रीय सामंजस्य और सामंजस्य सामाजिकी नाम के इन अध्यायों को देखकर लगता है कि जिन्हें हम बहुत दूर दूर समझ रहे थे वे लोग एक दूसरे के कितने करीब हैं। वास्तव में लोग ऐतिहासिक व्यक्तित्वों के स्थूल जीवन पर चर्चा करते हैं।

उनके सूक्ष्म जीवन तक जाना ही नहीं चाहते। उन्हें बस यही याद रहता है कि गांधी नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण और लोहिया क्यों एक दूसरे से अलग हो गए। जयप्रकाश समाजवादी होते हुए सर्वोदय आंदोलन में विनोबा के साथ क्यों गए? विनोबा तो समाजवादी या मार्क्सवादी थे नहीं फिर उनके विचारों का समतामूलक सामंजस्य से क्या वास्ता? या आचार्य नरेंद्र देव तो मार्क्सवादी थे इसलिए समाजवादी आंदोलन में क्यों उन्हें समाहित किया जाए। या मानवेंद्रनाथ राय तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्रांति करने गए थे और गांधी के आलोचक थे फिर उनके विचारों को गांधी के विचारों के साथ रखने की क्या आवश्यकता है? या फिर वे लोग अहिंसक वर्ग संघर्ष की बात क्यों करने लगे? 

लेकिन इस पुस्तक को पढ़ते हुए लगता है कि उनके विचारों में अद्भुत साम्य है। वास्तव में जब हम सृष्टि के मौलिक एकत्व को देखेंगे तो पाएंगे कि उसके सभी तत्त्व और अवयव अंतर्संबंधित हैं। विभिन्न प्रस्थान बिंदुओं से वैचारिक यात्रा करने वाले विचारक भी किस प्रकार एकत्व के तार से जुड़े होते हैं इसकी सुंदर अभिव्यक्ति हिंदी के शीर्षस्थ लेखक अज्ञेय ने इस प्रकार की है, “ सैद्धांतिक रूप से मैं लोकतंत्र को कम्युनिज्म से अच्छा समझता हूं और लोकतंत्र को बुनियादी(रैडिकल) तथा प्राथमिक(प्राइमरी)रूप दिया जा सके ऐसी चेष्ठा का अनुमोदन करता हूं। एम.एन राय के विचारों की यही दिशा थी, विनोबा के विचारों की भी यही है और जयप्रकाश नारायण की भी। तीनों अलग अलग रास्तों से उधर आए हैं या आ रहे हैं, उससे क्या। इससे भी क्या कि एक दृष्टि बुद्धिवादी भौतिकवादी, मानववादी है और दूसरी ईश्वरपरक या अध्यात्मवादी।’’ 

यह पुस्तक मार्क्सवाद की आचार्य नरेंद्र देव की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए यह दर्शाती है किस तरह वह भारतीय दर्शन की चाशनी में डूबी हुई है। आचार्य नरेंद्र देव किस प्रकार द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की व्याख्या करते हैं यह ध्यान देने लायक है। जिसे एम.एन.राय एकात्म भौतिकवाद कहते हैं उसे नरेंद्र देव भौतिक अद्वैतवाद कहते हैं। नरेंद्र देव की व्याख्या इस प्रकार है, “मार्क्सवादी दर्शन जड़ और चेतन की पृथक-पृथक स्वतंत्र सत्ता नहीं मानता क्योंकि चेतना का जो स्वरूप हम देखते हैं वह भौतिक पदार्थ के रूपांतरण के क्रम में ही एक अवस्था विशेष में पैदा होता है—वह बतलाता है कि चेतना विकासमान पदार्थ का एक गुण है। दूसरे अर्थों में हम मार्क्सवादी दर्शन को अद्वैतवादी दर्शन कह सकते हैं।’’

इस पुस्तक में लेखक ने जिन विचारकों को लेकर चर्चा की है उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि सभी ने भारतीय चिंतन को या तो मार्क्सवाद से समृद्ध किया  है या मार्क्सवाद को भारतीय चिंतन से समृद्ध किया है। यह सब इसीलिए हो पाया है क्योंकि सभी के सरोकार बड़े हैं और यही वजह है कि एक जगह जाकर संकेंद्रित होते हैं या अभिसारित होते हैं। जयप्रकाश नारायण आखिर तक वर्ग संघर्ष(अहिंसक) में यकीन करते रहे।

वे आरंभ में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से बहुत आकर्षित थे लेकिन जब वे सर्वोदयी हुए तो उन्होंने भौतिकवाद की सीमाएं भी स्पष्ट कीं। उनका कहना था, “ भौतिकवाद में मनुष्य के लिए अच्छाई की ओर बढ़ने और उसके विशेष प्रयोजन की कोई प्रेरणा नहीं है। दूसरी ओर जो पदार्थ से इतर चीजों को खोजते हैं उनके लिए अच्छा होने को उचित न ठहराना मुश्किल होगा…… इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भौतिकवाद से परे जाकर ही मनुष्य अपनी स्वाभाविक वृत्ति पा सकता है और अपना उद्देश्य हासिल कर सकता है।’’

नंदकिशोर आचार्य वास्तव में एक समतामूलक विश्व की रचना करना चाहते हैं और इसी उद्देश्य के लिए उन्होंने अलग अलग विचारकों में साम्य ढूंढने की कोशिश की है। उस मार्ग में मनुष्य का अहम कितना बड़ा अवरोध है, निजी संपत्ति कितनी बाधक है, संसदीय लोकतंत्र कितना निरर्थक है, आर्थिक ढांचा कितना प्रतिकूल है और राज्य की संरचना कितनी हिंसक है, इन सारे सवालों को इस पुस्तक के विमर्श में शामिल किया गया है। पुस्तक इन समस्याओं का दार्शनिक समाधान भी प्रस्तुत करती है।

इस पुस्तक का उद्देश्य अकादमिक जगत में एक दार्शनिक हस्तक्षेप तो है ही लेकिन उससे भी बड़ा आपस में बंटे हुए तमाम समतामूलक संगठनों और आंदोलनों के दिमाग के जाले को साफ करना भी है। वे इस बात से चिंतित हैं कि ऐसी छोटी छोटी भिन्नताओं को बहुत बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किया जाता है जिनके बीच सामंजस्य संभव है।

लेकिन एक बात स्पष्ट है कि जहां पर सामंजस्य संभव नहीं है वहां पर लेखक सामंजस्य के लिए प्रयत्नशील भी नहीं है। यही कारण है कि इस विचारषष्ठी से नेहरू और आंबेडकर जैसे दो भारतीय विचारकों को बाहर रखा गया है। क्योंकि लेखक का मानना है कि नेहरू और आंबेडकर की विचारधारा उपरोक्त विचारकों से विपरीत दिशा में है।

हालांकि भारत की समस्याएं जिस तरह से बढ़ रही हैं, विशेषकर सांप्रदायिकता और जातिवाद की तो इन विचारकों की ओर तमाम लेखकों की निगाहें गई हैं और उन्होंने उपरोक्त विचारकों से उनका समन्वय कायम करने का प्रयास किया है। देखना है कि प्रस्तुत पुस्तक से प्रेरित होकर कितने संगठन और आंदोलन अपने भीतर नए किस्म का सामंजस्य कायम करते हैं? यह भी देखना है कि कितने लेखक इस सूत्र को आगे बढ़ाते हैं?

समतामूलक सामंजस्यःएक प्रस्तावना, नंदकिशोर आचार्य, आईटीएम पब्लिकेशन,आईटीएम विश्वविद्यालय, ग्वालियर. पृ.90. मूल्य 100 रुपए।

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