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पुस्तक समीक्षा:बदलाव की दौर से गुजरती जनजातियां: अपनी जड़ों से जुड़ी जनजाति

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दिनेश शास्त्री

पश्चिम के एक विद्वान हुए हैं चार्ल्स केटरिंग, उनकी स्थापना है कि “दुनिया परिवर्तन से नफरत करती है, लेकिन यही एकमात्र कारक है, जिससे प्रगति का जन्म होता है। इस दृष्टि से देखें तो प्रकृति का भी सार्वभौमिक नियम है-परिवर्तन, यह एक तरह से उसका स्थाई धर्म है। बदलते मौसम के साथ उसके रंग रूप नित बदलते नजर आते हैं, जिस प्रकार से प्रकृति स्वयं में बदलाव करती है, समय-समय पर वह अपने रूप-स्वरूप में निरंतर बदलाव लाती है, कभी पतझड़ का मौसम तो कभी वसंत का तो उसके बाद गर्मी का और तदनंतर बरसात का तो अन्तत: ठंड का मौसम आने से प्रकृति का सौन्दर्य बदलाव के दौर से गुजरता रहता है। इस लिहाज से मनुष्यों के आचार व्यवहार में भी बदलाव स्वाभाविक है। इसके बावजूद अगर तमाम बदलावों को आत्मसात करने के बावजूद कोई मानव समूह अपनी विशिष्टता को सुरक्षित रख पाने में सफल रहता है तो यह उसकी न सिर्फ अलग पहचान दर्शाता है, बल्कि उसे अन्य मानव समूहों से विशिष्ट भी बनाता है। कमोबेश यही सार है प्रसिद्ध लेखक जय सिंह रावत लिखित ” बदलाव के दौर से गुजरती जनजातियां” पुस्तक का।

यह बदलते परिवेश में उत्तराखंड की पांचों जनजातियों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पक्ष पर एक गंभीर शोध ग्रन्थ है जिसे  राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत (एनबीटी इंडिया) ने प्रकाशित किया है। निसंदेह ग्रन्थ में लेखक ने जनजातीय समाज का शोधपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत किया है। इस दृष्टि से जनजातीय समाज की संस्कृति, व्यवहार, संस्कार और विशिष्टता को मौलिकता के साथ आईने की तरह प्रस्तुत किया है। वस्तुत: जनजातीय समुदायों ने भारतीय परम्परा और सभ्यता को बचाते हुए मानव जीवन की एक समानांतर सभ्यता को विकसित किया है। इनका जीवन और धर्म प्रकृति आधारित है। निसंदेह ये जनजातीय समूह ही भारत के मूल निवासी हैं, उन्होंने परिवर्तन को आत्मसात करने के बावजूद अपनी जड़ों को नहीं छोड़ा है।

जय सिंह रावत द्वारा सात भागों में लिखित इस पुस्तक के पहले भाग में भारत के जनजातीय संसार, अतीत और वर्तमान के बीच की कड़ी के रूप में आदिवासी का विश्लेषण किया गया है। दूसरे भाग में उत्तराखंड की जनजातीय विविधता एवं सांस्कृतिक धरोहर तथा पौराणिक काल से हिमालय पर जनजातियों के अस्तित्व को बताया गया है। तीसरे भाग में भोटिया जनजाति के रोल मॉडल और धार्मिक अल्पसंख्यक जाड़ भोटिया का विस्तृत विवरण दिया गया है। चौथे भाग में जौनसारी समाज के तेजी से बदलते परिदृश्य और जौनसारी समाज के सहोदर रंवाल्टा और जौनपुरी की विवेचना की गई है। इसी तरह पांचवें भाग में उत्तराखंड के तराई भू भाग की थारू जनजाति का विवरण दिया गया है। याद रहे थारू जनजाति उत्तराखंड का सबसे बड़ा जनजातीय समूह है लेकिन उसकी उपस्थिति पूरे सामाजिक परिदृश्य में उस तरह परिलक्षित नहीं होती, जो होनी चाहिए। छठे भाग में उत्तराखंड की प्राचीनतम जनजाति बुक्सा का विस्तार से वर्णन किया गया है जबकि सातवें तथा अंतिम भाग में आदिम राजी जाति जो विलुप्ति की कगार पर है, उसके अस्तित्व तथा उपस्थिति का गहन विवेचन किया गया है। इस तरह यह महज एक पुस्तक नहीं बल्कि शोध ग्रंथ है जो हमारे नीति नियंताओं के लिए मार्गदर्शक का काम कर सकता है। यह अलग बात है कि नीति-नियंता अपने बौद्धिक विलास के चलते इस तरह के प्रयासों को हाशिए पर ही रखते हैं।

उत्तराखंड की पांच प्रमुख जनजातियों का सारगर्भित विश्लेषण समाज शास्त्रीय दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। निश्चित रूप से यह स्वांत: सुखाय का प्रयास नहीं है बल्कि जनजातीय समाज को उसके गौरव का बोध कराने के साथ लोक समाज और उसकी संस्कृति को अक्षुण्ण रखने का आग्रह भी है। आखिर क्या कारण है कि राजी जनजाति का एक बार एक विधायक गगन सिंह रजवार चुने जाने के बाद कोई और नेतृत्व नहीं उभरा अथवा उभरने का मौका नहीं मिला। यह प्रश्न बेशक स्पष्टत लेखक ने उल्लिखित नहीं किया किंतु इशारा जरूर किया है। जाड़ भोटिया जनजाति जो अपनी विशिष्ट संस्कृति के लिए जानी जाती है, उसकी समाज में बहुत दमदार उपस्थिति नहीं दिखती है तो उसके कारणों की भी पड़ताल की गई है। थारू और बोक्सा जनजाति की संख्या क्यों सिमट रही इसका भी लेखक ने समाजशास्त्रीय दृष्टि से विश्लेषण किया है। उत्तराखंड की जिन तीन जनजातियों ने अपनी श्रेष्ठता दर्ज की है उनमें जौनसारी, भोटिया और पिथौरागढ़ की शौका, रंवाल्टा, जौहारी मुख्य हैं। इन जनजातियों से प्रदेश के दो मुख्य सचिव बन गए हैं तो कठिन पर्यावास में रहने के बावजूद उच्च शिखर छूने की उनकी जिजीविषा भी इससे परिलक्षित होती है।

करीब चार सौ अस्सी पेज की इस पुस्तक का मूल्य एनबीटी ने 565 रुपए रखा है। पुस्तक की सामग्री पठनीय है और अत्यंत श्रमसाध्यता को देखते हुए यह मूल्य अधिक नहीं है। 

निष्कर्ष रूप में कहें तो यह पुस्तक गहन शोध के बाद निकला नवनीत है जो भविष्य के लिए एक मानदंड है और समाजशास्त्र के अध्येताओं के लिए अत्यंत गंभीर चिंतन का फलक उपलब्ध कराती है। पुस्तक की यह सफलता भी है। आशा की जानी चाहिए कि जयसिंह रावत जी का यह प्रयास निष्फल नहीं जायेगा। यह पुस्तक सिर्फ जनजातीय समाज के लिए ही नहीं बल्कि आम पाठक के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी।

(बदलाव की दौर से गुजरती जनजातियां पुस्तक की समीक्षा दिनेश शास्त्री ने की है।)

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