बदलते दौर के साथ अब मीडिया और उसके भीतर कामकाज का तरीका भी बदल चुका है। अख़बारों से आगे बढ़कर ख़बरें अब वेबसाइट और यूट्यूब पर सीधे प्रसारण के साथ जा रही हैं। देखने वालों तक को मीडिया कंपनी अपने अंदाज़ में ख़बरें परोसती ही हैं लेकिन इन कंपनी के भीतर अपनी एक दुनिया है जो एक ख़बर हो सकती है। ऐसे ही एक मीडिया हाउस ‘देश-दुनिया’ के बारे में मीडियाकर्मी और लेखक विजय मनोहर तिवारी ने किताब लिखी है ‘स्याह रातों के चमकीले ख़्वाब।’ किताब लेखक के पत्रकारिता के अनुभवों पर आधारित है जिसका लाभ निश्चित रूप से नई पौध को मिलेगा। देश-दुनिया एक अख़बार है जिसे लेखक एक केस स्टडी की तरह लेते हैं।
कहानी निदा फ़ाज़ली के शेर से शुरु होती है और देश-दुनिया अख़बार की भीतरी ख़बरों के साथ कि अलग-अलग लोग किस तरह अपनी भूमिका बतौर पत्रकार निभाते हैं। शुरुआती पन्नों से ये तो पता चलता है कि एक ख़बर महकमों को हिलाकर रख सकती है लेकिन इसके साथ ही लेखक चेतावनी देते हैं कि ‘आपकी नज़र में अगर प्रबंधन का पिछलग्गू होना कोई ख़ासियत नहीं है तो अपनी समझ को आप ही सुधारिए।’ लेकिन पृष्ठभूमि के बारे में लिखते हुए ये भी बताते हैं कि कैसे किसान परिवार या छोटे शहर से आने वाले लोग बड़े बदलावों के जुनून को साथ लेकर इस पेशे में शामिल होते हैं। इसके साथ ही कुछ और किरदार भी हैं, संपादकों से लेकर वरिष्ठ पत्रकार और नए सीखने वालों तक। लेकिन यहां जब किरदारों की बात हो रही थी तो एक बात उल्लेखनीय है कि लेखक ने सिनेमा को ख़ूब बारीक़ी से देखा है। वे अपने पात्रों की तुलना जिस तरह अलग-अलग फ़िल्मों के किरदारों से करते हैं, आप जैसे मन में उऩका चित्र ही खींच लेंगे।
इसके बाद, किताब पत्रकारिता की दुनिया के कई ज़ोख़िमों की भी बात करती है जिसमें शहर और बाहर के बड़े उद्योगपतियों के भ्रष्टाचार, उनके ख़िलाफ़ जुटाए गए सबूतों के लिए मेहनत है लेकिन वे कैसे अख़बार की लीड पाने के लिए बेताब रहते हैं। नेतानगरी और मीडिया के साथ उनके संबंध भी एक मुद्दा है, ये एक ऐसा मुद्दा है जो यूं भी सच ही है और लेखक ने उसे अपनी तरह से पाठकों तक पहुंचाया है। लेकिन एक बहुत ख़ास संंबंध होता है मालिक और संपादक का जहां अक्सर संपादकों के काम में मालिकों का हस्तक्षेप रहता है वहीं देश दुनिया अख़बार के संस्थापक ने कभी दखल नहीं दिया। ये एक ऐसी चुनौती है जिसे मीडिया में काम करने वाले और पद पर बैठे ठीक से समझ पाएंगे। किताब की भाषा मज़ेदार है, छोटे-छोटे संवादों को जो अलंकार दिए गए हैं, आप उन्हें पढ़कर हंस देंगे। किताब बहुत हल्के-फुक्ले अंदाज़ में गहरी बात कह रही हैै। एक बहुत ज़रूरी विषय जो मीडिया का भीतरी है वो है मार्केटिंग टीम और कॉटेंट टीम, जिसकी साझेदारी और मीटिंग का किताब में ब्यौरा है। लेखक ने एक जगह उपमा दी है कि मोसाद की, इन दिनों उसकी ख़बर वाकई चल भी पड़ी है फिर एक जगह चर्चा है ओशो-धाम में होने वाले ध्यान के प्रकारों की। कुल मिलाकर अध्यात्म से लेकर ख़ूफिया एजेंसी तक किताब में दर्ज हैं।
बदलते हुए फॉन्ट, शब्दावली के साथ-साथ रिपोर्टिंग, डेस्क, राजनीति और संपादकीय विभाग पर पूरी कहानी इस किताब में मौजूद है। कहानी भले ही अख़बार पर आधारित हो लेकिन मीडिया में काम करने वाला हर पत्रकार यह जानता है कि अख़बार का अनुभव कितना ज़रूरी है ख़ास तौर पर मीडिया के अनुशासन को समझने के लिए। यद्यपि किताब सचेत करती है कि ‘यहां ख़ुद को अंधेरे में रखकक दूसरों की सुर्खियां सजाई जाती हैं’ तथापि किताब प्रोत्साहन का ही काम करती है। मीडिया में काम करने के इच्छुक और इसी को संभावना की तरह देखने वालों लोगों को यह किताब पढ़नी चाहिए। निदा फ़ाज़ली के शेर से शुरु हुई किताब एक शेर के साथ ख़त्म तो हो रही है लेकिन पत्रकारिता के अनुभवों पर सोचने के लिए भी विवश करती है।
किताब प्रभात प्रकाशन से छपी है, इसका मूल्य 500 रुपये है। लेखख विजय मनोहर तिवारी है जो वर्तमान में मध्य प्रदेश में राज्य सूचना आयुक्त और देश के बहुकला केन्द्र ‘भारत भावन’ के न्यासी हैं।